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यायावर मैं–009: कुछ यूँ भी

अभिव्यक्ति के अवरोधक

विगत दस वर्षों से सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक मुद्दों पर कई समाचार पत्रों के संपादकीय पृष्ठों लिए लगातार लिखता रहा हूँ। 2015 के बाद धीरे-धीरे बड़े समाचार पत्रों ने सुर बदलने शुरू कर दिए। मेरी जिस बेबाक, और धारदार लेखनी के वे प्रशंसक थे, वह उन्हें अब असुविधाजनक लगने लगी। फिर भी 2017 तक कुछ कम फ्रिक्वेंसी के साथ वे छापते रहे। सबसे पहले जनसत्ता ने हाथ खड़े कर दिए फिर जागरण, सहारा आदि ने। मुख्यधारा के क्षेत्रीय पत्रों का भी यही व्यवहार रहा। अब छपने की अवधि कभी-कभार वाली अनियमित हो गई और कोरोना संक्रमण के साथ समाप्त ही हो गई। कुछ छोटे क्षेत्रीय अख़बार जिनके लिए पूरे दशक तक मुफ़्त में लिखता रहा उनमें भी सामग्री के स्वभाव को लेकर असुविधा हुई। वे भी कन्नी काटने लगे। जिन्होंने कभी कोई मानदेय नहीं दिया वे एहसान मानना तो दूर, एहसान बताने लगे। विडंबना यह कि धीरे-धीरे समाचार पत्रों में लिखना छूटता गया या छोड़ता गया। अब एकाध ही पत्र है जिनमें व्यवहार सम पर बना हुआ है। वे सामग्री का बेहिचक उपयोग कर पा रहे हैं। इस बीच कुछ वेब पोर्टल और चैनलों पर भी सामग्री दे रहा हूँ। दो-एक पत्रिकाओं में भी भेज देता हूँ। पर समय बड़ा ही कठिन है। जो आप कहना चाहते हैं वह अब मीडिया सुनना समझना नहीं चाहता। अलबत्ता सोशल मीडिया पर संभावनाएँ बनी हुई हैं। त्रासदी है कि बेबाक अभिव्यक्ति के लिए मंच बहुत कम बचे हैं। 

हवा-हवाई:

मार्क्सवाद हवाओं में लहरें बनकर दौड़ रहा है। 

कुछ वर्ष पहले एक अतिक्रांतिकारी और भीषण मार्क्सवादी बुद्धिजीवी नगर में पधारे। उन दिनों नगर में साहित्यिक मेलों का दौर चल रहा था। संयोग से तीन-तीन साहित्यिक मेले एक साथ आयोजित हो रहे थे। कुछ आगे पीछे होगा। एक ख़त्म तो दूसरा शुरू पर दो तो समॎनांतर ही रहे होंगे। तो ये बुद्धिजीवी मित्र (मुझसे उनका औपचारिक परिचय था) इन तीनों मेलों में शिरकत कर रहे थे। मेरी उनसे जब मुलाक़ात हुई तब वे उस आयोजन में विराजमान थे जिसमें अनेक अतिक्रांतिकारी बुद्धिजीवी आमंत्रित थे; जिनमें आधे दिल्‍ली और जेएनयू से संबद्ध रहे होंगे। कुछ अन्य जगहों से कुछ साधारण और पारंपरिक वामपंथी साहित्यिकार भी मौजूद थे। 

दूसरे दिन उन्होंने उस समानांतर मेले में मिलने को बुलाया जिसमें एक सत्र में वे मुख्य वक्ता के रूप में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण स्थापनाएँ रखने जा रहे थे। मुझे उन्हें अवश्य सुनना चाहिए ऐसी उनकी अपेक्षा थी। ख़ैर नियत समय पर मैं उनका वक्तव्य सुनने नियत पांडाल में पहुँच गया। उन्होंने मुझे देख लिया आश्वस्त हुए। उनका वक्तव्य समाप्त हुआ। और कुछ लोगों को सुनकर वे मंच से उतर कर नीचे आए। कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया। उनसे संवाद किया। उनका नाम तो था ही। मैं प्रतीक्षा करता रहा। वे मेरे पास आए बोले, “यार भूख लगी है। कुछ खाने का जुगाड़ है।” आयोजन में व्यवस्था थी। उन्होंने कुछ ग्रहण किया फिर बोले, “चलो कॉफ़ी हाउस चलते हैं।” 

