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समृद्‍ध संस्कृति का प्रतीक—ऐतिहासिक नगर विदिशा

 

मध्य प्रदेश प्रांत में स्थित एक प्राचीन शहर है विदिशा। 

यह मालवा के उपजाऊ पठारी क्षेत्र के उत्तर-पूर्व हिस्से में अवस्थित है तथा पश्चिम में मुख्य पठार से जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक व पुरातात्विक दृष्टिकोण से यह क्षेत्र मध्यभारत का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र माना जा सकता है। नगर से दो मील उत्तर में जहाँ इस समय वैसनगर नामक एक छोटा-सा गाँव है, प्राचीन विदिशा बसा हुआ है। यह नगर पहले दो नदियों के संगम पर बसा हुआ था, जो कालांतर में दक्षिण की ओर बढ़ता गया है। यह वेत्रवती नदी के तट पर बसा है, जिसकी पहचान आधुनिक बेतवा नदी के साथ की जाती है। बेतवा की सहायक नदी धसान नदी के नाम में अवशिष्ट है। कुछ विद्वान इसका नामकरण दशार्ण नदी (धसान) के कारण मानते हैं, जो दस छोटी-बड़ी नदियों के समवाय रूप में बहती थी। अनेक संदर्भो के अनुसार यह दशार्ण देश की राजधानी थी। इन प्राचीन नदियों में वेत्रवती उर्फ़ वेतवा के साथ एक छोटी-सी नदी मिलती है जिसका नाम वैस है, उसका संगम है। इसे विदिशा नदी के रूप में भी जाना जाता है। 

इस नगर की भौगोलिक स्थिति अति महत्त्वपूर्ण थी। पाटलिपुत्र से कौशाम्बी होते हुए जो व्यापारिक मार्ग उज्जयिनी (आधुनिक उज्जैन) की ओर जाता था वह विदिशा से होकर ही गुज़रता था। 

महाभारत, रामायण एवं प्राचीन साहित्य में विदिशा नगर का सबसे पहला उल्लेख महाभारत में आता है। इस नगर के विषय में रामायण में एक परंपरा का वर्णन मिलता है जिसके अनुसार रामचन्द्र ने इसे शत्रुघ्न को सौंप दिया था। शत्रुघ्न के दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें छोटा सुबाहु नामक था। उन्होंने इसे विदिशा का शासक नियुक्त किया था। थोड़े ही समय में यह नगर अपनी अनुकूल परिस्थितियों के कारण पनप गया। भारतीय आख्यान, कथाओं एवं इतिहास में इसका स्थान निराले तरह का है। इस नगर की नैसर्गिक छटा ने कवियों और लेखकों को प्रेरणा प्रदान की। वहाँ पर कुछ विदेशी भी आये और इसकी विशेषताओं से प्रभावित हुए। 

कतिपय बौद्ध ग्रन्थों के वर्णन से लगता है कि इस नगर का सम्बन्ध संभवत: किसी समय अशोक के जीवन के साथ भी रह चुका था। इनके अनुसार इस नगर में देव नामक एक धनीमानी सेठ रहता था जिसकी देवा नामक सुन्दर पुत्री थी। अपने पिता के जीवनकाल में अशोक, उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। पाटलिपुत्र से इस नगर को जाते समय वह विदिशा में रुक गया था। देवा के रूप एवं गुणों से वह प्रभावित हो उठा और उससे उसने विवाह कर लिया। इस रानी से महेन्द्र नामक आज्ञाकारी पुत्र और संघमित्रा नामक आज्ञाकारिणी पुत्री उत्पन्न हुई। दोनों ही उसके परम भक्त थे और उसे अपने जीवन में बड़े ही सहायक सिद्ध हुए थे। संघमित्रा को बौद्ध ग्रन्थों में विदिशा की महादेवी कहा गया है। 

इस नगर का वर्णन कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ मेघदूत में किया है। प्रवासी यक्ष अपने संदेशवाहक मेघ से कहता है, “अरे मित्र! सुन। जब तू दशार्ण देश पहुँचेगा, तो तुझे ऐसी फुलवारियाँ मिलेंगी, जो फूले हुए केवड़ों के कारण उजली दिखायी देंगी। गाँव के मन्दिर कौओं आदि पक्षियों के घोंसलों से भरे मिलेंगे। वहाँ के जंगल पकी हुई काली जामुनों से लदे मिलेंगे और हंस भी वहाँ कुछ दिनों के लिये आ बसे होगें। 

