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मैंने कथाकार कमलेश्वर को बतौर संपादक ही जाना

 

कल शिवपुरी से मित्र ज़ाहिद खान का फोन आया कि ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक का कारवां’ का अगला एपिसोड कमलेश्वर जी पर दे रहे हैं। इसमें चर्चित लेखक पर अन्य साहित्यकारों, पाठकों के दो-तीन मिनिट के वीडियो भी शामिल करते हैं तो आप उनके किसी एक पक्ष पर दो-तीन मिनिट में अपनी बात रिकॉर्ड करके भेजिए। 

मैं इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं था। दो-तीन मिनिट में तो क्या कहा जा सकता है वह भी (जिनके 18 कहानी संग्रह, 12 उपन्यास और कई अन्य पुस्तकें हों, जिन्होंने 99 फ़िल्मों की पटकथा लिखी हो ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी लेखक) कमलेश्वर जैसे महत्त्वपूर्ण कथाकार पर क्या कहा जाए, मैं तय नहीं कर पा रहा था। मैं यह सोचने लगा कि नई कहानी के प्रवर्तकों में से एक कमलेश्वर को मैंने कब, कैसे और किस रूप में जानना शुरू किया था। 

असल में जब में विदिशा में स्थानीय सेठ सिताबराय लक्ष्मीचंद जैन महाविद्यालय में बीएससी प्रथम वर्ष में पढ़ रहा था तब अंदरकिला महल्ले में जिस किराये के घर में हम रह रहे थे उसमें हमारे पीछे वाले हिस्से में कवि-गीतकार जगदीश श्रीवास्तव जी रहते थे। वे सिरोंज में हायरसेकंडरी स्कूल में शिक्षक थे। पढ़ने के शौक़ीन थे। ‘सारिका’ कहानी पत्रिका वे नियमित ख़रीदते थे। मेरी भी साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उनके पढ़ लेने के बाद मैं वह पढ़ा करता था। यह सन्‌ 1971 की बात है। कमलेश्वर उसके संपादक थे यह मुझे पता था। तब मैं सत्रह वर्ष का था। पिताजी साप्ताहिक हिंदुस्तान और कादंबिनी लेते थे। कहानियाँ और उपन्यास पढ़ना अधिक रुचिकर था तो वह पढ़कर वापस लौटा देता था। 

उस वर्ष गर्मियों में मैनपुरी जाना हुआ तो चाचा ने बताया कि करहल अड्डे पर ‘बदनाम बस्ती’ फ़िल्‍म की शूटिंग चल रही है। यह फ़िल्‍म कमलेश्वर जी के उपन्यास पर बन रही है। उपन्यास पढ़ने की उत्सुकता हुई लेकिन उसे पाना कठिन था। ख़ैर जब विदिशा वापस लौटा तो फिर से सारिका पढ़ने लगा। एक-डेढ़ वर्ष यह क्रम चलता रहा। 

अगले वर्ष मैंने इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमीशन ले लिया। सुबह आठ बजे से शाम चार बजे तक कॉलेज में बीतता। कॉलेज भी दूर था। अब अन्य कुछ पढ़ना कम हो गया। समय निकाल पाना मुश्‍किल था। अगले वर्ष हम दूसरे मकान में शिफ़्ट हो गये। वह मकान छूट गया। यह नया मकान स्टेशन के पास था। थोड़ी ही दूर पर मेरा प्रिय मित्र कृष्णानंद रहता था। गर्मियों में उसने वहाँ नगरपालिका की पुष्यमित्र वाचनालय का सदस्य बनवा दिया। इस लायब्रेरी में मुझे बहुत समृद्‍ध साहित्य मिला। छुट्टियाँ थीं। दो किताबें इश्यू कराता। एक दिन में ही ख़त्म कर देता। किताब बड़ी होती तो दिनभर में पढ़ लेता। दूसरे दिन दूसरी किताब पढ़ता। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, धर्मवीर भारती, शैलेश मटियानी, निर्मल वर्मा, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, कामतानाथ, भीष्म साहनी, अमृतलाल नागर, मन्नू भंडारी, अमृता प्रीतम, यशपाल के अलावा, कामू, काफ्का, तॉल्सतॉय, चेखव, गोर्की, मुल्कराज आनंद, हरमन हेस्से आदि की उपलब्ध पुस्तकों को पढ़ डाला। संयोग यह कि कमलेश्वर की सिर्फ़ छिटपुट कहानियाँ ही पढ़ी थीं। सारिका अवश्य पढ़ता। लायब्रेरी में मिल जाती। कभी-कभी पैसे होते तो ख़रीद भी लेता। कॉलेज फिर शुरू हुए। साहित्य पढ़ना बंद हो गया।

