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हिंदी की आलोचना परंपरा

 

भारतीय साहित्यशास्त्र में साहित्याचार्यों ने साहित्यशास्त्र का अति गंभीर विश्लेषण किया था, परन्तु भारतेंदु युग में जिस नवीन आधुनिक चेतना का उदय हुआ वह निश्चित रूप से आधुनिक आलोचना विधा के आरंभ की घोषणा कही जा सकती है। संस्कृत के विद्वानों और साहित्याचार्यों ने सूक्ष्म सिद्धांत निरूपण किया था। रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, औचित्य, ध्वनि आदि सम्प्रदायों के माध्यम से साहित्य के सूक्ष्म तत्वों का सूक्ष्म निरूपण किया था। संस्कृत से चली आई साहित्यशास्त्र की परंपरा रीतिकालीन कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी। रीतिकालीन आचार्यों ने साहित्यशास्त्र की रचना भी की और उसका पालन भी किया। परन्तु रीतिकालीन साहित्य के आचार्यों ने सिद्धांतों की कसौटी पर रचना को कसते हुए उनका विस्तारपूर्वक ब्यौरे-वार परीक्षण करने की परंपरा आरम्भ नहीं की। हिंदी आलोचना को भारतेंदु युग में ही आधुनिक आलोचना का रूप प्राप्त हो सका जिसमें साहित्यिक विधाओं का पूर्ण मूल्यांकन किया जाने लगा। नवीन शिक्षा पद्धति ने जिस प्रकार समाज को नवीन स्वरूप प्रदान किया उसी प्रकार साहित्यिक विधाओं को भी। आलोचना विधा भी अपने नवीन आधुनिक रूप में स्थापित हुई। इसी युग में आधुनिक आलोचना सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूपों में विकसित हुई। सैद्धांतिक समीक्षा के क्षेत्र में इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि भारतेंदु जी द्वारा लिखित ‘नाटक’ नामक ग्रंथ है। भारतेंदु युग में व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में चौधरी बदरीनारायण प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र आदि भारतेंदु मंडल के विद्वान साहित्यकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। लाला श्रीनिवास दास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की प्रेमघन द्वारा की गई आलोचना आधुनिक व्यावहारिक आलोचना की शुरूआत मानी जाती है। इस युग में व्यावहारिक आलोचना में सबसे अधिक नाटकों की ही आलोचना हुई। आलोचना का सूत्रपात तो भारतेंदु युग में हो ही चुका था, द्विवेदी युग में आकर आलोचना विधा के विकास में गति आ गई। भारतेंदु युग में विविध विधाओं में लिखे गए साहित्य की आलोचना होने लगी थी, यद्यपि उनमें नाटक को प्रमुखता प्राप्त हुई थी। नवजागरण आंदोलन का बहुत ही सकारात्मक प्रभाव हिंदी साहित्य और पत्रकारिता पर पड़ा था। आधुनिक भाव बोध जिस प्रकार रचनाओं के केंद्र में आ पहुँचा था, उसी प्रकार आलोचना विधा को वह एक नई दृष्टि प्रदान करने में भी सहायक सिद्ध हो रहा था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में खड़ी बोली हिंदी के साथ-साथ हिंदी साहित्य की सभी विधाओं का विकास होने लगा था। मध्यकालीन भावबोध व शिल्प दोनों ही पीछे छूटने लगे थे, ऐसे में आलोचना जैसी नवीन विधा का निरंतर आगे बढ़ना अत्यंत स्वाभाविक था। जैसे-जैसे वैज्ञानिकता को प्रमुखता मिल रही थी, तार्किकता भी बलवती होती जा रही थी। पूरा देश यथास्थितिवाद से बाहर निकलकर नवीन वैज्ञानिक चेतना से उत्पन्न वातावरण का स्वागत करना चाह रहा था। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि नवीन वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न विद्वान परंपरा के विरोधी कदापि नहीं थे, अपितु उसे आधुनिक चिंतन और परिवेश से जोड़कर देखने की कोशिश कर रहे थे। परंपरा और आधुनिकता के सामंजस्य से समाज और साहित्य के अविच्छिन्न जीवन और सतत विकास प्रक्रिया को बचाए रखना चाहते थे। पश्चिम के साहित्य-सिद्धांत से भी जुड़कर साहित्यिक नवोन्मेष के लिए प्रयासरत थे। द्विवेदी युग में सुधारवादी आंदोलन पूरे देश में व्याप्त था। भाषा को विशुद्ध रूप देने का प्रयास भी सुधारवादी आंदोलन के एक अंग के रूप में हो रहा था। