दोहरे चरित्र को बेनक़ाब करती कविताएँ -आखिर क्या हुआ?
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा शैलेन्द्र चौहान8 Jan 2019
पुस्तक : आखिर क्या हुआ?
कवि : लोकनाथ यशवंत
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
मूल्य : 175 रुपये
लोकनाथ यशवंत से मैं नागपुर प्रवास के दौरान मिला था। तब वे वहाँ बिजली विभाग में कार्यरत थे। लोकनाथ से दलित चेतना और दलित साहित्य पर बात होती थी। उनकी कविताओं पर भी यथेष्ट चर्चा हुई। मुझे लगा कि लोकनाथ की कविता में जो मुख्य बात है वह दलितों पर सदियों से किये गए अत्याचार के प्रति उनका आक्रोश तो है ही लेकिन जिस बात ने मुझे आकर्षित किया वह था उनका वह विवेक जिसके ज़रिये कविता में वे आदमी के दोहरे चरित्र को बड़ी आसानी से बेनक़ाब कर देते थे और शत्रु और मित्र की पहचान बहुत बारीक़ी से सामने रख देते थे। उनकी इसी विशेषता ने मुझे आकर्षित किया था। तब मैंने उनकी देश चुनी हुईं कविताओं का हिंदी अनुवाद किया था जो "पहल" में छपी थीं। अभी हाल ही में उनका हिंदी में अनूदित एक कविता संग्रह "आखिर क्या हुआ" नाम से आया है जिसमें उनकी कविताओं में यह आसानी से देखा जा सकता है। उनकी दो छोटी छोटी कविताएँ हैं -
जेलर बिंदास सो गया है
क्यों कि,
क़ैदी अब
एक दूसरे पर
कड़ी नज़र रखे हुए हैं।
यह उनका तंज उपजातियों की मानसिकता पर है। दूसरी कविता है -
और अंततः क्या हुआ ?
हम सब अंदर की जेल से छूटकर
बहार की जेल में आ गए।
यह प्रतिक्रिया दलितों के धर्मान्तरण पर है। ज़ाहिर है अभी वह सब कुछ सामजिक चेतना के स्तर पर घटित नहीं हो सका है जिसकी उम्मीद थी। भेदभाव विहीन समाज अभी एक स्वप्न है जिसे पूरा किया जाना है। दलित संवेदनाओं की धारदार कविताएँ लिखने वाले लोकनाथ यशवंत दलित आन्दोलनों से भी सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। सचाई यह है कि किसी भी समाज में "दलित" वर्ग का होना उस समाज के अस्वस्थ होने की ओर इंगित करता है। एक स्वस्थ समाज समानता पर आधारित होना चाहिए। लेकिन भारत वर्ष का हिन्दू समाज सदियों से वर्णभेद का पालक रहा और उसमें शूद्र उर्फ़ दलित भेद के घिनौने बीज मौजूद रहे।
ग़लती हमारी थी
भावनाओं में बह गए
और दिमाग़ को जंग लग गया
नेता हरामख़ोर निकले
तो हम उन्हें क्यों झेलते रहे?
महाराष्ट्र में बाबासाहेब आंबेडकर के द्वारा दलित चेतना की जो चिंगारी दहकी उसने दलितों के प्रति बाहर हिन्दू समाज के नज़रिये में परिवर्तन का आगाज़ कर दिया। साठ के दशक में इस चेतना को मराठी दलित साहित्य ने और आगे बढ़ाया। दलित समाज की समस्याओं, उनके सपनों, उनकी ज़रूरतों, उनके सरोकारों को केन्द्र में रखकर लिखा गया काव्य दलित काव्य कहलाया। लोकनाथ यशवन्त की कविता में दलित समाज की ख़ामोशी को टूटना एक घटना नहीं वरन एक सतत प्रक्रिया बनकर उभरता है और वहाँ एक अनंत बेचैनी की अभिव्यक्ति है। इसे इस कविता में देखा जा सकता है -
एक दूसरे के सहारे से
खड़े हुए हम अगर
एक हो गये तो
ज़िम्मेदारी सबकी होगी
और तब सारा गणित
चुक जाएगा।
यह नहीं होना चाहिए इसलिए
एक हो जाओ कहने वाले को हमने
एक होकर धीरे से मार गिराया।
ध्यान देने की बात यह है कि भारत के स्थापित साहित्य में सामान्यतः जिस शब्दावली का प्रयोग दिखायी देता है, वह देखने में तो आकर्षक लगता है, भाषा चमत्कारिक होती है, लेकिन साथ ही तर्कजाल में उलझा देने वाली भी, जो यथास्थिति और आत्मसन्तुष्टि को ही स्थापित करती है। ऐसे लोग स्वयं कुछ सीखना नहीं चाहते, लेकिन दूसरों को सिखाने को तत्पर रहते हैं। सामाजिक संघर्ष की वस्तुगत परिस्थितियों के अध्ययन में ऐसे लोगों की कोई रुचि नहीं होती है, जो विचारों और भावनाओं का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण है। ये ऐसे बुद्धिजीवी, रचनाकार हैं जो आज भी दलितों और उनके संघर्ष में जुड़े लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। लेकिन दुःख तो यह है कि जिन्होंने दलित नेतृत्व का दम भरा था वे भी बेगाने दिख रहे हैं। इन स्थितियों में दलित रचनाकारों का उत्तरदायित्व समाज के प्रति और ज़्यादा गहरा हो जाता है।
जिनके कंधों पर विश्वास से सर रखा था
वे बख़्तरबंद गाड़ियों में मुँह छुपाकर जा रहे हैं
यहाँ का रिवाज़ ही निराला
आदमियों के पुतले और पुतलों में जान
किस पर विश्वास करें?
