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दृष्टिभ्रम के मास्टर पीटर परेरा की मास्टरपीस ‘मिस्टर इंडिया'

हिंदी फ़िल्मों में एक्टर, एक्ट्रेस, डायरेक्टर और संगीतकार (इसी क्रम में) जाने जाते हैं। बहुत लंबे समय तक तो उसके लेखक, गायक या गीतकार का नाम तक लोगों को पता नहीं होता था। ये लोग तो अभी भी ‘सेलिब्रिटी’ श्रेणी में आते हैं। पर एक फ़िल्म के निर्माण में ऐसे तमाम लोग अथवा टेक्निशियंस का योगदान होता है, जिनके अस्तित्व के बारे में हमें बिलकुल पता नहीं होता। जैसे कि उसमें आर्ट डायरेक्टर, एडिटर, साउंड इंजीनियर, कोस्ट्यूम डायरेक्टर, स्टंट आर्टिस्ट आदि। एक फ़िल्म ख़ूबसूरती के साथ हमारे सामने परदे पर आती है, इसके पीछे इस तरह के अनेक कलाकारों-तकनीशियनों की स्किल होती है। पर ये परदे के पीछे होने अथवा ‘सहायक’ की भूमिका में होने से ‘खोए’ रहते हैं।

ऐसा ही एक डिपार्टमेंट सिनेमेटोग्राफी का है। फ़िल्में विज्युअल मीडियम है। इनमें देखना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। हम परदे पर कहानी को जिस रूप में देखते हैं, उसकी कमान इस सिनेमेटोग्राफर के हाथ में होती है। फ़िल्मों के एकदम रसिया लोगों को फ़िल्म की फोटोग्राफी के बारे में थोड़ी समझ होती है। पर साधारण फ़िल्मप्रेमियों को फ़िल्म की शूटिंग कैसे होती है और इसे शूट करने वाले कौन होते हैं, इसकी कभी जानकारी नहीं हो पाती। इन्हें फ़िल्मों का गुमनाम ‘हीरो’ कहा जा सकता है।

ऐसा ही एक गुमनाम हीरो था पीटर परेरा। 93 साल के पीटर परेरा का 10 जनवरी को मुंबई में अवसान हो गया। उस समय दुनिया को इसकी जानकरी अभिषेक बच्चन ने दी थी। अभिषेक ने यह समाचार देते हुए लिखा था, ‘हमारी इंडस्ट्री ने आज एक महान शख़्सियत को खो दिया है। पीटर परेरा हमारी फ़िल्मों में सिनेमेटोग्राफी के प्रणेता थे। महानतम थे। मैं जब छोटा था तब अपने पिता के साथ फ़िल्मों के सेट पर उनसे मिलता था। स्नेहिल, गौरवपूर्ण और प्रतिभाशाली थे। रेस्ट इन पीस सर।’

पीटर परेरा यानी कौन, अगर किसी के मन में यह सवाल उठ रहा है तो उनकी एक ही फ़िल्म याद कर लीजिए ‘मिस्टर इंडिया’। वैसे तो उनके नाम तमाम फ़िल्में हैं जैसा कि अभिषेक ने कहा: अमिताभ बच्चन की शहंशाह, मर्द, अजूबा, तूफ़ान, इन्द्रजीत, कुली, पुकार, याराना, क़समेंवादे, देशप्रेमी और अमर, अकबर, एंथनी। इसी तरह: आ गले लग जा, बार्डर, खोटे सिक्के और सच्चा-झूठा।

इन सभी फ़िल्मों में ‘मिस्टर इंडिया’ ख़ास और अलग थी। क्योंकि इसमें एक ऐसे हीरो की बात थी, जो किसी को दिखाई नहीं देता था। हिंदी सिनेमा में ट्रिक फोटोग्राफी कोई नई बात नहीं है। 1939 में विजय भट्ट ने ‘मि. एक्स’ नाम से, 1957 में नानाभाई भट्ट ने भी इसी नाम से और 1965 में किशोर कुमार ने ‘मि. एक्स इन बाॅम्बे’ नाम से अदृश्य हीरो की फ़िल्म बनाई थी। ये तीनों फ़िल्में परंपरागत रहस्य, रोमांच थ्रिलर के जोनर की फ़िल्में थीं। इस तरह के हीरो को सुपरहीरो के रूप में पेश करने वाली फ़िल्म ‘मि. इंडिया’ पहली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म का मुख्य आकर्षण ही उसकी सिनेमेटोग्राफी और ट्रिक फोटोग्राफी थी।

सलीम-जावेद ने अमिताभ बच्चन को ध्यान में रख कर एक स्क्रिप्ट लिखी थी। (जोड़ी के रूप में दोनों की यह अंतिम फ़िल्म थी) प्रमोद चक्रवर्ती अमिताभ बच्चन को ले कर एक फ़िल्म बना रहे थे। अमिताभ ने कहीं आउटडोर शूटिंग से इस फ़िल्म का मुहूर्त शूट के लिए अपना संदेश टेप कर के भेजा था। इससे सलीम-जावेद को लगा कि अमिताभ की आवाज़ पर ही यह फ़िल्म बनानी चाहिए।

