अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आगे वक़्त की कौन राह? 

वक़्त बदलेगा
हाँ वक़्त बदलेगा
 
उसे तो बदलना ही है
 
अजीब शै है ये वक़्त भी
रोज़ खिसक जाता है आगे
मैं इसे पीछे खींच ही नहीं पाता
और दुख से भर जाता हूँ
नहीं समझ आता क्या करूँ
फिर उसी पटरी पर चल देता हूँ। 
 
ये वक़्त जिससे मैं रूबरू हूँ
बहुत उलझन भरा है
वह कई खित्तों में बँटा है
 
कहीं पर बोरियों में नोट भरे हुए हैं
जजीरे हैं याट हैं हेलीकॉप्टर हैं
सात मंज़िला इमारत में हर मंज़िल पर स्वीमिंग पूल हैं
रहने वाले हैं चार
चौदह सेवकों के साथ कुल अठारह
 
चालीस क़दम दूर पर चालीस मनुष्य रहते हैं एक मंज़िल पर
एक फ़्लैट में चार-पाँच परिवार
मज़दूर बस्ती और स्लम की बात क्या की जाए
ज़ायका बिगड़ जाएगा
 
कहते हैं डेमोक्रेसी है देश में
राजनेता हैं अपार शक्तियों से सुसज्जित
वे पाँच वर्षों में एक बार वोट माँगते हैं बाक़ी समय पैसा
अधिकारी हैं, अपराधी हैं
कुछ नागरिक हैं और कुछ न-नागरिक
ऐन आर सी का क्‍या करें अब
 
वक़्त इतना मसखरा है कि
किसी को दुलारता है किसी को मारता है बिल्कुल
आदमी की शक्ल धर
अगर कुछ पुराने घरों में रहते हैं
तो कुछ दूसरे पुराने समय में
 
कई कई वक़्तों में लोग जीते हैं
कई जगह दफ़न होते हैं, जलाए जाते हैं
लड़ते हैं सीमा पर, घरों में, पड़ोस में
मंदिर में, मस्जिद में
जैसा वक़्त हो वैसा ही करते हैं लोग
 
जो यह सारा व्यापार संचालित करते हैं
कहा जाता है कि वे वक़्त की नब्ज़ पहचानते हैं
पर विडम्बना बस इतनी कि 
इस देश के नागरिक उन्हें नहीं पहचानते
 
और जो पहचानते भी हैं वे भी
पहचानने से बिचकते हैं, हिचकते हैं
गोया आदमी न हों घोड़े हों
 
वक़्त से बेपनाह डरते हैं
जहाँपनाह से तो ख़ैर डरना लाज़िमी है
 
समझ नहीं आता क्या किया जाए
ऐसे दुचित्‍ते वक़्त का? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

साहित्यिक आलेख

सामाजिक आलेख

पुस्तक चर्चा

पुस्तक समीक्षा

ऐतिहासिक

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

आप-बीती

यात्रा-संस्मरण

स्मृति लेख

कहानी

काम की बात

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. भारत का स्वाधीनता संग्राम और क्रांतिकारी
  2. धरती-21