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असित सेन और कन्हैया लाल

कन्हैया लाल खिलौना में

कन्हैया लाल — नाना रूप

कन्हैया लाल दिलीप कुमार के साथ

कन्हैयालाल: कर भला तो हो भला

ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म एम एक्स प्लेयर पर ‘नाम था कन्हैयालाल’ नाम की एक डाक्यूमेंटरी रिलीज़ हुई है। अगर आज किसी सिनेमा प्रेमी से पूछा जाए कि उसने कन्हैयालाल का नाम सुना है? तो सम्भव है दस में से नौ लोग पलट कर सवाल करेंगे कि ‘अरे यह कौन है?’ जब उन्हें महबूब खान निर्मित नरगिस की फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ के दुष्ट ब्याजखोर सुखीलाल की याद दिलाई जाए तो सम्भव है कि उन्हें कन्हैयालाल की याद आ जाए। 

लगभग 50 सालों तक दिलीप कुमार, देव आनंद, अशोक कुमार, मनोज कुमार, सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र, जितेन्द्र, अमिताभ बच्चन जैसे टाॅप स्टार्स के साथ काम करने वाले कन्हैयालाल का नाम ऐसे कलाकरों में शामिल है, जिसने अपने परफ़ॉर्मेंस से सिनेमा प्रेमियों को प्रभावित तो ख़ूब किया था, पर दुर्भाग्य से बड़ी तेज़ी से गुमनामी के परदे के पीछे खो गए थे। निर्देशक पवन कुमार ने उन्हीं कन्हैयालाल को गुमनामी के परदे के पीछे से बाहर लाने का प्रयास किया है। डाक्यूमेंटरी में अमिताभ बच्चन, नासिरुद्दीन शाह, बोमन ईरानी, बोनी कपूर, जावेद अख्तर, रणधीर कपूर, सलीम खान, अनुपम खेर, जाॅनी लीवर, पंकज त्रिपाठी, पेंटल, बीलबल जैसे कलाकारों ने अपनी-अपनी तरह से कन्हैयालाल को याद किया है। 

आख़िर कौन थे कन्हैयालाल? पूरा नाम कन्हैयालाल चतुर्वेदी। जन्म 1910 में, स्थान वाराणसी। उनके पिता पंडित भैरोदत्त चौबे वहाँ सनातन धर्म नाटक समाज की नाटक-मंडली चलाते थे। यह मंडली अलग-अलग शहरों नाटक ले कर जाती थी। 9 साल के कन्हैयालाल को इसमें मज़ा आया तो पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर पिता के साथ जुड़ गए। उनका मूल शौक़ लिखना था। (और इसीलिए मुंबई के हिंदी फ़िल्म जगत में आए थे)। पर पिता की मौत के बाद वह ख़ुद नाटक-मंडली चलाने लगे थे। 

उनके बड़े भाई पंडित संकठाप्रसाद तब तक मुंबई में स्थायी हो चुके थे और मूक फ़िल्मों में काम करने लगे थे। वाराणसी में नाटक-मंडली का काम ढंग से नहीं चल रहा था, इसलिए बड़े भाई और माँ के कहने पर कन्हैयालाल मुंबई आ गए थे। वह मुंबई अभिनय करने नहीं आए थे। उन्होंने सोचा था कि मुंबई में नाटक-फ़िल्में लिख कर पैसा कमाऊँगा। डाक्यूमेंटरी में तो यह इशारा है कि बड़े भाई कहाँ चले गए हैं, यह पता करने के लिए माँ ने कन्हैयालाल को मुंबई भेजा था। जबकि मुंबई आ कर वह वहीं के हो कर रह गए थे। 

फ़िल्मों में उनकी शुरूआत को ले कर दो-तीन बातें हैं। एक बात के हिसाब से अरदेशर ईरानी, चिमन देसाई और अंबालाल पटेल की सागर मूवीटोन फ़िल्म कंपनी की फ़िल्म ‘सागर का शेर’ (1937) में एक्स्ट्रा कलाकार के रूप में पहली बार काम किया था। इस फ़िल्म में महबूब खान की भी एक छोटी सी भूमिका थी। बाद में महबूब खान ने कन्हैयालाल को ‘सुपरस्टार विलन’ बना दिया था। सागर मूवीटोन में उनके बड़े भाई की सिफ़ारिश पर उन्हें काम मिला था। उस समय मेहताना 35 रुपया मिलता था। 