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से भाषा और साहित्य के विकास में अपना अपूर्व योगदान दिया। स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनाओं में संशोधन करते थे। इस युग के आलोचक कृतियों में आई त्रुटियों को स्पष्ट रूप में बताया करते थे। इस युग की आलोचना के केंद्र में दोष-निरूपण था। पर इसके बावजूद अधिकांश आलोचक समन्वयवादी थे। पश्चिम के आलोचकों से भी प्रभाव ग्रहण किया जा रहा था। पोप, जानसन, मैक्समूलर, मैकडलन, बूलर, हार्नली तथा ग्रियर्सन आदि आलोचकों की आलोचना-दृष्टि को पहचानकर उनसे भी प्रभाव और प्रेरणा ग्रहण किया जा रहा था। द्विवेदी आलोचकों ने मुख्य रूप से साहित्यिक विधाओं को भावपक्ष और शिल्प पक्ष दोनों ही बिंदुओं पर ठोस आकार देकर उसे सशक्त बनाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस युग में आलोचना के अनेक प्रकार व्यवहृत हुए। यह युग नवीन वैज्ञानिक चेतना, नवीन विधाओं से संपन्न होने के साथ-साथ व्यापक साहित्यिक मूल्यों एवं मान्यताओं का भी स्वागत करनेवाला था। इस युग के पुरातनवादी विद्वानों ने पुराने काव्य की टीका द्वारा भारतीय प्राचीन साहित्य का मर्म उद्घाटित किया। भारतीय साहित्य की अपनी पद्धति रही है—टीका लेखन। टीका लेखन में शब्द के अर्थ, अन्वय, काव्य में वर्णित भाव, रस तथा अलंकार निरूपण द्वारा साहित्य के भावगत एवं शिल्पगत सौंदर्य का बोध कराया जाता है। लाला भगवान दीन ने केशव, तुलसी, बिहारी के साहित्य की आलोचना भारतीय टीका लेखन के अनुरूप की। बिहारी सतसई की टीका एवं संपादन करके श्री जगन्नाथ दास रत्नाकर ने प्राचीन ग्रंथों के संपादन व लेखन का प्रतिमान उपस्थित कर दिया। इसी युग में तुलनात्मक आलोचना के क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा का नाम अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। व्यावहारिक आलोचना को भी इस युग में अधिक दृढ़ता प्राप्त हुई। जहाँ भारतेंदु युगीन आलोचना में दोष-दर्शन को ही प्रमुखता दी जा रही थी वहीं द्विवेदी युगीन आलोचना में गुण भी ढूँढ़ा जाने लगा। महावीर प्रसाद द्विवेदी इस युग के व्यावहारिक आलोचकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके बाद व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में बालमुकुंद गुप्त का योगदान भी स्मरणीय है। बाबू श्याम सुंदरदास के नेतृत्व में नागरी प्रचारिणी सभा के माध्यम से शोधपरक आलोचना का विकास भी हो रहा था। पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा राजस्थान के कवियों, राजस्थानी भाषा एवं इतिहास के सम्बन्ध में निरंतर खोज कर रहे थे तो पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी पुरानी हिंदी और अपभ्रंश साहित्य को लेकर शोधरत थे। इन दोनों विद्वानों ने इस युग में शोधपरक अन्वेषणात्मक आलोचना की सुदृढ़ नींव रखी। द्विवेदी युग के अंतिम वर्षों में ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल का आलोचना के क्षेत्र में प्रवेश हुआ। आलोचना के क्षेत्र में इनके योगदान को देखते हुए अगले युग को इनके नाम से ही अभिहित किया जाने लगा। जैसे कथा साहित्य के लिए प्रेमचंद युग, नाटक के लिए प्रसाद युग कहा जाता है, उसी प्रकार आलोचना के लिए शुक्ल युग कहा जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना आचार्य शुक्ल जी ने सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों प्रकार की आलोचनाएँ की हैं। इनका सैद्धांतिक समीक्षा ग्रंथ ‘रस मीमांसा’ है। और इनकी व्यावाहरिक आलोचना का प्रौढ़तम रूप ‘तुलसी’, ‘जायसी ग्रंथावली’, ‘भ्रमर-गीतसार’ तथा ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में प्रस्तुत विभिन्न कवियों के संक्षिप्त एवं सारगर्भित परिचात्मक टिप्पणियों में प्रकट हुआ है। 

