यायावर मैं–004: एक इलाहबाद मेरे भीतर
संस्मरण | स्मृति लेख शैलेन्द्र चौहान1 Jul 2022 (अंक: 208, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
आज भाई विनोद तिवारी द्वारा शिक्षक-आलोचक मित्र सत्यप्रकाश मिश्र को याद करने से मेरे मन में नौवें दशक का वह इलाहबाद जाग गया जिसमें संगम की तरह मैं कई वर्ष डूबा उतराया यद्यपि संगम का रुख़ नहीं किया। हाँ, 1976 में एक बार मैं आर्मी में अधिकारी बनने के लिए एस एस बी की परीक्षा देने गया था। इंजीनियरिंग फ़ायनल ईयर की परीक्षाओं से पहले ही विज्ञापन निकला था और ये फ़ॉर्म भरे गए थे और कुछ दिनों बाद ही टेस्ट एवं साक्षात्कार के लिए बुलावा आ गया था। वारंट (टिकिट) साथ में नत्थी था। विदिशा से मैंने यात्रा शुरू की। इलाहबाद जंक्शन पर सेना का ट्रक मौजूद था जो हमें छावनी ले गया। और भी प्रतिभागी थे। वहाँ बैरक में छोटे-छोटे कमरों में ठहरने की व्यवस्था थी। पाँच दिन का पड़ाव था। तब वहाँ आए उम्मीदवारों के साथ संगम गया था और संगम तक नाव में सैर के बाद पंडों को चकमा देकर हम कैसे भागे थे, वह याद है। तभी सिविल लाइंस घूमते हुए कॉफ़ी हाऊस भी गए थे, मैं इस उम्मीद में कि शायद कोई नामी लेखक दिख जाए। आसपास लोकभारती सहित किताबों की दुकानें भी छानी थीं। कोई लेखक तो नहीं मिला पर कॉफ़ी हाऊस में बैठ एक उत्सुकता और बेचैनी ज़रूर अनुभव की थी।
संगम और आनंद भवन के बाद बाक़ी शामें सिविल लाइंस के ही नाम रहीं। कानपुर के आगे पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह मेरा पहला प्रवेश था। संयोग से इसके अगले वर्ष (1977) इसी क्रम में एयरफ़ोर्स और आर्मी दोनों के टेस्ट के लिए बनारस देखना भी हुआ। सिलेक्शन कहीं नहीं हुआ। वहाँ एक इंस्ट्रक्टर का यह कमेंट मुझे अब तक याद है जो यूँँ ही अनौपचारिक रूप से मुझसे बात करने के बाद कहा गया था—योर एप्टीट्यूट डज़ नाट सूट्स फ़ॉर आर्म्ड फोर्स सर्विसेज़। यूँ शुड ट्राय फ़ॉर सिविल सर्विसेज़। यह बिल्कुल सही था, यह बात मुझे तब पता चली। ख़ैर, तब तक मैं साहित्य ख़ूब पढ़ता था, लिखना छिटपुट ही था। लेखकों की महत्त्वपूर्ण कर्मस्थली होने के कारण इलाहबाद का आकर्षण था। पर यह इलाहबाद आना इलाहबाद को छूने जैसा ही था। असल साक्षात्कार तो सन् 1982 के मार्च महीने से शुरू हुआ जब मैं नांदेड से महाराष्ट्र बीज (विद्युत) मंडल की नौकरी छोड़ एक दक्षिण भारतीय कंपनी बेस्ट एंड क्राम्पटन इंजीनियरिंग लि. में यहाँ ज्वाइन कर लिया। चूँकि मैं ‘धरती’ निकालता था अतः इलाहबाद में मेरा दो लेखकों से पत्र व्यवहार था। ये थे विद्याधर शुक्ल और दूसरे शिवकुटी लाल वर्मा। तीसरे मटियानी जी थे जिनसे उनकी पत्रिका विकल्प में उनके संपादकीय को लेकर कुछ बात हुई थी। दोनों को मैंने पत्र द्वारा सूचना दे दी थी कि अमुक तारीख़ को इलाहबाद पहुँच रहा हूँ। मार्च माह के प्रथम सप्ताह में मैं वहाँ पहुँच गया और जॉनसन (जॉन्सटन) गंज के एक होटल में ठहर गया। यह होटल शिवकुटी लाल जी ने बताया था। यह उनके घर से दिखाई देता था और उनके घर की छत (कोठा) मुझे होटल की दूसरी मंज़िल से दिखाई देती थी। शाम का खाना उनके यहाँ खाने का आमंत्रण रहता। ऑफ़िस अलोपीबाग में था जो थोड़ा दूर था। रिक्शे से जाना होता था। चूँकि होली के ऐन दो-तीन दिन पहले पहुँचा था इसलिए होली की एक-दो दिन की छुट्टी थी तो शिवकुटी लाल जी बोले होटल में अकेले पड़े क्या करोगे, होटल छोड़ो घर चलो। किराया बेकार में देने का कोई फ़ायदा नहीं। ऑफिस के सहकर्मियों से मैंने मकान ढूँढ़ने के लिया कह दिया था शायद जल्दी ही मिल जाए, अतः शिवकुटी लाल जी के घर चला गया। होली, बाहर बहुत धूमधाम से मन रही थी। छत से हम लोग देख रहे थे। सामने चाहचंद में ही भाई प्रदीप सौरभ रहते थे। उनके यहाँ धूम थी। वे नाच गा रहे थे। रंभा हो रंभा गाना तेज़ तेज़ बज रहा था। यह होली शिवकुटी लाल जी के नाम रही। उनके घर में उनकी पत्नी और दो बेटे थे। होली की मिठाइयाँ और अन्य व्यंजन खाकर घर जैसा ही लग रहा था। उनके पास किताबें पर्याप्त थीं। बैठकर मलयज की डायरी पढ़ डाली। त्रिलोचन की धरती, गुलाब और बुलबुल और दिगंत देखकर मैं प्रसन्न हुआ। उन्हें पढ़ा। शैलेंद्र की चुनी हुई कविताएँ तथा एक-दो और किताबें तथा पत्रिकाएँ देखीं। उनसे लंबी साहित्य चर्चा हुई। वे वामपंथी नहीं थे इसलिए चर्चा में गरमाहट बनी रहती थी। लेकिन वह एक सहज और सज्जन व्यक्ति थे इसमें कोई संदेह नहीं था। विद्याधर जी भी एक बार होटल में मिलकर गए थे। चारेक दिन बाद वे वहाँ फिर मिलने आए और खाने पर अपने घर ले गए। ख़ूब बातें हुई। वे अक़्सर व्यंजनात्मक शैली में बात करते थे। मज़ेदार छींटाकशी करते रहते थे, बहुत ज़िंदादिल व्यक्ति थे। इसके बाद उन्होंने निर्णय सुना दिया कल से यहीं रहोगे। चिरकुटी लाल (क्षमा याचना सहित) के यहाँ रहकर क्या करोगे, सड़ जाओगे। दूसरे दिन वे आए और बैग लेकर रिक्शे पर बैठ गए और हम उनके घर 72, पी बी कीटगंज पहुँच गए। बहुत प्रयत्नों के बाद भी मकान नहीं मिल पा रहा था सो क़रीब एक माह मैं उनके आतिथ्य में रहा।
— क्रमशः
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