कंपनी की दूसरी एक फ़िल्म गुजराती लेखक कन्हैयालाल मुंशी की कहानी पर बनी फ़िल्म ‘झूल बदन’ (1938) थी। इस फ़िल्म के हीरो मोतीलाल (दिलीप कुमार की ‘देवदास’ में चुन्नी बाबू की भूमिका के लिए उन्हें श्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड मिला था) के पिता की भूमिका करने वाला कलाकार शूटिंग में नहीं आया तो मोतीलाल ने स्टुडियो में घूम रहे कन्हैयालाल से कहा कि कैमरे के सामने तुम खड़े हो जाओ। मोतीलाल कन्हैयालाल से 11 दिन बड़े थे। 28 साल के कन्हैयालाल ने इस फ़िल्म में उनके पिता की भूमिका की थी। उसी साल ‘ग्रामोफोन सिंगर’ नाम की दूसरी एक फ़िल्म आई, जिसमें सुरेन्द्र नाम का हीरो था। इसमें भी कन्हैयालाल की छोटी-सी भूमिका थी। 

1939 में कंपनी की तीसरी फ़िल्म ‘साधना’ आई। इसमें (कालेज की छोटी) शोभना समर्थ और बिबो (इशरत सुल्तान जो बाद में पाकिस्तान जा कर एक्टिंग करने लगी थी) जैसी बड़ी स्टार बनी थीं। इसमें चिमनलाल देसाई ने कन्हैयालाल से संवाद लिखवाए थे। पर उन्हें संवाद बोलता सुन कर फ़िल्म के हीरो प्रेम आदिब (गांधीजी द्वारा देखी एकमात्र फ़िल्म ‘राम राज्य’ में वह राम बने थे) के दादा की भूमिका के लिए कन्हैयालाल को खड़ा कर दिया था। फ़िल्म सफल हुई थी। 

इन तीनों फ़िल्मों में उनकी भूमिकाएँ ध्यान देने लायक़ रहीं। पर युवा कन्हैयालाल अब तक ‘बूढ़े’ की भूमिका में बँध चुके थे। सालों बाद एक इंटरव्यू में मज़ाक करते हुए उन्होंने कहा था, “फ़िल्म साधना में उन्हें पिता की जगह दादा की भूमिका करने का प्रमोशन मिला था।” 

इसमें जो बाक़ी था महबूब खान ने पूरा कर दिया था। बाद में ब्लॉकबस्टर फ़िल्म देने वाले महबूब खान ने कन्हैयालाल में एक दुष्ट विलन दिखाई दिया था। 1939 में आई उनकी फ़िल्म ‘एक ही रास्ता’ में उन्होंने पहली बार कन्हैयालाल को बाँके नाम के एक दलाल की भूमिका में लिया था, जो फ़िल्म की हीरोइन माला का अपहरण कर एक धनवान को बेच देता है। 

उसी साल सागर मूवीटोन बंद हो गया। इसके पार्टनर चिमनलाल देसाई ने नेशनल स्टुडियो के युसुफ से हाथ मिला लिया। इसी नेशनल स्टुडियो के सहयोग से महबूब खान ने 1940 में ‘औरत’ फ़िल्म बनाई थी। इसमें ब्याजखोर सुखीलाल की भूमिका में उन्होंने कन्हैयालाल को लिया था। 17 साल बाद 1957 में महबूब खान ने हिंदी सिनेमा की सब से बड़ी हिट फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ बनाई थी। यह उसी ‘औरत’ फ़िल्म की रीमेक थी। इसमें उर्दू नाटकों से आई सरदार अख्तर (जिसके साथ महबूब खान ने विवाह किया था) ने राधा की भूमिका की थी। रामू की भूमिका सुरेन्द्र ने की थी और बिरजू की भूमिका याकूब ने की थी। ‘मदर इंडिया’ में ये भूमिकाएँ क्रमश: नरगिस, राजेन्द्र कुमार और सुनील दत्त ने कीं थी। 

‘मदर इंडिया’ में महबूब खान ने ‘औरत’ का स्केल बड़ा कर दिया था। कहानी, इसका ट्रीटमेंट, कलाकार, लोकेशंस और सिनेमेटोग्राफी की दृष्टि से विशाल (लार्जर दैन लाइफ़) फ़िल्में बनाने की परंपरा में ‘मदर इंडिया’ पहली फ़िल्म है।

