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 प्रेमचंद साहित्य में मध्यवर्गीयता की पहचान

प्रेमचंद ने सन 1936 में अपने लेख "महाजनी सभ्यता" में लिखा है कि "मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का था जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, ज़रा भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए।" इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि प्रेमचंद की मूल सामाजिक चिंताएँ क्या थीं। वह भली भाँति समझ गये थे कि एक बड़े वर्ग यानी बहुजन समाज की बदहाली के जिम्मेदार, उनपर शासन करने वाले, उनका शोषण करने वाले कुछ थोड़े से पूँजीपति, ज़मींदार, व्यवसायी ही नहीं थे बल्कि अंग्रेज़ी हुकूमत में शामिल (सेवक) उच्चवर्णीय निम्न-मध्यवर्ग भी उतना ही दोषी था। किसान, मज़दूर, दलित वर्ग न केवल शोषित और ख़स्ताहाल था बल्कि नितांत असहाय और नियति का दास बना हुआ जी रहा था। दोनों वर्गों की इतनी साफ़-साफ़ पहचान प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य में किसी ने भी नहीं की थी। एक ओर साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी शिकंजा था तो दूसरी ओर सामंतवादी शोषण की पराकाष्ठा थी। एक तरफ अंग्रेज़ों के आधिपत्य से देश को मुक्त कराने के लिए आंदोलन था, दूसरी ओर जमींदारों और पूँजीपतियों के विरोध में कोई विरोध मुखर रूप नहीं ले पा रहा था। अधिकांश मध्यवर्ग अंग्रेज़ी शासन का समर्थक था क्योंकि उसे वहाँ सुख सुविधाएँ, कुछ अधिकार और मिथ्या अहंकार प्रदर्शन से आत्म गौरव का अनुभव होता था। 
प्रेमचंद ने अपने एक लेख में सन 1921 में "स्वराज की पोषक और विरोधी व्यवस्थाओं" के बारे में लिखा था (असहयोग आंदोलन और गाँधीजी के प्रभाव में) कि "शिक्षित समुदाय सदैव शासन का आश्रित रहता है। उसी के हाथों शासन कार्य का संपादन होता है अतएव उसका स्वार्थ इसी में है कि शासन सुदृढ़ रहे और वह स्वयं शासन के स्वेच्छाचार (दमन, निरंकुशता और अराजकता) में भाग लेता रहे। इतिहास में ऐसी घटनाओं की भी कमी नहीं है जब शिक्षित वर्ग ने राष्ट्र और देश को अपने स्वार्थ पर बलिदान दे दिया है। यह समुदाय विभीषणों और भगवान दासों से भरा हुआ है। प्रत्येक जाति का उद्धार सदैव कृषक या श्रमजीवियों द्वारा हुआ है।" यह निष्कर्ष आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है।

सामान्यत: यह माना जाता है कि मध्य वर्ग की किसी भी आंदोलन, क्रांति और विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। मध्यवर्ग का एक हिस्सा सदैव शासन का पैरोकार और दूसरा हिस्सा आंदोलनों की आवश्यकता का हिमायती होता है। यह दूसरा हिस्सा वैचारिक परिस्थितियों का निर्माण करने में तो अपनी भूमिका का निर्वाह करता है पर आंदोलन की शुरूआत की जिम्मेदारी से वह सदैव बचता रहता है। वह आंदोलन के उग्र और सर्वव्यापी होने पर ही उसमें सक्रिय हिस्सेदारी करता है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस वर्ग की उदासीनता से तो प्रेमचंद क्षुब्ध थे ही, साथ ही समाज में व्याप्त अंधविश्वास, प्रपंच, सामंती शोषण, वर्ग और वर्ण भेद के वीभत्स और कुत्सित रूप के प्रति भी इस वर्ग की उदासीनता एवं तटस्थता से भी वह नाख़ुश थे। प्रेमचंद का जन्म पराधीन भारत की पृष्ठभूमि पर हुआ था जहाँ स्वयं उनको तथा उनके परिवार को अर्थाभाव की विकट स्थितियों से गुज़रने के लिए विवश होना पड़ा था। वहीं धार्मिक और सामाजिक रूढ़िग्रस्तता ने जनमानस को विचारशून्य बना रखा था (यहाँ विचारशून्यता से तात्पर्य शोषण और असमानता की परिस्थियों के प्रति विरोध न करने से है)। इसी असहायता, यथास्थिति और असमानता की जनव्याप्ति की प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद की विचारशील प्रकृति को इस व्यवस्था के विरोध की प्रेरणा प्राप्त हुई। भारतीय परिवेश में उस समय पाखण्ड, आडम्बर, ढोंग, अंधविश्वास, दहेज, स्त्री उत्पीड़न, सूदखोरी, महाजनी, बेगार, छुआछूत, धार्मिक प्रपंच, सामंती उत्पीड़न और पूँजी के प्रभाव विस्तार के विषम रोग बुरी तरह समाज में व्याप्त थे। ये रोग मनुष्य के मनुष्यत्व को खाए जा रहे थे। प्रेमचंद ने इस अभिशप्त समाज और आदमी की अंतर्वेदना को बहुत सहृदयता और संवेदनशीलता के साथ देखा-सुना और परखा था जिसके कारण उनके लेखन में वर्गीय समाज का स्पष्ट चित्र उभर कर आया। वह ग़रीबों, दलितों और शोषितों के पक्षधर लेखक बने। लेखन के बारे में उनका सोचना था कि "साहित्य में राजनीति के आगे मशाल दिखाने वाली सच्चाई की शक्ति होती है।" 