समलोचना पर विचार करते हुए शुक्लजी ने लिखा हैं-किसी कवि या पुस्तक के गुण-दोष या सूक्ष्म विशेषताएँ दिखाने के लिए एक दूसरी पुस्तक तैयार करने की चाल हमारे यहाँ न थी। हमारे हिन्दी साहित्य में समालोचना पहले-पहल केवल गुण-दोष दर्शन के रूप में प्रकट हुई। ज़ाहिर है कि यह जो तृतीय उत्थान में गुण-दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अन्तःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। वह समूचे भारतीय साहित्य शास्त्र का आधुनिकीकरण था। लगभग 14 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एडिसन के ‘एसे आन इमेजिनेशन’ का अनुवाद ‘कल्पना का आनन्द’ नाम से किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने सर टी. माधवराव की पुस्तक ‘माइनर हिट्स’ का अनुवाद ‘राज्य प्रबन्ध शिक्षा’ मेगस्थनीज के ‘भारत विवरण’ राखालदास बन्धोपाध्याय के बँगला उपन्यास ‘शंशाक’ और एडविन आरनाल्ड के ‘लाइट ऑफ़ एशिया’ का पद्यबन्ध अनुवाद ‘बुद्धचरित’ नाम से किया। शुक्लजी के विचारों का निर्माण करने में जर्मनी के जगद्विख्यात प्रणितत्ववेत्ता हैकल की पुस्तक ‘रिडिल ऑफ़ दि युनीवर्स’ का बहुत योगदान है। ‘विश्व प्रपन्च’ की भूमिका पढ़ने पर इस बात का पता चलता है कि उन्होंने भौतिक विज्ञान, दर्शन तथा मनोविज्ञान का गहरा अध्ययन किया था। शुक्लजी को आलोचक और इतिहासकार में इतनी ख्याति मिल गई कि लोगों का ध्यान इस तथ्य की ओर प्रायः नहीं जाता कि उन्होंने ‘हिन्दी शब्द सागर’ का सम्पादन किया था। 

शुक्लजी का मानना है कि—साहित्य का कार्य क्षेत्र मानव हृदय के भावों का व्यापार है। इस भावयोग की साधना से मनुष्य का हृदय ‘स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर’ उठकर ‘लोक-सामान्य भावभूमि’ पर पहुँच जाता है। सर्जनात्मक रचना के क्षेत्र में रीतिकालीन दरबारों के संकुचित मण्डल को तोड़कर कविता को लोक-सामान्य भूमि पर लाने का कार्य भारतेन्दु से लेकर आज तक सच्चे और समर्थ कवि करते आए हैं। ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’ और हिन्दी आलोचना में डाॅ. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि हिन्दी साहित्य में शुक्लजी का वही महत्त्व है जो उपन्यासकार प्रेमचन्द या कवि निराला का। व्यक्ति धर्म के स्थान पर उन्होंने लोक-धर्म को श्रेयस्कर बताया। उन्होंने साहित्य में जीवन को और जीवन में साहित्य को प्रतिष्ठित किया। 