हम कॉफ़ी हाउस पहुँच गए। तब उन्होंने बहुप्रचारित लिटरेचर फ़ेस्टिवल के बारे में अपनी राय ज़ाहिर की जिसमें तीन-चार दिन पहले एक सत्र में शिरकत की थी। बोले ऐसे चमक-दमक वाले साहित्यिक आयोजनों से साहित्य के नाम का प्रचार तो होता ही है। पूँजी का हर क्षेत्र में दबदबा है तो साहित्य कैसे बच सकता है? यहाँ फ़िल्‍म वालों का काफ़ी प्रभाव है। गुलज़ार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी यही सब साहित्यिकार माने जाते हैं। और बहुत-सी जानकारी इस मेले की बाबत उन्होंने दी, फिर समानांतर मेले पर आ गए। इसके आयोजकों को उन्होंने मार्क्सवाद न जानने वाले पर सहृदय मित्र कहा। आख़िर इन आयोजकों ने उन्हें बुलाया जो था। वहाँ आमंत्रित लोगों में विष्णु खरे को अपना साहित्यिक गुरु बताया और नरेश सक्सेना को बेहतर कवि। इस संदर्भ में उन्होंने रघुवीर सहाय को श्रद्धा भाव से याद किया और सर्वेश्वर को क्रांतिकारी भाव से। 

मैंने कुछ और बड़े कवियों के नाम लिए जिन्हें उनने मध्यमार्गी कहकर ख़ारिज कर दिया। आलोक धन्वा, मंगलेश, राजेश जोशी के नाम पर हल्की सी मुस्कराहट दी, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कथाकारों में कमलेश्वर और कामतानाथ को याद किया। अखिलेश को बड़ा कहानीकार माना। संजीव को भी याद किया। 

मैंने उन्हें अमरकांत और ज्ञानरंजन की याद दिलाई तो मेरी तरफ़ कुछ तिरछी दृष्टि से देखा। रविभूषण को समर्थ आलोचक और परमानंद श्रीवास्तव को लद्धड़ आलोचक बताया। 

मैंने कहा, प्रदीप सक्सेना को क्यों छोड़ दिया? 

बोले—उन्हें पकड़ के भी क्या कर लेंगे? 

मुझमें अपना मध्य प्रदेश प्रेम जागा इसलिए मैंने धनंजय वर्मा और राजेश्वर दयाल सक्सेना का ज़िक्र किया मगर उन्होंने ने ध्यान नहीं दिया। इसके बाद वे अपने पूरे रंग में आ गए। बुढ़भस, बुड़बक, अधकचरे ज्ञान वाले नक़ली, ढ़ोंगी, मार्क्सवाद का लबादा ओढ़े अंदर से पूँजीवाद समर्थक तिलचट्टों की ऐसी ख़बर ली कि मेरा माथा सुन्न हो गया। लगा उनके अलावा भारतवर्ष में कोई और सच्चा और अच्छा मार्क्सवादी नहीं है। संसदीय वाम पार्टियों को भी ख़ूब गरियाया। 

मैंने कहा, “प्रभु मेरी समझ में सब आ गया लेकिन मेरी एक जिज्ञासा शांत करें कि इतने क्रांतिकारी और खाँटी मार्क्सवादी होने के बाद भी आप इन रंगबिरंगे मेले-ठेलों में क्यों घूम रहे हैं जबकि आपके हिसाब से सब भ्रष्ट, पतित, अज्ञानी, धूर्त और कैरियरिस्ट हैं।”

बोले, “तुम हमेशा व्यक्तिगत हमला करते हो। इसीलिए तुम्हें कोई घास नहीं डालता। तंत्र, व्यवस्था, मानसिकता, सामंती और पूँजीवादी अमानुषिक सोच का विरोध करो। व्यक्ति तो बदलते रहते हैं।”

मैंने कहा कि यह तो गाँधी जी वाली बात हुई कि अपराधी से नहीं अपराध से घृणा करो। 

बोले, “तुम अभी बच्चे हो।” वे उठ खड़े हुए। कहा, “शाम को मिलो तब समझाऊँगा। चित्रकूट में एक भक्त शिष्य है। उसने खाने-पीने, रहने की व्यवस्था कर रखी है। कल उसकी एक पुस्तक का विमोचन है। यह व्यक्तिगत और निजी सम्बन्ध के कारण मुझे करना पड़ रहा है। वहीं आ जाओ। आगे चर्चा करेंगे।” 

मैंने पूछा, “निजी सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं?”

बोले, “बेशक। तुमसे भी तो व्यक्तिगत सम्बन्ध ही हैं न।”

मैं रात में उनके साथ बैठा। धुआँधार चर्चा हुई। लगा मार्क्सवाद हवाओं में लहरें बनकर दौड़ रहा है। सुबह विमोचन में मैं नहीं गया। मित्रवर शाम को शिष्य द्वारा इंतज़ाम की गई गाड़ी से दिल्‍ली रवाना हो गए। 

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