“हे मित्र! जब तू इस दशार्ण देश की राजधानी विदिशा में पहुँचेगा, तो तुझे वहाँ विलास की सब सामग्री मिल जायेगी। जब तू वहाँ सुहावनी और मनभावनी नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती (बेतवा) के तट पर गर्जन करके उसका मीठा जल पीयेगा, तब तुझे ऐसा लगेगा कि मानो तू किसी कँटीली भौहों वाली कामिनी के ओठों का रस पी रहा है। वहाँ तू पहुँच कर थकावट मिटाने के लिये ‘नीच’ नाम की पहाड़ी पर उतर जाना। वहाँ पर फूले हुए कदम्ब के वृक्षों को देखकर ऐसा जान पड़ेगा कि मानों तुझसे भेंट करने के कारण उसके रोम-रोम फरफरा उठे हों। उस पहाड़ी की गुफ़ाओं से उन सुगन्धित पदार्थों की गन्ध निकल रही होगी, जिन्हें वहाँ के रसिक वेश्याओं के साथ रति करते समय काम में लाते हैं। इससे तुझे यह भी पता चल जायेगा कि वहाँ के नागरिक कितनी स्वतंत्रता से जवानी का आनन्द लेते हैं।” 

कालिदास के इस वर्णन से लगता है कि वे इस नगर में रह चुके थे और इस कारण वहाँ के प्रधान स्थानों तथा पुरवासियों के सामाजिक जीवन से परिचित थे। शुंगों के समय में इस नगर का राजनीतिक महत्त्व बढ़ गया। साम्राज्य के पश्चिमी हिस्सों की देख-रेख के लिये वहाँ एक दूसरी राजधानी भी स्थापित की गई। वहाँ शुंग-राजकुमार अग्निमित्र सम्राट के प्रतिनिधि (वाइसराय) के रूप में रहने लगा। यह वही अग्निमित्र है, जो कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नामक नाटक का नायक है। इस ग्रन्थ में उसे वैदिश अर्थात् विदिशा का निवासी कहा गया है। उसका पुत्र वसुमित्र यवनों से लड़ने के लिये सिन्धु नदी के तट पर भेजा गया था। देवी धारिणी, जो अग्निमित्र की प्रधान महिषी थीं उस समय विदिशा में ही थीं। ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में अपने पुत्र की सुरक्षा के लिये उन्हें अत्यन्त व्याकुल दिखाया गया है। 

शुंगों के बाद विदिशा में नाग राजा राज्य करने लगे। इस नाग-शाखा का उल्लेख पुराणों में हुआ है। इसी वंश में गणपतिनाग हुआ था, जिसके नाम का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में हुआ है। वह बड़ा पराक्रमी लगता है। उसके राज्य में मथुरा का भी नगर सम्मिलित था। वहाँ से उसके सिक्के मिले हैं। कुछ लोगों का अनुमान है कि जब समुद्रगुप्त उत्तरी भारत में दिग्विजय कर रहा था उस समय वहाँ के नव राजाओं ने उसके विरुद्ध एक गुटबन्दी की, जिसका नायक गणपतिनाग था। ऐसा गुट सचमुच बना या नहीं, इस विषय में हम बहुत निश्चित तो नहीं हो सकते। पर इतना स्पष्ट है कि उस समय के राजमंडल में गणपतिनाग का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता था। 

भरहुत के लेखों से लगता है कि विदिशा के निवासी बड़े ही दानी थे। वहाँ के एक अभिलेख के अनुसार वहाँ का रेवतिमित्र नामक एक नागरिक भरहुत आया हुआ था। उसकी भार्या चंदा देवी ने वहाँ पर एक स्तम्भ का निर्माण किया था। भरहुत के अन्य लेखों में विदिशा के कतिपय उन नागरिकों के नाम मिलते हैं, जिन्होंने या तो किसी स्मारक का निर्माण किया था या वहाँ के मठों के भिक्षुसंघ को किसी तरह का दान दिया था। इनमें भूतरक्षित, आर्यमा नामक महिला तथा वेणिमित्र की भार्या वाशिकी आदि प्रमुख थे। 