शुक्लजी की समिक्षा का सैद्धांतिक आधार भारतीय ‘रसवाद’ हैं। उन्होंने ‘रसवाद’ को आध्यात्मिक भूमि से उतार कर मनोविज्ञान आधार पर प्रतिष्ठित किया। ‘रस’ को काव्य की आत्मा स्वीकार करके शेष समस्त मान्यताओं को या तो इसी के भीतर समाविष्ट किया या अप्रासंगिक प्रमाणित किया। उन्होंने बताया कि ‘शब्द-शक्ति’ रस और अलंकार ये विषय-विभाग काव्य समीक्षा के लिए इतने उपयोगी हैं कि इनको अन्तर्भूत करके संसार की नयी-पुरानी सब प्रकार की कविताओं की बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक विवेचन हो सकती हैं। ‘रस-सिद्धांत’ के अतिरिक्त आचार्य शुक्ल ने रीति, अलंकार, ध्वनि, गुण, वक्रोक्ति और औचित्य सिद्धांतों का अध्ययन भी किया था, किन्तु काव्य में इनकी स्थिति उन्हें वहीं तक मान्य थी जहाँ तक ये रस के पोषक, उपकारक, आश्रित या रक्षक बनकर उपस्थित हो। रस को परिभाषित करते हैं कि—लोक-हृदय में हृदय को लीन होने की दशा का नाम ‘रस दशा’ है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्दविधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। यानी काव्य हमें जीवन और जगत के ऊपर उठाकर कहीं अन्यत्र नहीं ले जाता बल्कि हमें उसके और अधिक निकट ला देता है। कविता जीवन से पलायन नहीं है, बल्कि वह हमें जीवन में अधिक व्यापक पैमाने पर अधिक गहराई में उतारती हैं। 

उपर्युक्त परिभाषाओं से प्रकट है कि शुक्लजी की दृष्टि में हृदय की मुक्तावस्था, लोक-हृदय में लीन होने की दशा लगभग एक ही है। इस मनोदशा तक पहुँचना ही काव्य का चरम लक्ष्य है। शास्त्रीय दृष्टि से इसे ही ‘आलम्बन’ और ‘आश्रय’ की यथोचित प्रतिष्ठा कहा जा सकता है। आश्रय तो कोई सहृदय मनुष्य ही हो सकता है, किन्तु आलम्बन रूप में हम मानव तथा मनावेतर समस्त चराचर का चित्रण कर सकते हैं। काव्य में ऐसी स्थितियाँ भी आती है जब हम आश्रय के साथ तादात्म्य नहीं कर पाते। उदाहरणार्थ, अर्जुन जब सहसा युधिष्ठिर पर क्रोधन्ध होकर दौड़ पड़ते हैं या रावण जब सीता के प्रति क्रोध व्यक्त करता है तब न तो हमारा तादात्म्य अर्जुन के साथ होता है और न रावण के साथ ही, शास्त्रों में ऐसी स्थिति ‘रसाभास’ और शुक्ल ने इसे ‘रस’ का मध्यम कोटि माना है। 

शुक्लजी अनुभूति और बोध को सहचर मानते हैं। वे भाव और ज्ञान में विरोध नहीं मानते। उनका मानना है कि जैसे-जैसे मनुष्य के ज्ञान का विकास होता है, वैसे-वैसे उसका भाव-प्रसार भी, पशु का ज्ञान मनुष्य से हीन है तो उसके प्रेम की पहुँच भी उसी मात्रा में सीमित है। जब तक हमें किसी वस्तु का बोध नहीं होता तब तक हमें उसकी रसानुभूति भी नहीं हो सकती। वे रसानुभूति में बोध वृति की उपस्थिति मानते हैं। भाव और ज्ञान में विरोध न मानने का ही परिणाम है कि शुक्लजी कामायनी में चित्रित श्रद्धा और इड़ा के रूपों से सहमत नहीं हो पाते। 

शुक्लजी ने रूप विधान तीन माने हैं, पहला प्रत्यक्ष रूप विधान से मन में प्रत्यक्ष देखी वस्तुओं का प्रतिबिंब खड़ा होता है। दूसरा जब अतीत में प्रत्यक्ष देखी वस्तुओं के रूप-व्यापार का स्मरण करके हम रस-मग्न हो उठते हैं उस समय हमारे मन में स्मृत रूप-विधान होता है। लेकिन कवि लोग एक और प्रकार का रूप-विधान करते हैं। इसमें वे देखे या जाने हुए पदार्थों के आधार पर नवीन वस्तु-व्यापार विधान खड़ा करते हैं। इसी को संभावित या कल्पित रूप विधान कहा जाता है। कल्पना कवि को अपार शक्ति और क्षेत्र प्रदान करती है। लेकिन कवि को कल्पना का उपयोग अत्यन्त सावधानी से करना पड़ता है। वस्तुतः कल्पना की उड़ान वह नहीं भर सकता। उड़ान उसने भरी नहीं कि लड़खड़ा कर गिरा। कल्पना करने में उसे निरन्तर अपने क़दम मज़बूती से ज़मीन पर ही रखने पड़ते हैं। जिसे हम कल्पना कहते हैं वह और कुछ नहीं यथार्थ को ही सजाना-संवारना हैं। 

