आभाओं के उस विदा-काल में
आलेख | साहित्यिक आलेख शैलेन्द्र चौहान20 Feb 2019
गजानन मुक्तिबोध
(१३ नवंबर १९१७ - ११ सितंबर १९६४)
मुक्तिबोध के लेखन का बहुत थोड़ा हिस्सा उनके जीवन-काल में प्रकाशित हो सका था। जब उनकी कविता की पहली किताब छपी तब वे होश-हवास खो चुके थे। एक तरह से उनका सारे का सारा रचनात्मक लेखन उनके मरने के बाद ही सामने आया। आता जा रहा है। मरणोत्तर प्रकाशन के बारे में ज़ाहिर है हम जितनी भी एहतियात बरतें, थोड़ी होगी क्योंकि हमारे पास जानने का साधन नहीं होता कि जीवित रहता तो कवि अपने लिखे का कितना हिस्सा किस रूप में प्रकाशित कराने का फैसला करता। ख़ासतौर से मुक्तिबोध जैसे कवि के बारे में तो हम अपने को हमेशा ही संशय और दुविधा की स्थिति में पाते हैं। वे दूसरों को लेकर जितने उदार थे ख़ुद को लेकर उतने ही निर्मम और निर्मोही। जो लोग उनकी रचना-प्रक्रिया से परिचित हैं, जानते हैं कि अपनी हर रचना वे कई-कई बार लिखते थे। कविता ही नहीं गद्य भी। ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ किताब-रूप में उन्होंने सन् 50 के आसपास ही लिख डाली थी और वह मुद्रित भी हो चुकी थी। लेकिन किन्हीं कारणों से प्रकाशित नहीं हो सकी। कोई दस बरस बाद जब उसके प्रकाशन का डौल जमा तो मुक्तिबोध ने संशोधन के लिए एक महीने का समय माँग कर पूरी की पूरी किताब नये सिरे से लिखी। ‘वसुधा’ में प्रकाशित डायरी-अंशों और ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के प्रारूपों को आमने-सामने रखकर इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। कविता के मामले में तो वे और भी सतर्क और चौकस थे। जब तक पूरी तरह संतुष्ट न हो जाएँ कि उनका अभिप्राय शब्द के खाँचे में एकदम ठीक-ठीक बैठ गया है, वे अपनी रचना को अधूरी या ‘अन्डर रिपेयर’ कहते थे। दोबारा-तिबारा लिखी जाने पर उनकी मूल रचना सर्वथा नया रूपाकार पा पाती। मुक्तिबोध की पांडुलिपियों को खंगालते हुए किसी भी दूसरे आदमी के लिए तय करना सचमुच बहुत मुश्किल है कि उनकी रचना का कौन-सा प्रारूप अंतिम है। जीवित होते तो शायद उनके लिए भी यह तय करना बहुत आसान न होता।
‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ के प्रकाशन के पन्द्रह-सोलह बरस बाद ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की कविताओं में जाना वयस्कता से बचपन में लौटने जैसा रोमांचक अनुभव है। इसमें एक तरफ तो छायावादी संस्कारों से मुक्त होने की छटपटाहट है और दूसरी तरफ अपनी काव्य-परम्परा के रूप में उसे स्वायत्त कर लेने की तड़प भी। एक तरफ समाजवादी जीवनादर्शों की खुली स्वीकृति है तो दूसरी तरफ जीवन-विवेक को साहित्य-विवेक की तरह ही लेने की ज़िद। कवि अंगारों की तरह उड़ तिर कर चुपचाप और चोरी-चोरी हमारी छत पर आना चाहता है- लेकिन अपनी कविता से हमें जलाने के लिए नहीं। द्वंद्वस्थिति में स्थापित उसका वज़नदार लोहा भयंकर अग्नि-क्रियाओं में तेज़ ढकेला जाकर पिघलते और दमकते तेज-पुंज, गहन अनुभव का छोटा सा दोहा बनना चाहता है। (ओ अप्रस्तुत श्रोता : पृ. 47-48)