काम की अभिनय क्षमता का ही यह गवाह था कि महबूब खान ने ‘औरत’ के सभी एक्टर्स में से मात्र कन्हैयालाल को ही ‘मदर इंडिया’ में रिपीट किया था। ग़रीबी में बेटे को बड़ा करती और गाँव के दुष्ट ब्याजखोर के वश में आए बग़ैर सुहाग की रक्षा करती नरगिस के लिए ‘मदर इंडिया’ माइलस्टोन साबित हुई थी। इसमें कन्हैयालाल के लिए पहले ‘औरत’ और फिर ‘मदर इंडिया’ टर्निंग प्वाइंट बन गई। उस ज़माने में जब पुरानी फ़िल्मों की रीमेक नहीं बनती थी, तब ऐसा दुस्साहस महबूब खान ने पहली बार किया था। इतना ही नहीं, उन्होंने विलन भी उसी भूमिका में लिया था। 

इसका पूरा श्रेय कन्हैयालाल को जाता है। उस ज़माने के नो-नोनसेंस फ़िल्म विश्लेषक बाबूराव पटेल ने ‘औरत’ फ़िल्म में कन्हैयालाल के अभिनय के लिए लिखा था, “ब्याजखोर सुखीलाल की भूमिका में घृणा पैदा करने में कन्हैयालाल सफल रहे हैं।” 

कन्हैयालाल ने अपनी भूमिका में ऐसी जान डाल दी थी कि महबूब खान ने ‘मदर इंडिया’ में उन्हीं से वह भूमिका रिपीट कराई और कन्हैयालाल ने भी इसका फ़ायदा उठा कर सुखीलाल में ‘चार चाँद’ लगा दिए थे। जैसे गब्बर सिंह के लिए ‘शोले’ और अमरीश पूरी के लिए ‘मिस्टर इंडिया’ कैरियर बेस्ट साबित हुई थीं, उसी तरह कन्हैयालाल के लिए ‘मदर इंडिया’ एक इतिहास रच गई थी। इसके बाद उन्हें जो भी फ़िल्में मिलीं, उन सभी में कहीं न कहीं सुखीराम जैसी ही दुष्टता दिखाने वाली थीं। उनकी यह सफलता ही उनके लिए गले का फाँस बन गई थी। सुखीलाल का ऐसा प्रभाव था कि फ़िल्म निर्माता उन्हें किसी अन्य भूमिका में देखने को तैयार ही नहीं थे। 

इसके बाद 1967 में मनोज कुमार की ‘उपकार’ में लाला धनीराम, 1967 में दिलीप कुमार की ‘राम और श्याम’ में मुनीम जी और 1965 में मनोज कुमार की ‘हिमालय की गोद में’ में घोघर बाबा की भूमिका में कन्हैयालाल को दर्शकों ने बहुत सराहा था। 1981 में संजीव कुमार, शबाना, मिथुन चक्रवर्ती, राज बब्बर और नासिरुद्दीन शाह की ‘हम पांच’ फ़िल्म में उन्होंने लाला नयनसुख की भूमिका में ‘सुखीलाल’ जैसी मीठी दुष्टता का परचम लहराया था। 

‘हम पांच’ की शूटिंग के दौरान वह बुरी तरह ज़ख़्मी हुए थे। लंबे समय तक बिस्तर पर पड़े रहने के बाद वह खड़े तो हुए, पर यह ज़ख़्म उनके लिए जानलेवा साबित हुआ था। एक साल बाद 14 अगस्त, 1981 को कन्हैयालाल दुनिया छोड़ गए थे। 

उन पर बन रही डाक्यूमेंटरी में उन्हें लक्ष्य कर के एक गीत भी बनाया गया है, ‘पहन के धोती कुर्ते का जामा . . .’ सुखीलाल से ले कर दूसरे तमाम पात्रों में, कन्हैयालाल उनके ट्रेडमार्क धोती और कुर्ता में दर्शकों में हमेशा के लिए याद रह गए हैं। 1972 में राजेश खन्ना-मुमताज़ की फ़िल्म ‘दुश्मन’ में गाँव के दुष्ट व्यापारी दुर्गाप्रसाद की भूमिका की थी। इसमें उनका एक संवाद बहुत मशहूर हुआ था—कर भला तो हो भला। संवाद साधारण था, पर कन्हैयालाल ने इसे इस तरह बोला था कि यह लोगों के मन में बैठ गया था। असली जीवन में वह बहुत भले आदमी थे। शायद इसीलिए जल्दी भुला दिए गए। 

कन्हैयालाल: कर भला तो हो भला

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