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फ़िल्मों में प्रेमचंद: सिनेमा का ‘प्रेम’ और साहित्य का ‘चंद’

 

प्रेमचंद जयंती पर विशेष

धनपतराय श्रीवास्तव की परेशानी 8 साल की उम्र से ही शुरू हो गई थी। उन्होंने अभी स्कूल जाना शुरू किया था कि उनकी माँ आनंदी देवी की बीमारी से मौत हो गई थी। उनके पिता अजब अली ने दूसरा विवाह किया और धनपत को दादी के सहारे छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद दादी भी स्वर्ग सिधार गईं। धनपत बचपन से ही माँ-बाप के प्यार से वंचित रह गया। वह 15 साल का हुआ तो उसका विवाह करा दिया गया। वह पढ़ना चाहता था, पर तभी पिता की भी मौत हो गई। इसके बाद धनपत पर सौतेले परिवार की ज़िम्मेदारी आ गई। सौतेली माँ का अत्याचार सहन करना पड़ता था, यह एक अलग दुख था। उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। 5 रुपए महीने वेतन पर एक ट्यूशन मिला। 3 साल बाद एक सरकारी स्कूल में सहायक शिक्षक की नौकरी मिल गई। 

शिक्षक की नौकरी में प्रगति होती रही। पर घर में ग़ुस्सैल पत्नी और सौतेली माँ के साथ झगड़ों में भी ‘विकास’ होता रहा। एक बार पत्नी ने गले में फाँसी भी लगा ली, पर बच गई। धनपत ने उसे इस तरह ताने मारे कि वह अपने पिता के घर चली गई। धनपत ने उसे फिर कभी नहीं बुलाया। इसके बाद धनपत ने एक बाल विधवा के साथ विवाह कर लिया। धनपत ने ज़िन्दगी की गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की। मामूली वेतन वाली शिक्षक की नौकरी करते हुए उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की, साथ ही कहानियाँ लिखने का शौक़ पूरा करने लगे। इसके बाद स्कूलों के डिप्टी इंसपेक्टर की नौकरी मिली। पर उसी बीच सरकारी नौकरियों के बहिष्कार का गाँधीजी का आह्वान आया। धनपत इस तरह की नौकरियों से थक चुके थे, इसलिए पत्नी से सहमति ले कर नौकरी छोड़ दी। 

धनपत ने अब लिख कर जीवन निर्वाह करने का निश्चय किया। उन्होंने बनारस में प्रिंटिंग प्रेस शुरू की। लिख कर जब आज कमाई नहीं होती तो 40 के दशक में कैसे होती। लिख कर चार पैसे कमाने के चक्कर में धनपत मुंबई आ गए। सुना था कि मुंबई में फ़िल्म वाले लिखने का अच्छा पैसा देते हैं। बात तो सच थी। अजंता सिनेटोन नाम की एक फ़िल्म कंपनी ने 8, 000 रुपए महीने वेतन पर स्क्रिप्ट लिखने की नौकरी दे दी। बनारस के पास लमही गाँव में दारुण ग़रीबी में पैदा हुए और मामूली नौकरी के लिए कानपुर, गोरखपुर और बनारस के चक्कर लगाने वाले धनपत के लिए 8 हज़ार की रक़म शाही थी। धनपत को सिनेमा में कोई रुचि नहीं थी, पर पैसा इतना मिल रहा था कि वह मना भी नहीं कर सकते थे। उन्होंने एक साल के एग्रीमेंट पर अजंता में नौकरी कर ली। 

हैदराबाद (पाकिस्तान) के एक हिम्मती सिंधी मोहन दयाराम भवनानी ने 1933 में अजंता सिनेटोन की स्थापना की थी। 1924 में मैनचेस्टर (इंग्लैंड) जा कर मोहन ने फोटोग्राफी की टेक्नॉलोजी की पढ़ाई की थी। उसके बाद जर्मनी में फ़िल्में बनाना सीखा था। वहाँ से वापस आकर मोहन ने द्वारकादास संपत के कोहिनूर स्टुडियो के लिए ‘वीर बाला’ नाम की फ़िल्म का निर्देशन किया था। इस फ़िल्म की मारफ़त उन्होंने हिंदी सिनेमा की पहली ‘सेक्स सिंबल’ सुलोचना को भेंट के रूप में दिया, जिसका असली नाम रूबी मायर्स था, जो यहूदी ऐक्ट्रेस थी। अजंता सिनेटोन के बैनर द्वारा मोहन ने धनपत को भेंट स्वरूप दिया। 

31मई, 1934 को धनपत श्रीवास्तव मुंबई आए और दादर में रहने के लिए किराए पर मकान लिया। स्क्रिप्ट राइटर की नई नौकरी में उन्होंने जो पहली फ़िल्म लिखी, उसका नाम था ‘मिल मज़दूर’। फ़िल्म का निर्देशन मोहन भवनानी ने किया था। इसमें मिल मालिक की बेटी पद्मा की भूमिका 30 के दशक की स्टार मिस बेबो नाम की ऐक्ट्रेस ने की थी, जबकि उसके भाई विनोद की भूमिका एस.बी. नयमपल्ली ने की थी। मिल मालिक भाई-बहन के सामने शिक्षित बेरोज़गार कैलाश की भूमिका में हैंडसम हीरो पी. जयराज था। 