ज़िन्दगी की लड़ाई में बुरी तरह हारकर मुक्तिबोध कविता में जीत जाते हैं। कविता उनके लिए हारिल की लकड़ी थी। किसी ने उनका साथ नहीं दिया। मन, विचार और सपनों के लोक में सिर्फ कविता उनके साथ थी जिसके सहारे उन्होंने अपने आकुल हृदय के भीतर ऐसे उधार और मुक्त समाज को रच लिया जहाँ वे जी सकते थे। सारी अनगढ़ता के बावजूद ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की कविताओं में प्यार से धड़कता बेहद संवेदनशील मन छाह से लहराता दिखाई देता है जिसमें जोखिम से भरे ढेर सारे फैसले लेने का बेपरवाह साहस है। भावना और विचारों की आत्मसृद्धि एक दिन चुपचाप ही किस तरह रचना को बड़ा कर जाती है यह देखने के लिए भूरी भूरी खाक धूल की बारीक चलनी से धीरज से चालना होगा। निश्चय ही सोने के असंख्य कण हाथ लगेंगे।
‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की तुलना में इस संग्रह की कविताएँ मुखर प्रगतिवादी बल्कि कुछ तो भविष्यवादी भी लगती हैं। इस संग्रह की राजनीतिक आशा की बेहद मुखर और लाउड कविताओं के बरक्स चाँद का मुंह टेढ़ा है की कविताओं को रखकर देखने से जाहिर हो जाता है कि मुक्तिबोध ने दस-पन्द्रह बरस के छोटे से काल-खण्ड में ही कितना लम्बा सफर तय किया था- वह भी निपट अकेले। बड़ी कविता निर्मम आत्मदान माँगती है। सचमुच मुक्तिबोध ने अपने को मारकर कविता को जिला लिया- हम लोगों तक पहुंचाने के लिए।
अगर किसी हद तक ‘एक साहित्यिक की डायरी’, ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की कुंजी है तो ‘नये साहित्य का सौन्दर्य-शास्त्र’, ‘भूरी भूरी खाक धूल की’।
और बैलगाड़ी के पहिये भी बहुत बार/ ठीक यहीं टूटते/ होती है डाकेजनी/ चट्टान अंधेरी पर/ इसीलिए राइफल सम्हाले/ सावधान चलते हैं/ चलना ही पड़ता है/ क्या करें।/ जीवन के तथ्यों के/ सामान्यीकरणों का/ करना ही पड़ता है हमें असामान्यीकरण। (इसी बैलगाड़ी को : पृ. 30)
मुक्तिबोध और लम्बी कविता हिन्दी में एक तरह में समानार्थी शब्द बन गए । अपनी डायरी में उन्होंने लिखा भी है कि यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं और पूरा यथार्थ गतिशील, इसलिए जब तक पूरे का पूरा यथार्थ अभिव्यक्त न हो जाये कविता अधूरी ही रहती है। ऐसी अधूरी कविताओं से उनका बस्ता भर पड़ा था जिन्हें पूरी करने का वक्त वे नहीं निकाल पाये। अधूरी होने के बावजूद मुक्तिबोध के मन में इनके प्रति बड़ा मोह था और वे चाहते थे कि उनके पहले संग्रह में भी इनमें से कुछ ज़रूर ही प्रकाशित करा दी जायें। अपनी छोटी कविताओं को भी मुक्तिबोध अधूरी ही मानते थे। मेरे खयाल से उनकी सभी छोटी कविताएँ अधूरी लम्बी कविताएँ नहीं हैं। उनकी भावावेशमूलक रचनाएँ अपने आप में सम्पूर्ण हैं जिनमें से कई इस संग्रह की शोभा हैं जैसे ‘साँझ और पुराना मैं’ या ‘साँझ उतरी रंग लेकर’, उदासी का शीर्षक रचनाएँ। भूरी भूरी खाक धूल में संग्रहीत लम्बी कविताएँ चाँद का मुंह टेढ़ा है की तुलना में कमजोर, शिथिल और बिखरी-बिखरी सी जान पड़ती है। कारण स्पष्ट है। कवि के जीवन के उत्तर-काल की होने के कारण चाँद का मुंह टेढ़ा है की लम्बी कविताएँ फिनिश्ड रचनाएँ हैं और खाट पकड़ने के पहले कवि ने उनका अन्तिम प्रारूप तैयार कर लिया था। शेष कविताओं पर काम करने का वक्त उन्हें नहीं मिल पाया।
