आगे वक़्त की कौन राह?
काव्य साहित्य | कविता शैलेन्द्र चौहान15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
वक़्त बदलेगा
हाँ वक़्त बदलेगा
उसे तो बदलना ही है
अजीब शै है ये वक़्त भी
रोज़ खिसक जाता है आगे
मैं इसे पीछे खींच ही नहीं पाता
और दुख से भर जाता हूँ
नहीं समझ आता क्या करूँ
फिर उसी पटरी पर चल देता हूँ।
ये वक़्त जिससे मैं रूबरू हूँ
बहुत उलझन भरा है
वह कई खित्तों में बँटा है
कहीं पर बोरियों में नोट भरे हुए हैं
जजीरे हैं याट हैं हेलीकॉप्टर हैं
सात मंज़िला इमारत में हर मंज़िल पर स्वीमिंग पूल हैं
रहने वाले हैं चार
चौदह सेवकों के साथ कुल अठारह
चालीस क़दम दूर पर चालीस मनुष्य रहते हैं एक मंज़िल पर
एक फ़्लैट में चार-पाँच परिवार
मज़दूर बस्ती और स्लम की बात क्या की जाए
ज़ायका बिगड़ जाएगा
कहते हैं डेमोक्रेसी है देश में
राजनेता हैं अपार शक्तियों से सुसज्जित
वे पाँच वर्षों में एक बार वोट माँगते हैं बाक़ी समय पैसा
अधिकारी हैं, अपराधी हैं
कुछ नागरिक हैं और कुछ न-नागरिक
ऐन आर सी का क्या करें अब
वक़्त इतना मसखरा है कि
किसी को दुलारता है किसी को मारता है बिल्कुल
आदमी की शक्ल धर
अगर कुछ पुराने घरों में रहते हैं
तो कुछ दूसरे पुराने समय में
कई कई वक़्तों में लोग जीते हैं
कई जगह दफ़न होते हैं, जलाए जाते हैं
लड़ते हैं सीमा पर, घरों में, पड़ोस में
मंदिर में, मस्जिद में
जैसा वक़्त हो वैसा ही करते हैं लोग
जो यह सारा व्यापार संचालित करते हैं
कहा जाता है कि वे वक़्त की नब्ज़ पहचानते हैं
पर विडम्बना बस इतनी कि
इस देश के नागरिक उन्हें नहीं पहचानते
और जो पहचानते भी हैं वे भी
पहचानने से बिचकते हैं, हिचकते हैं
गोया आदमी न हों घोड़े हों
वक़्त से बेपनाह डरते हैं
जहाँपनाह से तो ख़ैर डरना लाज़िमी है
समझ नहीं आता क्या किया जाए
ऐसे दुचित्ते वक़्त का?
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