हिंदी सिनेमा के इतिहास में ‘मिल मज़दूर’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जब यह फ़िल्म बनी थी, तब भारत में उद्योग के नाम पर कपड़े की मिलें ख़ूब चल रही थीं। ग़रीब और अमीर की व्याख्या मिल मालिक और मिल मज़दूर के रूप में होती थी। यह शहरीकरण की शुरूआत थी। क्योंकि ब्रिटिशरों ने इन्हें रहने लायक़ बनाया था। भारत एक ग़रीब देश था और गाँव के लोग सुख-सुविधा की तलाश में शहरों की ओर प्रस्थान कर रहे थे। ग़रीबी और निरक्षरता इस क़द्र थी कि मिल मालिक उनका शोषण करने में पीछे नहीं रहते थे। वे मालिक और मज़दूरों के संघर्ष के दिन थे। मुंबई की मिलों की इस वास्तविकता को आधार बनाकर ‘मिल मज़दूर’ फ़िल्म बनाई गई थी। 1934 में इस तरह की फ़िल्म बनाना ही अपने आप में एक घटना थी। क्योंकि इसके पहले इस तरह की कोई फ़िल्म नहीं बनी थी। आज की भाषा में ‘मिल मज़दूर’ को अर्बन नक्सलों की पहली फ़िल्म कह सकते हैं। फ़िल्म का विषय मोहन भवनानी ने पसंद किया था और धनपतराय ने उसे रुचिकर कहानी बनाई थी। 

द हंसराज मिल के मालिक सेठ हंसराज मिल की मालिकी बेटे और बेटी को सौंप कर मर जाते हैं। बेटा विनोद शराबी और अय्याश है, जबकि बेटी पद्मा उदार और सेवाभावी है। मिल में काम करने वाले कर्मचारी विनोद के उलटे-सीधे आदेशों से परेशान हैं। एक दिन पद्मा की गाड़ी मिल से बाहर निकल रही थी, तभी गेट पर एक युवक बेहोश हालत में मिलता है। वह कैलाश है और नौकरी के लिए भटक रहा है। 

पद्मा उसका इलाज करा कर मिल में नौकरी देती है। कैलाश मिल के हिंसक कर्मचारियों का नेतृत्व करता है और उन्हें अहिंसक होने के लिए मनाता है। कैलाश के इस गुण से पद्मा उसकी ओर आकर्षित होती है। एक दिन कर्मचारी विनोद के कामकाज से नाराज़ होकर हड़ताल कर देते हैं। इसमें पद्मा व्यक्तिगत रूप से कर्मचारियों की आर्थिक मदद करती है। इसी में एक दिन कर्मचारी अपनी बात ले कर विनोद से मिलने आते हैं तो विनोद गोली चला देता है, जिसमें कैलाश भी घायल हो जाता है। 

पुलिस विनोद को गिरफ़्तार करती है। उसे 5 साल की सज़ा हो जाती है। अब मिल चलाने की ज़िम्मेदारी पद्मा के पास आ जाती है। विनोद की अय्याशी और हड़ताल के कारण मिल की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के बावजूद कैलाश के नेतृत्व में कर्मचारी कम वेतन पर भी काम करने को तैयार हो जाते हैं। कुछ दिनों बाद मिल को एक बड़ा टेंडर मिल जाता है, जिससे मिल की स्थिति सुधर जाती है। अंत में कैलाश और पद्मा का विवाह होता है और सभी कर्मचारी ख़ुशी से दोनों को बधाई देते हैं। 

आज हमें इस फ़िल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता। पर 1935 में यह सेंसर बोर्ड में मंज़ूरी के लिए गई तो बोर्ड के सदस्यों को ‘आघात’ लगा। मिल मालिक विरोधी इस फ़िल्म को कैसे मंज़ूरी दी जाए? यह तो कर्मचारियों और प्रबंधन के बीच दुश्मनी पैदा करने वाली फ़िल्म है। बोर्ड के एक पारसी सदस्य बेरामजी जीजीभोय मुंबई के मिल मालिकों के संगठन के अध्यक्ष थे। उन्हें यह फ़िल्म मिल मालिक विरोधी लगी थी। 

फ़िल्म पर मुंबई में प्रतिबंध लगा दिया गया। दिल्ली और लखनऊ में प्रदर्शित करने दी गई, पर कुछ ही समय में इसने कर्मचारियों को उकसाया तो इसे वहाँ भी प्रतिबंधित कर दिया गया। विडंबना देखिए कि फ़िल्म देख कर स्क्रीन राइटर बनारस स्थित धनपतराय के प्रिंटिंग प्रेस के कर्मचारियों ने बाक़ी वेतन के लिए हड़ताल कर दी था। धनपत का मुंबई का सपना चकनाचूर हो गया। एक तो फ़िल्म नहीं रिलीज़ हुई, ऊपर से प्रिंटिंग प्रेस बंद हो गई। उन्होंने अपने एक मित्र को भेजी चिट्ठी में लिखा था, ‘सिनेमा का धंधा शराब के धंधे जैसा है। लोगों को पता नहीं कि किसे अच्छा कहा जाए और किसे ख़राब कहा जाए। मैंने सोच-विचार कर यह दुनिया छोड़ देने का निश्चय कर लिया है।’

1935 में उन्होंने मुंबई छोड़ कर फिर से बनारस की राह पकड़ ली। शायद यह अच्छा ही हुआ। उनके जाने से भारतीय सिनेमा का नुक़्सान ज़रूर हुआ, पर भारतीय साहित्य को फ़ायदा हुआ। ‘मिल मज़दूर’ फ़िल्म की प्रिंट तो अब नहीं मिल रहा, पर उसके असफल स्क्रीन राइटर धनपतराय श्रीवास्तव को हम सभी आज मुंशी प्रेमचंद के रूप में जानते हैं। 

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