लम्बी कविता को साधने के लिए मुक्तिबोध नाटकीयता के अलावा अपनी सेंसुअसनेस का भी भरपूर उपयोग करते हैं। इस कला में महारथ उन्हें अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में ही हासिल हुई। परवर्ती लम्बी कविताओं में उनकी लिरिकल प्रवृत्ति एकदम घुल-मिल गयी है। शायद इसीलिए अपने अन्तिम वर्षों में उन्हें शुद्ध लिरिकल रचनाएँ लिखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। इसके विपरीत भूरी भूरी खाक धूल में प्रगीतात्मक रचनाओं के अलावा विशिष्ट मन:स्थितियों के भी अनेक चित्र मिल जाएँगे जिनका होना, संभव है कुछ लोगों को चौंकाये लेकिन इनका होना अकारण नहीं है। उदासी और अनमनेपन की ये कविताएँ अपने स्वाद और रंग में उनकी जानी-पहचानी और मशहूर रचनाओं में बहुत भिन्न है। मनुष्य के भीतर के फूटनेवाला शब्द कैसे मन आत्मा की हज़ार-हज़ार भाषा बोल लेता है चाँद का मुंह टेढ़ा है पढ़ते हुए इसका अनुभव बखूबी होता चलता है लेकिन ‘सांझ और पुराना मैं’ जैसी कविताओं की भाषा जितनी करुण है उतनी ही तरल-पारदर्शी। शब्द यहाँ संगीत में बदल गये हैं- बेहद मोहक और सरल संगीत में :
आभाओं के उस विदा-काल में अकस्मात्/ गंभीर मान में डूब अकेले होते से/ वे राहों के पीपल अशांत/ बेनाम मंदिरों के ऊँचे वीरान शिखर/ प्राचीन बेखबर मस्जिद के गुम्बद विशाल/ गहरे अरूप के श्याम-छाप/ रंग विलीन होकर असंग होते/ मेरा होता है घना साथ क्यों उसी समय/ सबसे होता एकाग्र संग/ मुंद जाते हैं जब दिशा-नयन/ खुल जाता है मेरे मन का एकांत भवन/ अब तक अनजाने मर्म नाम ले ले कर क्यों/ पुकारते हैं मुझको/ मानो उनमें जा बसने को बुला रहे हों।
अपने इसी लिरिसिज़्म को कवि जब उत्तर-काल में अपनी लम्बी रचना के कथ्य में घुला देता है तो वह कुछ इस रूप में सामने आता है :
सूनी है रात अजीब है फैलाव/ सर्द अंधेरा/ ढीली आँखों से देखते हैं विश्व/उदास तारे/ हर बार सोच और हर बार अफसोस/ हर बार फिक्र/ के कारण बढ़े हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ दूर वहाँ/ अंधियारा पीपल देता है पहरा/ हवाओं की नि:संग लहरों में कांपती/ कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज काँपती है दूरियां गूंजते हैं फासले/ बाहर कोई नहीं कोई नहीं बाहर। (अँधेरे में : पृ. 273)
मुक्तिबोध हमेशा एक विस्तृत कैनवास लेते हैं जो सामाजिक जीवन की विसंगतियों और व्यक्तिगत चेतना से जुड़कर एक रंगभूमि तैयार करता है। वे अनुभूत यथार्थ से कतराते नहीं, बल्कि भावना के फावड़े और कुदाल से अनुभव की धरती को उर्वरक बनाने की लगातार कोशिश करते हैं। अपने दायित्व को भूलना उन्हें कबूल नहीं है चाहे प्राप्य कुछ भी न हो। वे मध्यवर्ग के अपने निजी कवि हैं। मध्यवर्गीय संघर्ष और विषमताओं को वे अपनी ताकत बनाते हैं। मुक्तिबोध के भीतर एक कसक, एक छटपटाहट है जो उन्हें चैन नहीं लेने देती। सच तो यह है कि उनके भीतर ही एक ब्रह्म राक्षस पैठा है जो ज्ञान पिपासु है और अपनी पीड़ा की जकड़ में कैद हैं मगर दूसरे की पीड़ा उन्हें खलती है- 'मैं ब्रह्म राक्षस का सजल उर शिष्य होना चाहता/ जिससे की उसका वह अधूरा कार्य/ उसकी वेदना का स्रोत संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक/ पहुंचा सकूं।'
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