थोड़ा भी झुक कर देखो तो
दो की जगह चार पैर दिखाई देते हैं।
हर वर्ण का लेखक अपने वर्ण की इच्छा, आकांक्षाओं और आदर्शों को व्यक्त करने के लिए साहित्य का इस्तेमाल करता है और यहाँ तक कि अपनी जातीय कल्पना के अनुसार समाज को परिवर्तित करने का लक्ष्य की सिद्धि के लिए वर्ण संघर्ष में एक विशेष हथियार के रूप में साहित्य का प्रयोग करता है। दलित अपने इस दृष्टिकोण को छिपाता नहीं है बल्कि स्पष्ट घोषणा करता है। साहित्य को समाज में बदलाव के लिए एक औजार की तरह इस्तेमाल करता है-
लोगों !
आपकी और हमारी दिशाएँ अलग हैं
हमारे आड़े होने पर
आप खड़े हो जाते हैं।
दलित साहित्य का केन्द्र बिन्दु समता, स्वतन्त्रता,बंधुता और न्याय है, यही इसके जीवन मूल्य है. यही इसकी शक्ति भी है दलित साहित्य की अंतःधारा में जो यातना, बैचेनी, विद्रोह, नकार, संघर्ष, आक्रोश दिखायी देता है, वह हज़ारों साल लगे, वर्ण -व्यवस्था जनित जो दंश एक दलित ने अपनी त्वचा पर सहे हैं, उन्हें दलित कविताओं में गहन पीड़ा के साथ अभिव्यक्त किया गया है। दलित कविता अपने इर्द-गिर्द फैली विषमताओं,सामाजिक भेदभावों,गंधयाते परिवेश की कविता है जिस सामाजिक उत्पीड़न से दलित का हर रोज़ सामना होता है,वह यातनाओं,संघर्षों से गुज़रता है उसी तल्ख़ी को दलित कविता अभिव्यक्त करती है।
इतना घमंड किस बात का
आपकी अर्थी को हम ही कंधा देने वाले हैं।
आपका हँसना उधार लिया हुआ है
बर्ताव में भी पाखंड है तब
सोने का दाँत दिखने का कोई अर्थ नहीं।
लोकनाथ यशवंत मराठी कविता के सशक्त और विद्रोही कवि हैं, जिनकी कविताओं में अभिव्यक्ति का तेवर और मौलिक शब्द संरचना की एक विशिष्ट पहचान उभरी है। दलित कविता जन सामान्य की कविता है, और उसकी संप्रेषणीयता का प्रारूप भी वैसा ही है। दलित आन्दोलन और अंबेडकरी आन्दोलन में अनेक उतार-चढ़ाव का विश्लेषण, चिन्तन, मनन करते हुए, अपनी कविता को जो रूप दिया है, वह मराठी दलित कविता का एक ऐसा आयाम है, जहाँ दलित कविता मराठी कविता की एक विशिष्ट उपलब्धि बन कर उभरती है। लोकनाथ का यह कविता संकलन दलित कविता का समकाल है, अभिव्यक्ति है। इसका अनुवाद हिंदी सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार ओम प्रकाश वाल्मीकि ने किया है। इसका हिंदी जगत में स्वागत किया जाना चाहिए।
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