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क्या लघुपत्रिकाओं ने अब अपना चरित्र बदल लिया है? 

 

आज के समय में मुख्यधारा की पत्रिकाएँ व अख़बार, कॉर्पोरेट जगत व सम्राज्यवादी ताक़तों के प्रभाव में समाहित हो रहे हैं। इस वजह से देश के चौथे स्तंभ के प्रति पाठकों में संशय उत्पन्न होता जा रहा है। कुछ लोगों ने हर काल में पत्रकारिता को अपने अनुसार परिभाषित करने या संचालित करने की कोशिश की है लेकिन कुछ पत्रकारों ने अपनी साख बचाने के लिए सत्ता-शीर्ष से कभी समझौता नहीं किया। पत्रकारिता पर सत्ता का दबाव कल भी था और आज भी है।

पत्रकारिता यदि जनसरोकार से जुड़ी हो तो उसे कोई चाह कर भी दबा नहीं सकता लेकिन आज स्थिति चिंताजनक है। पत्रकारिता को तहस-नहस करने की सुनियोजित कोशिश चल रही है। बहुत हद तक यह हुआ है। मुख्यधारा की पत्रकारिता अनर्गल प्रलाप बन चुकी है। ऐसे में वैकल्पिक उपाय खोजने होंगे। आज सोशल मीडिया का बड़ा नेटवर्क है लेकिन वह जनसरोकारों से पूरी तरह लैस नहीं है। 

ऐसी स्थिति में लघु पत्रिकाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। लघुपत्रिकाएँ पिछलग्गू विमर्श का मंच नहीं हैं। लघु पत्रिका का चरित्र सत्ता के चरित्र से भिन्न होता है, ये पत्रिकाएँ मौलिक सृजन का मंच हैं। आज नैतिक पतन के दौर में लघु पत्रिकाओं की भूमिकाएँ और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। रचनाकार वैचारिक लेखन से दूर होते जा रहे हैं, जो समाज के लिए चिंता का विषय है। साम्प्रदायिकता का सवाल हो या धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न हो अथवा ग्लोबलाईज़ेशन का प्रश्न हो हमारी व्यावसायिक पत्रिकाएँ सत्ता विमर्श को ही परोसती रही हैं। सत्ता विमर्श व उसके पिछलग्गूपन से इतर लघु पत्रिकाएँ अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता, संघर्षशीलता व सकारात्मक सृजनशीलता की पक्षधर हैं। इन बातों के मद्देनज़र इतना स्पष्ट है कि लघु पत्रिकाओं की आवश्यकता हमारे यहाँ आज भी है, कल भी थी, भविष्य में भी होगी। 

लघु पत्रिका (लिटिल मैग्ज़ीन) आन्दोलन मुख्य रूप से पश्चिम में प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) के औज़ार के रूप में शुरू हुआ था। यह फ़्राँस के रेसिस्टेंस ग्रुप से प्रेरित था। यह प्रतिरोध राज्य सत्ता, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद या धार्मिक वर्चस्ववाद—किसी के भी विरुद्ध हो सकता था। लिटिल मैग्ज़ीन आन्दोलन की विशेषता उससे जुडे़ लोगों की प्रतिबद्धता तथा सीमित आर्थिक संसाधनों में तलाशी जा सकती थी। अक़्सर बिना किसी बड़े औद्योगिक घराने की मदद लिये, किसी व्यक्तिगत अथवा छोटे सामूहिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप निकलने वाली ये पत्रिकायें अपने समय के महत्त्वपूर्ण लेखकों को छापती रहीं हैं।

भारत में भी सामाजिक चेतना के बढ़ने के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लघु पत्रिकायें प्रारम्भ हुयीं। 1950 से लेकर 1980 तक का दौर हिन्दी की लघु पत्रिकाओं के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा। यह वह दौर था जब नई-नई मिली आज़ादी से मोह भंग शुरू हुआ था और बहुत बड़ी संख्या में लोग विश्वास करने लगे थे कि बेहतर समाज बनाने में साहित्य की निर्णायक भूमिका हो सकती है। हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन आज़ादी के बाद उस समय शुरू हुआ था जब साहित्यकारों के समूहों ने महसूस किया था कि बड़ी पत्रिकाएँ अपने व्यवसायिक या वैचारिक दबावों के कारण केवल एक ही प्रकार की रचनाएँ छापती हैं। इसलिए अपनी बात कहने और लोगों तक पहुँचाने के लिए लघु पत्रिका आंदोलन की शुरूआत हुई जिसका एक बड़ा आधार वैचारिक भी था। वामपंथी रुझानों से लैस पत्रिकाओं के अलावा कुछ पत्रिकाएँ विभिन्न साहित्यिक आंदोलनों जैसे अकविता/अकहानी आदि पर भी केंद्रित थीं। साठोत्तरी कहानी के दौर में ऐसी कई महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ निकली थीं जिन्होंने आंदोलन को स्थापित करने का काम किया था क्योंकि उन दिनों नई कहानी की तूती बोलती थी और उससे अलग या विरोधी स्वर के लिए बड़ी पत्रिकाओं में कोई जगह न थी। 

हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का लंबा और समृद्घ इतिहास रहा है। दरअसल हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरूआत छठे दशक में व्यवसायिक पत्रिका के जवाब के रूप में की गई। इस आंदोलन का श्रेय हम हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा को दे सकते हैं। उन्होंने 1957 में बनारस से ‘कवि’ का संपादन-प्रकाशन शुरू किया था। कालांतर में और भी कई लघु पत्रिकाएँ व्यक्तिगत प्रयासों और प्रकाशन संस्थानों से निकली, जिसने हिंदी साहित्य की तमाम विधाओं को न केवल समृद्ध किया, बल्कि उसका विकास भी किया। बेनेट कोलमैन एंड कम्पनी तथा हिन्दुस्तान टाइम्स लिमिटेड की पत्रिकाओं—धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बनी, दिनमान, और माधुरी जैसी बड़ी पूँजी से निकलने वाली पत्रिकाओं के मुक़ाबले अणिमा, कहानी, नई कहानियाँ, कल्पना, लहर, वातायन, बिन्दु, क्यों, तटस्थ, वाम, उत्तरार्ध, आरम्भ, ध्वज भंग, सिर्फ़, हाथ, कथा, आलोचना, कृति, क ख ग, माध्यम, वसुधा ऐसी पत्रिकाएँ, बड़े प्रतिष्ठानों से नहीं, बल्कि लेखकों के व्यक्तिगत, निजी प्रयत्नों से छोटे पैमाने पर निकलीं। उस वक़्त ऐसी पत्रिकाओं की जैसे झड़ी ही लग गई: समझ, आवेग, सनीचर, अकविता, पहल, आकंठ, इबारत, जारी, ज़मीन, आईना, कंक, अब, आमुख, तेवर, धरातल, आवेश, आवेग, धरती, वयं, संबोधन, संप्रेषण जैसी पत्रिकायें निकलीं जो सीमित संसाधनों, व्यक्तिगत प्रयासों या लेखक संगठनों की देन थीं। इन पत्रिकाओं का मुख्य स्वर साम्राज्यवाद विरोध था और ये शोषण, धार्मिक कठमुल्लापन, लैंगिक असमानता, जैसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध खड़ी दिखायीं देतीं थीं। 

एक समय तो ऐसा भी आया जब मुख्य धारा के बहुत से लेखकों ने पारिश्रमिक का मोह छोड़कर बड़ी पत्रिकाओं के लिये लिखना बन्द कर दिया और वे केवल इन लघु पत्रिकाओं के लिये ही लिखते रहे। बड़े घरानों की पत्रिकाओं में छपना शर्म की बात समझा जाता था और लघु पत्रिकाओं में छपने का मतलब साहित्यिक समाज की स्वीकृति की गारंटी होता था। इन्होंने रचनाशीलता का एक अलग ही माहौल बनाया। इनमें से ज़्यादातर में दृष्टि थी, रचना-विवेक था और इन्हें लेखकों का अकुण्ठित सहयोग प्राप्त था। लघु पत्रिकाएँ घटनाओं की जड़ तक पहुँचकर सच्चाई को उजागर करने का काम कर रही थीं। इनसे एक ओर जहाँ नवलेखन पल्लवित होता है, वहीं सामान्यजन की आशा-आकांक्षओं को अभिव्यक्ति मिलती है। लोग पारिश्रमिक देने वाली और लेखक को स्टार बनाने वाली पत्रिकाओं में छपने की जगह इनमें छपना गौरव की बात समझते थे। 

सारी बड़ी बहसें इन्हीं छोटी पत्रिकाओं में चली हैं। आज जो भी लिखा जा रहा है उसके प्रकाशन का मंच यही पत्रिकाएँ हैं। बीसवीं सदी के प्रारंभ में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ऐसे अनेक मूल्यवान सार्थक प्रयास हुए। बीसवें दशक के उत्तरार्ध में भी कई पत्रिकाएँ इस कसौटी पर खरी उतरीं। तब लघुपत्रिका आंदोलन का भी एक प्रभाव रहा। बाद में भी कुछ पत्रिकाएँ निकलती रहीं। 

लेकिन आज वह दृष्टि, लगन, समर्पण और ‘स्व’ से विलग होने का भाव कम ही दिखाई देता है। यद्यपि आज भी पर्याप्त संख्‍या में पत्रिकाएँ निकल रही हैं लेकिन इन लघु-पत्रिकाओं की सीमा भी है। 

प्रसार बहुत कम। (वैसे, अगर संतोष करना चाहें तो यह तथ्य कि टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेण्ट और न्यूयॉर्क रिव्यू ऑफ़ बुक्स की बी 7-8 हज़ार प्रतियाँ ही छपती हैं)। 