कला के क्षेत्र में इस नगर का महत्त्व कुछ कम नहीं था। पेरिप्लस नामक विदेशी महानाविक के अनुसार वहाँ हाथी-दाँत की वस्तुएँ उत्तर कोटि की बनती थीं। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार वहाँ की बनी हुई तेज़ धार की तलवारों की बड़ी माँग थी। इस स्थान सें शुंग-काल का बना हुआ एक गरुड़-स्तम्भ मिला है, जिससे ज्ञात होता है कि वहाँ पर वैष्णव धर्म का विशेष प्रचार था। इस स्तम्भ पर एक लेख मिलता है जिसके अनुसार तक्षशिला से हेलिओडोरस नामक यूनानी विदिशा आया था। वह वैष्णव मतावलम्बी था और इस स्तम्भ का निर्माण उसी ने कराया था। सांस्कृतिक दृष्टि से यह लेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। यह इस बात का परिचायक है कि विदेशियों ने भी भारतीय धर्म और संस्कृति को अपना लिया था। विदिशा में इसी तरह और भी भागों से लोग आये होंगे। इस धर्मकेन्द्र में अपने आध्यात्मिक लाभ के लिये लोगों ने स्मारकों का निर्माण किया होगा। विदिशा को स्कन्द पुराण में तीर्थस्थान कहा गया है। 

विदिशा–गंज बासौदा सड़क मार्ग पर हेलिओडोरस द्वारा निर्मित विदिशा का गरुड़-स्तम्भ कला का एक अच्छा नमूना है। वह मूलतः अशोक के ही स्तम्भों के आधार पर बना था पर साथ ही उसमें कुछ मौलिक विशेषतायें भी हैं। इसका सबसे निचला भाग आठ कोनों का है। इसी तरह मध्य भाग सोलह कोने का और ऊपरी भाग बत्तीस कोने का है। यह विशेषता हमें अशोक के स्तम्भों में नहीं दिखाई देती। इससे लगता है कि विदिशा के कलाकार निपुण थे और उनकी प्रतिभा मौलिक कोटि की थी

हेलिओडोरस स्तम्भ पूर्वी मालवा के बेसनगर (वर्तमान विदिशा) में स्थित है। इसे लोक भाषा में “खाम बाबा” के रूप में जाना जाता है। एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया यह स्तम्भ ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। स्तम्भ पर पाली भाषा में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करते हुए एक अभिलेख मिलता है। यह अभिलेख स्तम्भ इतिहास के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी देता है। इसे ‘गरुड़ ध्वज’ या ‘गरुड़ स्तम्भ’ भी कहा जाता है। नौवें शुंग शासक महाराज भागभद्र के दरबार में तक्षशिला के यवन राजा अंतलिखित की ओर से दूसरी सदी ई.पू. में हेलिओडोरस नाम का एक राजदूत नियुक्त हुआ। इस राजदूत ने वैदिक धर्म की व्यापकता से प्रभावित होकर ‘भागवत धर्म’ स्वीकार कर लिया था। उसी ने भक्तिभाव से भगवान विष्णु के एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा उसके सामने ‘गरुड़ ध्वज’ नामक स्तम्भ बनवाया। इस स्तम्भ से प्राप्त अभिलेख इस प्रकार है:

“देव देवस वासुदेवस गरुड़ध्वजे अयं
कारिते इष्य हेलियो दरेण भाग
वर्तन दियस पुत्रेण नखसिला केन
योन दूतेन आगतेन महाराज स
अंतलिकितस उपता सकारु रजो
कासी पु (त्र) (भा) ग (भ) द्रस त्रातारस
वसेन (चतु) दसेन राजेन वधमानस।” 

“देवाधिदेव वासुदेव का यह गरुड़ध्वज (स्तम्भ) तक्षशिला निवासी दिय के पुत्र भागवत हेलिओवर ने बनवाया, जो महाराज अंतिलिकित के यवन राजदूत होकर विदिशा में काशी (माता) पुत्र (प्रजा) पालक भागभद्र के समीप उनके राज्यकाल के चौदहवें वर्ष में आये थे।”

मंदिर के प्रमाण: 