किसी कारणवश अमिताभ ने इसमें रुचि नहीं दिखाई तो उन्होंने बोनी कपूर से संपर्क किया। बोनी ने बच्चों के साथ ‘मासूम’ में काम कर चुके शेखर कपूर को इसका निर्देशन सौंपा था। शेखर ने इसमें फ़ैंटेसी को बढ़ा दिया था और उन्होंने फ़िल्म का हीरो अरुण वर्मा (अनिल कपूर) को सुपरहीरो के रूप में पेश किया। इसमें वह एक यंत्र की मदद से ख़ुद को ग़ायब करने में सक्षम होता है और मात्र लाल प्रकाश में ही दूसरों को दिखाई देता है।

इसमें स्पेशल इफ़ेक्ट का कमाल था। इसमें विदेशी तकनीशियनों की मदद लेना बहुत ख़र्चीला था, इसलिए सिनेमेटोग्राफर परेश परेरा को यह काम सौंपा गया था। ‘स्कोल’ नाम के ऑनलाइन अख़बार में कामायनी शर्मा को दिए एक इंटरव्यू में परेरा ने कहा था, ‘मि. इंडिया में बाबा आज़मी कैमरामैन था। मैं स्पेशल इफ़ेक्ट के लिए काम करता था। शेखर कपूर मुझसे कहते थे कि कैसा दृश्य करना है, मैं उसी के अनुसार मैकेनिकल ट्रिक्स बनाता था। जैसे की एक दृश्य में मि. इंडिया मोगेम्बो के पैरों के पास जाकर ब्रेसलेट उठाता है। इसके लिए हम ने ब्रेसलेट को एक काले धागे में बाँध कर कैमरा के सामने खींचा था यानी ऐसा लगे कि अदृश्य मि. इंडिया यह कर रहा है। हम चीज़-वस्तुओं और कलाकारों को पतले तार से बाँध कर इस तरह खींचते कि परदे पर लगे कि कोई अनजानी ताक़त उसे खींच रही है।’

परेरा के पिता फ़िल्म वितरक थे और उस समय के प्रख्यात वितरक एम.बी. बीलिमोरिया और निर्माता होमी वाडिया के साथ काम करते थे। परेरा कम उम्र से ही होमी वाडिया के स्टुडियो में हेल्पर के रूप में जुड़ गए थे और वहाँ कैमरे का काम सीखा था। वहाँ बाबूभाई मिस्त्री नाम का गुजराती फोटोग्राफर था। बाद में बाबूभाई माइथोलाॅजिकल फ़िल्मों में स्पेशल इफ़ेक्ट के लिए जाने गए।

होमी वाडिया की धार्मिक फ़िल्मों में चमत्कारिक दृश्य शूट करने के लिए तरह-तरह की टेक्निक का उपयोग किया जाता था। पीटर परेरा की पढ़ाई यहीं से शुरू हुई। एक स्वतंत्र सिनेमेटोग्राफर के रूप में उनकी पहली फ़िल्म ‘पारसमणि’ (1963) थी। यह फ़ैंटेसी फ़िल्म थी और बाबूभाई मिस्त्री ने बनाई थी। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की रिलीज़ हुई पहली फ़िल्म थी। उसका गीत ‘हंसता हुआ नूरानी चेहरा . . .’ आज भी लोकप्रिय है।

इस फ़िल्म में परेरा ने रबर से 30 फुट की गिलहरी बनाई थी। उसमें प्लास्टिक की गुड़िया की आँखें फ़िट की थी। आँखों को काले धागे से बाँधा था, जिसे खींचने से आँखें खुलें और बंद हों। इसी तरह ‘पवनपुत्र हनुमान’ नाम की फ़िल्म में हनुमान बने एक्टर को एक काले रंग के खंभे पर पेट के बल लिटाया था। खंभा खिसके तो ऐसा लगे कि वह उड़ रहा है। बैकग्राउंड एकदम सफ़ेद होता है, जिससे एडिटिंग में कटआउट कर के दूसरे बैकग्राउंड में चिपका दिया जाए।

‘मि. इंडिया’ में एक दृश्य है, जिसमें कीचड़ में फिर फ़र्श पर उसके क़दम पड़ते दिखाए देते हैं। इसमें परेरा ने एक के बाद एक लाइन से क़दम पड़ते दिखाए और फिर एक एक फ़्रेम में शूट किया। बाद में फ़्रेम एक साथ चलाए गए तो ऐसा लग रहा है कि कोई अदृश्य भाग रहा है, जिसके पैरों के निशान पड़ रहे हैं।

‘मि. इंडिया के अलावा लेख के शुरूआत में जिन फ़िल्मों के नाम दिए गए हैं, उन्हें फिर से देखने का मौक़ा मिले तो उनमें ‘कैमरावर्क’ पर ध्यान देना। पीटर परेरा ने सिनेमेटोग्राफी की कला में कैसा-कैसा योगदान दिया था, इसका पता चल जाएगा। दुर्भाग्य से पिछले 20 सालों से वे दृष्टिहीन हो गए थे और बालीवुड ने भी उनकी ओर देखना बंद कर दिया था।

पीटर परेरा

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