  • सम्पादकीय दृष्टि का अभाव

  • रचनाओं का अभाव

  • सम्पादक की महत्त्वाकांक्षा

  • व्यवसायिक/आर्थिक विवशताएँ

एक कम संसाधनों वाली अच्छी साहित्यक-वैचारिक लघुपत्रिका निकालना बेहद कठिन काम है। आर्थिक परेशानी तो रहती ही है। अच्‍छी सामग्री जुटाना, बार-बार उन्हीं चलताऊ घिसे-पिटे नामों से इतर अपने कर्म के प्रति गंभीर एवं नए रचनाकारों से जनपक्षीय तथा वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न रचनाएँ एकत्रित करना एक श्रमसाध्य और गंभीर काम होता है। इसके लिए एक सुस्पष्ट, संतुलित और चेतस संपादकीय दृष्टि का होना आवश्यक होता है। रचनाओं के चयन में पर्याप्त सतर्कता बरतनी होती है। आज स्थिति यह है कि कुछ लघु पत्रिकाओं को छोड़कर बाक़ी सभी एक-सी निकलती हैं। पता नहीं क्यों यह माना जाने लगा है कि कुछ लेख, कुछ कहानियाँ, कुछ कविताएँ, कुछ छुट-पुट सामग्री जोड़ दी जाए तो लघु पत्रिका बन जाती है। लघुपत्रिकाओं के चरित्र से अलग ये सर्व सहयोगवादी साहित्यिक पत्रिकाएँ राष्ट्रीय स्तर की बनना चाहती हैं और उन्हीं लेखकों की रचनाएँ छापने में विशेष रुचि लेती हैं जो ‘स्थापित’ लेखक कहे जाते हैं। सवाल यह है क्या लघु पत्रिकाओं की पहली प्रतिबद्धता अचर्चित, नये और अपने क्षेत्र के स्थानीय लेखकों के प्रति नहीं है? 

ढेरों सामान्य, एकरस व बड़े नामों को बाँड बनाकर भुनाने वाली, विज्ञापनों से धन बटोरने वाली, सरकारी कृपा पर निर्भर रहनेवाली, एक समूह के हितों को संपुष्ट करने वाली यशकामी-महत्त्वाकांक्षी, अवसरवादी संपादकों की व्यक्तिगत कुंठाओं को ढोने वाली, सजावटी शो-रूम पत्रिकाओं की भीड़ में निस्पृह रहकर पत्रिका निकाल पाना एक अत्यंत दुरूह कर्म है। 

मैंने भी एक प्रयास किया और अपने अनुभव से जाना कि ऐसे प्रयासों में लोगों का सहयोग भी अत्‍यल्‍प होता है। अधिकांश लोग लघुपत्रिका प्रकाशन की कठिनाइयों को नहीं समझते हैं। उनकी समझ स्टीरियो टाइप होती है। उनके सामने एक उत्पाद भर होता है यह सब, जैसे कि कोई व्यवसायिक उत्पाद होता है। दोनों में अंतर करने की दृष्टि और क्षमता वहाँ नहीं दिखती। संवेदनशीलता की कमी भी झलकती है। हिंदी में ऐसे पाठकों की कमी है जो पत्रिका ख़रीदने को नैतिक दायित्व समझते हों। बड़े-बड़े साहित्यकार और हिंदी के अधिकांश प्राध्यापक पत्रिका ख़रीदना अपनी तौहीन मानते हैं। 

आज राष्ट्रीय एवं ग्लोबल कारणों से न तो लघु-पत्रिकाएँ निकालने वालों के मन में पुराना जोश बाक़ी है और न ही उनमें छपना पहले जैसी विशिष्टता का अहसास कराता है। फिर भी लघु पत्रिकाओं में छपी सामग्री का अपना एक ऐतिहासिक महत्त्व है। 

हिन्दी साहित्य के बहुत सारे विवाद, आन्दोलन, प्रवृत्तियों को निर्धारित करने वाली सामग्री और महान रचनायें इन लघु-पत्रिकाओं के पुराने अंकों में समाई हुई हैं। इनमें से बहुत सारी सामग्री कभी पुनर्मुद्रित नहीं हुई। साहित्य के गंभीर पाठकों एवं शोधार्थियों के लिये इनका ऐतिहासिक महत्त्व है। आज का समय बहुत जटिलता लिये हुए है, यह सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संक्रमण का समय है। अब भी इस डिजिटल और सोशल मीडिया वाले दौर में कुछ लघु पत्रिकाएँ हैं जो सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में हस्तक्षेप कर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए साहित्यिक चेतना जगाने का काम कर रही हैं। यह सुखद है। पर सवाल तो फिर भी है कि क्या ऐसे प्रयास सफल हो सकते हैं? हाँ, जन जागरूकता और जन सहयोग अगर हो तो अवश्य ही यह सम्भव है। 

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