शुक्लजी ने व्यवाहरिक समीक्षा सिद्धांत साहित्यिक रचनाओं के आधार पर ही स्थापित किया। प्राचीन साहित्य में से समीक्षा के लिए तुलसीदास, सूरदास और जायसी को चुना। संस्कृत के कवियों में उन्हें वाल्मीकि, भवभूति और कालिदास विशेष रूप से प्रिय थे। उनके काव्य-चिन्तन की प्रणाली को विकसित करने में उनके प्रिय कवियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। करुणा और प्रेम का जो विशद विवेचन उन्होंने किया हैं, आनन्द की साधनावस्था और सिद्धावस्था की जो कल्पना की है तथा काव्य में लोकमंगल का जो महत्त्व स्थापित किया है वह सब अपने प्रिय कवियों की व्याख्या करने के उपक्रम में। उनका कहना है कि यद्यपि करुणा और प्रेम दोनों मंगल का विधान करने वाले भाव है। लेकिन करुणा की प्रवृति रक्षा की ओर होती है जबकि प्रेम की प्रवृति रंजन की ओर। करुणा का सम्बन्ध उन्होंने साधनावस्था से जोड़ा। और प्रेम का सिद्धवस्था से। उनके अनुसार श्रेष्ठ भारतीय प्रबन्ध काव्यों का बीज भाव करुणा ही है। यही नहीं करुणा और प्रेम सम्बन्धी अपने विचारों की मानों पुष्टि करते हुए कहते हैं, “लोककल्याण पक्ष को लेकर चलने के कारण इस मार्ग में उपासना के लिए ब्रह्म का वह सगुण रूप लिया, जिसकी अभिव्यक्ति रक्षा, पालन और रंजन करने वाले रूप में होती है।” वे स्पष्ट कहते हैं—सगुणमार्गी भक्त के लिए भगवान की ओर ले जाने वाला रास्ता इसी संसार के बीच से होकर जाता हैं। 

आचार्य शुक्ल ने भ्रमरगीत में सुरदास की सीमाओं का उल्लेख किया, सूरदास ने करुणा और प्रेम में से प्रेम को ही अपने काव्य के लिए चुना था। वे आनन्द की साधना या प्रयत्नावस्था के नहीं, सिद्धावस्था के कवि हैं। इन्होंने भगवान का प्रेममय रूप ही लिया, इससे हृदय की कोमल वृतियों को ही आश्रय और आलम्बन खड़े किए। शुक्लजी ने सुझाया कि कृष्ण चरित्र में भी करुणा नामक बीज भाव के प्रसार का पर्याप्त अवकाश था किन्तु सुर की वृति इस ओर नहीं रमी है। सुरसागर के उत्कृष्ट स्थल वे हैं जहाँ कवि ने बालकृष्ण की लीलाओं का और गोपियों के संयोग शृंगार का वर्णन किया है। बालक कृष्ण की लीलाओं का चित्रण लोकोत्तर भूमि पर नहीं बल्कि लोक-सामान्य भूमि पर किया। वे हमारे देख-सुने बच्चों जैसा आचरण करते हैं, इसलिए उनका वर्णन हमें मार्मिक एवं आकर्षक लगता है। कृष्ण का लीला का चित्रण केवल प्रकृति क्षेत्र में नहीं बल्कि कर्म क्षेत्र में भी हुआ है। 