वर्तमान में इस स्तम्भ के पास निर्मित मंदिर अब नष्ट हो चुका है, लेकिन पुरातात्विक प्रमाण इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्राचीन काल में यहाँ एक वृत्तायत मंदिर था, जिसकी नींव 22 सेंटीमीटर चौड़ी तथा 15 से 20 सेंटीमीटर गहरी मिली है। गर्भगृह का क्षेत्रफल 8.13 मीटर है। प्रदक्षिणापथ की चौड़ाई 2.5 मीटर है। इसकी बाहरी दीवार भी वृत्तायत है। पूर्व की ओर स्थित सभामंडप आयताकार है। यहीं से मंदिर का द्वार था। नींव में लकड़ी के खम्भे होने का प्रमाण भी मिला है। पुरातात्विक प्रमाण यह भी बताते हैं कि यहाँ पहले कुल 8 स्तम्भ थे, जिसमें पहले गरुड़, ताड़पत्र और मकर आदि के चिह्न बने हुए थे। इन स्तम्भों में सात स्तम्भ एक ही क़तार में मंदिर के पूर्व भाग में, उत्तर-दक्षिण की तरफ़ लगे हुए थे, जो अब नष्ट हो चुके हैं। आठवाँ स्तम्भ ही “हेलिओडोरस स्तम्भ” के रूप में जाना जाता है। यहाँ पहले के मंदिर के भग्नावशेष पर ही दूसरी सदी ई.पू. में नया मंदिर बनाया गया था। यह मंदिर लगभग पहली शताब्दी ईसा पूर्व में बाढ़ में बह गया। इस स्थान पर बना वासुदेव का मंदिर संसार का प्राचीनतम मंदिर माना जाता है। बेसनगर के पूर्व में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के स्तूप भी मिले हैं। विद्वान इन बचे हुए स्तूपों को साँची के भी पूर्व का मानते हैंं। 

वैसनगर के निकट उदयगिरि विदिशा नगरी ही का उपनगर था। उदयगिरि विदिशा से वैसनगर होते हुए पहुँचा जा सकता है। पहाड़ी के पूरब की तरफ़ पत्थरों को काटकर गुफाएँ बनाई गई हैं। इन गुफाओं में प्रस्तर-मूर्तियों के प्रमाण मिलते हैं, जो भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है। उत्खनन से प्राप्त ध्वंसावशेष अपनी अलग कहानी कहते हैं। उदयगिरि को पहले नीचैगिरि के नाम से जाना जाता था। कालिदास ने भी इसे इसी नाम से संबोधित किया है। 10वीं शताब्दी में जब विदिशा धार के परमारों के हाथ में आ गया, तो राजा भोज के पौत्र उदयादित्य ने अपने नाम से इस स्थान का नाम उदयगिरि रख दिया। उदयगिरि में कुल 20 गुफाएँ हैं। इनमें से कुछ गुफाएँ 4वीं-5वीं सदी से संबद्ध है। गुफा संख्या 1 तथा 20 को जैन गुफा माना जाता है। गुफाओं की प्रस्तर की कटाई कर छोटे-छोटे कमरों के रूप में बनाया गया है। साथ-ही-साथ मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण कर दी गई हैं। 

उदयगिरि की गुफाओं में बेहद जटिल नक़्क़ाशी की गई है और 5वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के दौरान चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में इन गुफाओं पर फिर से काम किया गया। ये गुफाएँ विदिशा से 6 किमी दूर बेतवा और वैस नदी के बीच में स्थित है। एकांत स्थान पर पहाड़ी पर स्थित इन गुफाओं में कई बौद्ध अवशेष भी पाए जाते हैं। 

वर्तमान में इन गुफाओं में से अधिकांश मूर्ति-विहीन गुफाएँ रह गई हैं। ऐसा यहाँ पाये जाने वाले स्थानीय पत्थर के कारण हुआ है। पत्थर के नरम होने के कारण खुदाई का काम आसान था, लेकिन साथ-ही-साथ यह मौसमी प्रभावों को झेलने के लिए उपयुक्त नहीं है। एक अन्य गुफा में गुप्त संवत् 425-426 ई. में उत्कीर्ण कुमार गुप्त प्रथम के शासन काल का एक अभिलेख है। इसमें शंकर नामक किसी व्यक्ति द्वारा गुफा के प्रवेश-द्वार पर जैन तीर्थ कर पार्श्वनाथ की मूर्ति के प्रतिष्ठापित किए जाने का उल्लेख है। पहाड़ियों से अन्दर बीस गुफाएँ हैं जो हिंदू और जैन-मूर्तिकारी के लिए प्रख्यात हैं। मूर्तियाँ विभिन्न पौराणिक कथाओं से सम्बद्ध हैं और अधिकांश गुप्तकालीन हैं।

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