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यायावर मैं – 001: घुमक्कड़ी

मैंने अपने जीवन में पहला बड़ा शहर जो देखा वह था आगरा। आगरा में भी आगरा फ़ोर्ट से लेकर आगरा कैंट तक रिक्शा यात्रा जो मेरी स्मरण रखने की उम्र से भी पहले की घटना है। वर्ष में एक या दो बार गाँव से विदिशा और विदिशा से गाँव आते–जाते वक़्त हम आगरा से गुज़रते थे। आगरा घूमना एक अरसे तक सम्भव नहीं हो पाया। बहरहाल, जो पहला शहर थोड़ा बहुत घूमकर देखा उसकी कोई ख़ास स्मृति मनस्पटल पर अंकित नहीं हो सकी।

सन्‌ 1965 में पिता विदिशा ज़िले के सीहोरा नामक गाँव में ट्रांसफ़र होकर आए तब मैं ग्यारह वर्ष का था और सातवीं कक्षा पास कर चुका था। आठवीं में एडमिशन लेना था। सीहोरा से लगा हुआ एक क़स्बेनुमा गाँव था मंडी बामोरा। वह सागर ज़िले में पड़ता था। वहाँ हायर सेकंडरी स्कूल था। वहाँ मेरा एडमिशन करा दिया गया। स्कूल आरंभ में सीमा पर ही था, एक डेढ़ कि.मी. स्कूल जाना प्रारंभ हो गया। शाम बामोरा रेलवे स्टेशन पिता और उनके साथी दो-एक शिक्षकों के साथ घूमने जाना होता था। महीने में कभी एक, कभी दो बार शनिवार या रविवार के दिन बीना सिनेमा देखने जाते थे। पिता स्कूल में हेडमास्टर हुआ करते थे। उनके साथ आसपास के कुछ अन्य गाँवों के छोटे स्कूल भी जुड़े होते थे। वहाँ के शिक्षक भी आते रहते थे। किसी एक गाँव में एक शिक्षक थे गुप्ता जी। उनके भाई भोपाल में बीएचईएल में टेक्नीशियन थे और जीजा जी सांची हायर सेकंडरी स्कूल में प्रिंसिपल। एक दिन किन्हीं छुट्टियों में गुप्ता जी ने पिता से कहा, “माट साहब शैलेन्द्र को भोपाल घुमा लाता है।” मुझसे पूछा मैं भी तैयार हो गया। बड़ा शहर था भोपाल। म प्र की राजधानी। हालाँकि तब तक मुझे बहुत कुछ समझता-अमझता नहीं था। ख़ैर गुप्ता जी के साथ पहले सांची पहुँचे। उनके जीजा जी के दो बच्चे थे, एक लड़का एक लड़की। हम उम्र जैसे ही थे। दो एक दिन वहाँ रुके। खेले और खाए। फिर भोपाल पहुँचे। उनके जीजा जी का लड़का भी साथ आया। अच्छा लगा। बीएचईएल टाउनशिप में एक ब्लॉक मेंं दूसरी मंज़िल पर उनके भाई रहते थे। चार-पाँच दिन वहाँ रुके। क्या घूमेंं, कहाँ कहाँ गये? कुछ याद नहीं। बस भोपाल मेंं कुछ देख लिया यानी भोपाल देख लिया। वापस बामोरा लौट आए। दो वर्ष वहाँ रहे। नौवीं पास करने के बाद विदिशा आ गए। पिता ने ट्रांसफ़र ले लिया था। दसवीं में बॉयज़ मल्टीपरपज़ हायर सेकंडरी स्कूल में एडमिशन लिया और नंदवाना मोहल्ले में घर। मंडी बामोरा में मेरा सहपाठी पुरुषोत्तम कुछ वर्षों बाद पुनः विदिशा में मिल गया। उसके पिता रेलवे में थे। दसवीं की परीक्षा देने के बाद इस बार मैं रिश्ते के मामा जो वहाँ पुलिस में थे उनके साथ गाँव आ गया। अब दो महीने की छुट्टियाँ थीं। गाँव में रहना बोरियत भरा था अतः ननिहाल चला आया। ननिहाल में मेरे हम उम्र और बराबर की कक्षा में पढ़ने वाले चार मामा थे। उनके साथ खेलने में समय अच्छा बीतता था। बड़ा परिवार था। वहाँ से एक मामा के मामा जो कानपुर में रेलवे में कार्यरत थे और फतेहपुर के रहने वाले थे उनके यहाँ कोई कार्यक्रम था अतः कानपुर जाने का तय हुआ। उरई से ट्रेन पकड़कर कानपुर पहुँचे। रेलवे कॉलोनी में ही वह रहते थे। दो एक दिन कानपुर घूमे। एक दिन गंगा में नहाने का आनंद लिया। और मज़ा ऐसा कि डूबते-डूबते बचा। मुझे तैरना नहीं आता। मैं जिस जगह नदी में नहाने उतरा वहाँ कटाव था। मेरे नीचे ज़मीन कटी हुई थी। मामा तैरते हुए थोड़ी दूर चले गए थे। आसपास कोई नहीं था। मैं डूबने लगा। बहाव भी तेज़ था। मैं चिल्लाया पर किसी ने सुना नहीं। मैंने भरपूर हाथ पैर मारना शुरू किया और थोड़ी जद्दोजेहद के बाद पाँव के नीचे ज़मीन आ ही गई। पूरा ज़ोर लगाकर मैं घाट पर वापस आ गया। मेरी हालत देखने लायक़ अवश्य रही होगी।

— क्रमशः
 

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