एशिया-72 औद्योगिक मेले में पहली बार दिल्ली जाने का अवसर मिला। दिल्‍ली घूमा। अगली बार गर्मियों में कमलेश्वर की कहानी की किताब ‘राजा निरबंसिया’ मिली फिर ‘जॉर्ज पंचम की नाक’ भी पढ़ी। लेकिन वे मेरे लिए अभी भी संपादक थे। समांतर कहानी आंदोलन और सारिका में प्रकाशित समकालीन कथाकारों की कहानियाँ पढ़ने की जो संतुष्टि थी—वह प्राथमिक थी। 1975 में फिर दिल्‍ली जाने का अवसर मिला। तब वहाँ आँधी फिल्‍म लगी थी। वह देखी। फिर आपातकाल लगा। 25 जून 1975 से 21 जनवरी 1977 तक। कोर्स की किताबें पढ़ने के साथ छुट्टियों में साहित्य भी पढ़ता। ‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ’ उपन्यास तभी पढ़ा। यह समय उद्वेलन का समय था। कॉलेज की पढ़ाई समाप्त हो गई थी। साहित्यिक सक्रियता बढ़ गई। हाँ, जब तक पढ़ाई पूरी नहीं हुई रचनाएँ कहीं नहीं भेजीं। अब नौकरी की खोज भी तेज़ थी। 

मित्रों ने सलाह दी कि कमलेश्वर और धर्मवीर भारती को पत्र लिखो। अपनी जो जिज्ञासा है वह प्रकट करो। संवाद करो। तो कमलेश्वर जी को पत्र लिखा कि प्रेमचंदयुगीन कहानी से समांतर कहानी तक आए परिवर्तन के बावजूद प्रेमचंद आज भी ज़्यादा अपील करते हैं, इसके पीछे क्या कारण है। कमलेश्वर जी ने जवाब दिया कि आज की कहानी प्रेमचंद की कहानियों से बहुत आगे है। उसका फलक विस्तृत हुआ है। आगे लिखने का मन नहीं हुआ। यह पत्र धरती के प्रवेषांक में छापा था। बहरहाल, कोई वर्ष भर बेरोज़गार रहते हुए पढ़ता, लिखता रहा। मुक्तिबोध, नागार्जुन, शील, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन के साथ-साथ, सर्वेश्वर दलाल सक्सेना, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, नरेंद्र जैन, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, अरुण कमल आदि कवियों को पढ़ा। भीष्म साहनी, अमरकांत, शेखर जोशी और ज्ञानरंजन की कहानियाँ पढ़ीं। कुछ सभा सम्मेलन भी अटैंड किये। बाहर की दुनिया से परिचय हुआ। 

कुछ रचनाएँ भी छपने भेजीं। दो-एक अख़बारों में कहानियाँ, कविताएँ छपीं। अंततः नौकरी मिली। छपने का सिलसिला भी शुरू हुआ जो अब तक तो चल रहा है। 

कमलेश्वर जी ने सारिका छोड़ दी। कथायात्रा, गंगा से होते हुए अंततः दैनिक भास्कर में आ गये। व्यक्तिगत रूप से मिलना कभी हुआ नहीं। एक बार भोपाल में जेनेटिकली मॉडिफ़ाईड बीज पर उनका भाषण अवश्य सुना। 

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