प्रेमचंद ने अच्छी तरह समझ लिया था भारत में सबसे ख़राब हालत कृषकों और श्रमिकों की ही है। एक ओर ज़मींदारी शोषण है तो दूसरी ओर पूँजीपति, उद्योगपति हैं, बीच में सूदख़ोर महाजन हैं। लेकिन यदि यहीं तक उन्होंने अपनी समझदारी का विकास किया होता तो शायद उनकी समझ और दृष्टि भारतीय समाज के चितेरे के रूप में अधूरी ही रहती। उन्होंने भारतीय जन-जीवन में सदियों से व्याप्त अमानवीय जाति प्रथा की ओर भी पूरा ध्यान दिया। इसलिए उनकी अनेक कहानियाँ वर्णव्यवस्था के अमानुषिक कार्यव्यापार का बड़ी स्पष्टता से ख़ुलासा करती हैं। ठाकुर का कुआँ, सद्‍गति, सवा सेर गेहूँ, गुल्ली डन्डा, कफ़न उनकी ऐसी प्रतिनिधि कहानियाँ हैं इस सामाजिक विसंगति को पूरी ईमानदारी से उजागर करती हैं। "ठाकुर का कुआँ" में जोखू चमार को ज्वर का ताप अवश कर देता है। वहीं चमार टोले में जो कुआँ है उसमें कोई जानवर गिर कर मर गया है। उस कुएँ का पानी पीना किसी तरह निरापद नहीं है अत: पीने के लिए स्वच्छ पानी की आवश्यकता है। अब साफ़ पानी सिर्फ ठाकुर के कुएँ से ही मिल सकता है, लेकिन चमार वहाँ नहीं जा सकते। वर्णधर्म के अनुसार वे अस्पृश्य तो थे ही उनकी छाया तक अपवित्र मानी जाती थी। अत: जोखू की पत्नी को रात के अंधेरे में चुपके से पानी ले आने का दुस्साहस सँजोना पड़ता है। पर ठाकुर की आवाज़ मात्र से ही वह भयभीत हो जाती है और अपना बरतन कुएँ में ही छोड़ कर भाग खड़ी होती है। घर लौटकर देखती है कि जोखू वही गंदा पानी पी रहा है। एक तरफ घोर अमानुषिकता है तो दूसरी तरफ त्रासद निस्सहायता है। ऐसा जोखू के निर्धन होने के कारण नहीं वरना अछूत होने के कारण है क्योंकि एक निर्धन सवर्ण को उस ठाकुर के कुएँ से पानी भरने से वंचित तो नहीं ही किया जा सकता था और चाहे जितना अत्याचार या शोषण उसका किया जाता रहा हो। 

"सद्‍गति" कहानी में दुखी यों तो चमार जाति का है पर अपनी बेटी के ब्याह का शुभ मुहूर्त वह पंडित से निकलवाने पहुँच जाता है। बावजूद भूखे पेट होने के वह पंडित के आदेशानुसार श्रम करता है और अंतत: लकड़ी चीरता हुआ मर जाता है। उसकी लाश के साथ पंडित परिवार का व्यवहार क्रूरता की चरम स्थिति वाला होता है। वह उसे घिसटवा कर फिंकवा देता है। "सवा सेर गेहूँ" में पंडित सूदखोर है। शंकर आजन्म उस पंडित का सूद नहीं चुका पाता। "कफ़न" के घीसू और माधव भी दलित हैं और व्यवस्था के दुचक्र ने उन्हें जिस मोड़ पर पहुँचा दिया है वह भी अमानवीय ही है। "गुल्ली डन्डा" का गया भी अपनी स्थिति से बाहर निकल पाने में असमर्थ होता है। "गोदान" का होरी, महतो है और राय साहब, पंडित दातादीन और महाजन के शोषण का शिकार होता है। होरी के मर जाने पर गोदान के बहाने पंडित दातादीन होरी की पत्नी धनिया की जमा पूँजी "सवा रुपये" भी हड़प लेता है। यहाँ हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि एक ओर प्रेमचंद की कहानियों में अद्वितीय "पूस की रात", "पंच परमेश्वर", "बड़े भाई साहब", "नमक का दरोगा" जैसी कहानियाँ हैं एवं "निर्मला", प्रेमाश्रम", "कायाकल्प" और "गबन" जैसे सामाजिक कुरीतियों और नारीशोषण पर आधारित उपन्यास हैं वहीं गोदान में उनकी वर्णचेतना, वर्गचेतना तक विस्तृत होती है। निश्चय ही यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद भले ही दलित वर्ण में पैदा न हुए हों पर इतना तो तय है कि वह दलितों के प्रति पूरी ईमानदारी, सहानुभूति और सम्मान के साथ, उनके साथ होने वाले अन्यायों के विरोधी और उनके मानवीय सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के समर्थक थे।

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