भारतीय संस्कृति की गहरी समझ
आलेख | साहित्यिक आलेख शैलेन्द्र चौहान8 Jan 2019
फ़िराक़ गोरखपुरी (२८ अगस्त, १८९६ - ३ मार्च, १९८२), इलाहाबाद विश्वविद्यालय में १९३० से लेकर १९५९ तक अँग्रेजी विभाग में अध्यापक रहे। उन्हें गुले-नग़्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया। बाद में १९७० में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। उनकी शायरी में गुल-ए-नग़मा, मश्अल, रूहे-कायनात, नग़्म-ए-साज़, ग़ज़ालिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाबाग़, रम्ज़ व कायनात, चिरागां, शोला व साज़, ह्ज़ार दास्तान, बज़्मे ज़िन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधी रात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी ख़ूबसूरत नज़्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना शामिल हैं। उन्होंने एक उपन्यास ‘साधु और कुटिया’ और कई कहानियाँ भी लिखीं। उर्दू, हिंदी और अँग्रेज़ी भाषा में दस अन्य गद्य कृतियाँ भी प्रकाशित हुई हैं।
फ़िराक़ साहब ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरूआत ग़ज़ल से की। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बँधा रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। नज़ीर अकबराबादी, इल्ताफ़ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रिवायत को तोड़ा है, उनमें एक प्रमुख नाम फ़िराक़ गोरखपुरी का भी है। फ़िराक़ साहब ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फ़िराक़ ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फ़ारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है। फ़िराक़ गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६८ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था।
उनके ऊपर उस समय शायरी के साथ-साथ वतनपरस्ती का जज़्बा हावी था और वह नेहरू व गांधी से बेहद प्रभावित थे। १९२० के आस-पास वह इलाहाबाद में नेहरू परिवार के करीब आ चुके थे और बकायदा सियासी जलसों में शरीक होने लगे थे। १९२० में ही जब जार्ज पंचम के वली- अहद, ‘प्रिंस आफ वेल्स’ भारत का दौरा करने आये तो गांधी जी के नेतृत्व में इस दौरे का बायकाट किया गया। बहुत से लोग गिरफ़्तार कर लिए गये। पंडित नेहरू की गिरफ़्तारी के बाद इलाहाबाद में कांग्रेस की सूबाई कमेटी की मीटिंग हुई, जिसमें फ़िराक़ साहब पूरे ज़ोर व शोर से शरीक हुए और गिरफ़्तार हुए। उन्हें मलाका जेल ले जाया गया, मुकदमा चला। कुछ कैदी नैनी जेल भेजे गये, कुछ आगरा जेल। फ़िराक़ साहब आगरा जेल के कैदियों में थे। वह साल भर से ज़्यादा जेल में रहे। जेल में मुशायरे भी होते थे। फ़िराक़ ने कई ग़ज़लें इसी जेल में कहीं। इनमें यह दो शेर काफी मशहूर हुए-
"अहले जिन्दा की यह महफ़िल है सुबूत इसका 'फ़िराक़'
कि बिखर कर भी यह शीराज़ा परीशां न हुआ।
ख़ुलासा हिन्द की तारीख़ का यह है हमदम
यह मुल्क वक़फ़े-सितम हाए रोज़गार रहा।"
एक साल बाद वह आगरे से लखनऊ भेज दिये गये। जेल से निकलने के बाद फ़िराक़ आर्थिक रूप से काफी परेशान रहे। इसी समय नेहरू ने कांग्रेस पार्टी में शामिल होने का निमंत्रण दिया। एक लेख में फ़िराक़ साहब ख़ुद लिखते हैं- "नेहरू ने मेरे हालात को देख कर मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि तुम आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के अण्डर सेक्रेटरी की हैसियत से इलाहाबाद का दफ़्तर सम्भाल लो। यह बात १९२३ की है। मैं ढाई सौ रुपये महीने पर आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी का अण्डर सेक्रेटरी हो गया।...” वह १९२३ से लेकर १९२७ तक इस पद पर रहे। वह ६ दिसंबर, १९२६ को ब्रिटिश सरकार के द्वारा राजनैतिक बंदी बनाए गए। इस बीच उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से प्राइवेट अँग्रेज़ी में एम.ए. किया और १९३० में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अँग्रेज़ी विभाग में प्रवक्ता हो गये और पठन-पाठन व शेरो-शायरी में डूब गये। नेहरू के क़रीब होने से फ़िराक़ जो चाहते वह बन सकते थे, लेकिन उन्होंने ऎसा नहीं किया। पहले इलाहाबाद और अब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में आने के बाद से वह जैसे अपने सही पद और रास्ते पर आ गये थे। कहा जाता है कि फ़िराक़ एक बेहद मुँहफट और दबंग शख़्सियत थे। एक बार वे एक मुशायरे में शिरकत कर रहे थे, काफी देर बाद उन्हें मंच पर आमंत्रित किया गया। फ़िराक़ ने माइक सँभालते ही चुटकी ली और बोले, 'हज़रात! अभी आप क़व्वाली सुन रहे थे अब कुछ शेर सुनिए'।
इसी तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लोग हमेशा फ़िराक़ और उनके सहपाठी अमरनाथ झा को लड़ा देने की कोशिश करते रहते थे। एक महफ़िल में फ़िराक़ और झा दोनों ही थे एक साहब दर्शकों को संबोधित करते हुए बोले, "फ़िराक़ साहब हर बात में झा साहब से कमतर हैं" इस पर फ़िराक़ तुरंत उठे और बोले, "भाई अमरनाथ मेरे गहरे दोस्त हैं और उनमें एक ख़ास ख़ूबी है कि वो अपनी झूठी तारीफ़ बिलकुल पसंद नहीं करते"। फ़िराक़ की हाज़िर-जवाबी ने उन हज़रत का मिजाज़ दुरुस्त कर दिया।
दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ाब
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
३१ दिसम्बर १९३५ में जब प्रेमचंद व जोश आदि के साथ प्रगतिशील लेखक संघ की पहली बैठक हुई तो फ़िराक़ भी बराबर से शरीक थे। उनके अतिरिक्त प्रो.एजाज़ हुसैन, डॉ. अहमद अली, सज्जाद ज़हीर, रशीद जहां थे। प्रगतिशील लेखक आन्दोलन में फ़िराक़ आगे-आगे थे। उन्होंने इसकी कई कान्फ्रेन्सों की अध्यक्षता की और लेख पढ़े। यही वह मोड़ है, जहाँ फ़िराक़ के ज़ेहन में साहित्य व राजनीति मिलकर एक हो गये और उनकी क़लम से ये विचार निकले -"हमारा मुल्क हिन्दुओं की मिलकियत नहीं है और न मुसलमानों की। यह मुल्क ‘बनी नौ आदम’ की मादरे-वतन है, आज हमारे सीनों में तहज़ीब की पहली सुबहें साँसें ले रही हैं। कायनात और इंसानियत की वहदत के तसव्वर से आज भी हमारी आँखें नम हो जाती हैं” १९६० के आस-पास वह यूनिवर्सिटी से रिटायर हुए और १९८२ में वह इस दुनिया से रुख़सत हुए। अपनी पचास साल की साहित्यिक व राजनैतिक ज़िन्दगी में उर्दू शायरी के साथ उनका जो रिश्ता रहा वह अपने आप में एक इतिहास है।
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