तुलसीदास शुक्लजी के प्रिय कवि हैं। यह निर्णय कर पाना कठिन है कि तुलसी ने उनके आलोचनात्मक मानदण्ड के निर्माण में सहयोग दिया है। शुक्लजी काव्य में प्रबन्धत्व को अधिक महत्त्व देते थे। इसका अर्थ यह नहीं कि वे मुक्तक को नापसन्द करते हैं, उन्होंने कहा है—प्रबन्ध काव्य विस्तृत मरूस्थलीय है तो मुक्तक चुना हुआ गुलदशता। उन्होंने प्रमाणित किया कि भक्ति शास्त्रनुमोदित लोक-धर्म के माधुर्य को प्रतिष्ठित करने वाली है। वह संसार में व्याप्त दुःख, अनास्था और निराशा को दूर करके आशा का संचार और मंगल का विधान करने वाली है। राम का आयोध्या-त्याग और पथिक के रूप में वन गमन, चित्रकूट में राम और भरत का मिलन, शबरी का आतिथ्य, लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप, भरत की प्रतीक्षा। इन मर्मस्पशी स्थलों में भी सबसे अधिक मर्मस्पशी शुक्लजी को रामवनगमन प्रसंग लगता है। शुक्लजी को प्रेम का वही स्वरूप अधिक रुचिकर लगता है जो करुणा पर आधारित हो। लोकमंगल और लोकरक्षा में व्यक्ति इसी भाव के द्वारा प्रवृत होता और इसके प्रसार का पूरा अवकाश प्रबन्ध काव्य में ही होता हैं। 

पद्मावत प्रेम काव्य है। उसमें नायक करुणा का भाव लेकर लोकरक्षार्थ कर्मक्षेत्र में प्रवृत नहीं होता है, लेकिन यह आवश्य है कि प्रेम विघ्न-बाधामय, कंटकाकीर्ण मार्ग पर संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता है। लोकरक्षार्थ न सही लेकिन विस्तृत कर्मक्षेत्र में प्रवृत होने का अवसर नायक को मिला है। जायसी और सूफ़ी कवियों की जिस विशेषता ने शुक्लजी को सबसे अधिक आकृष्ट किया वह है प्रकृति वर्णन। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है— विरह की जिस उत्कटता की अनुभूति सूफ़ी काव्य में मिलती है वह उत्कटता और तीव्रता पूर्ववर्ती भारतीय साहित्य में नहीं मिलती।

आचार्य शुक्ल ने हिन्दी-साहित्य के इतिहास में प्राचीन एवं नवीन कवियों के सम्बन्ध में टिप्पणियाँ भी दी हैं:

(क) केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए।

(ख) जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समास शक्ति जीतनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। वह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी।

आलोचना का अर्थ है किसी साहित्यिक रचना को पूरी तरह से देखना, परखना। इस प्रकार रचना का प्रत्येक दृष्टि से विश्लेषण और मूल्यांकन कर पाठकों को उस रचना के मूल तक पहुँचाने मे सहायता करना आलोचना का मुख्य उद्देश्य हैं। सैद्धांतिक आलोचना की परम्परा संस्कृत एवं हिन्दी में बहुत पुरानी है, पर आधुनिक साहित्य के विवेचन एवं मूल्यांकन के लिए व्यावहारिक आलोचना की आवश्यकता पड़ी। इस नई आलोचना का पहला रूप पुस्तक समीक्षाओं के रूप मे भारतेंदु युग मे प्रारंभ हो गया था। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आलोचना के क्षेत्र मे पुस्तक समीक्षा का स्तर ऊँचा किया और प्राचीन कवितायों की व्यवस्थित आलोचना की परिपाटी चलाई।

हिन्दी आलोचना के वास्तविक रूप का विकास तीसरे एवं चौथे दशकों मे आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा हुआ। हिन्दी साहित्य का इतिहास तथा ‘तुलसी’, ‘सूर’ एवं जायसी की समीक्षात्मक भूमिकाओं द्वारा व्यावहारिक आलोचना तथा चिन्तामणि के निबन्धों द्वारा सैद्धांतिक समीक्षा को शुक्ल जी ने विशेष शास्त्रीय गरिमा प्रदान की। वस्तुतः शुक्ल जी हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं नगेन्द्र जैसे समीक्षकों ने आगे बढ़ाया है। समसामयिक युग में शिवदान सिंह चौहान, देवीशंकर अवस्थी, इन्द्रनाथ मदान, प्रकाशचंद्र गुप्त,  रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, शिवकुमार मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पांडे आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

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