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रानी रूपमती: प्रेम, स्वाभिमान और संस्कृति की अनश्वर प्रतिमा

 

शैलेन्द्र चौहान

भारतीय इतिहास के पृष्ठ अनेक वीरांगनाओं, संतों और रचनाकारों से आलोकित हैं, जिन्होंने अपने जीवन से न केवल कालजयी उदाहरण प्रस्तुत किए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित किया। रानी रूपमती का नाम इस श्रेणी में विशेष महत्त्व रखता है। वह केवल एक सुंदर नारी या किसी राजा की प्रेमिका नहीं थीं, बल्कि एक ऐसी स्त्री थीं जिसने अपने जीवन से प्रेम, निष्ठा और स्वाभिमान के अमिट प्रतीक रचे। 

रानी रूपमती और बाजबहादुर की कथा इतिहास और लोककथा के संगम पर खड़ी है। यह कथा प्रेम और सौंदर्य की है, किन्तु साथ ही इसमें राजनीति, धर्म और संस्कृति का अद्भुत अंतःसंबंध भी दिखाई देता है। इसीलिए यह कथा मात्र एक प्रेमकहानी नहीं, बल्कि एक सभ्यता की संवेदनशील स्मृति बन गई है। 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

रानी रूपमती का जीवन 16वीं शताब्दी के मध्य का है—जब भारत में मुग़ल सत्ता का विस्तार हो रहा था और अनेक क्षेत्रीय राजवंश अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत थे। मालवा प्रदेश, जिसकी राजधानी मांडू थी, उस समय सुल्तान बाजबहादुर के शासन में था। बाजबहादुर न केवल एक शासक था, बल्कि संगीत और काव्य का प्रेमी भी था। वह स्वयं उच्च कोटि का गायक और वीणा-वादक था। 

इसी मालवा की धरती पर एक ग्रामीण युवती थी—रूपमती, जो असाधारण सौंदर्य और मधुर स्वर की धनी थी। वह नर्मदा तट के निकट एक गाँव में रहती थी और प्रतिदिन नर्मदा की आराधना करती थी। कहा जाता है कि बाजबहादुर ने उसे पहली बार नर्मदा तट पर देखा, जब वह अपनी सखियों के साथ गीत गा रही थी। संगीत से मोहित होकर सुल्तान ने उससे भेंट की, और दोनों के बीच प्रेम का वह सूत्र बँध गया, जो आगे चलकर इतिहास का हिस्सा बना। 

रूपमती और बाजबहादुर: प्रेम और संगीत का संगम

बाजबहादुर और रूपमती का प्रेम संगीत की भाषा में पला-बढ़ा। दोनों ही संगीत-साधक थे—रूपमती का स्वर और बाजबहादुर की वीणा, दोनों मिलकर मांडू की फिज़ाओं में गूँज उठते थे। कहा जाता है कि बाजबहादुर ने रूपमती के लिए मांडू के पश्चिमी छोर पर एक महल बनवाया, जिसे आज भी ‘रूपमती महल’ कहा जाता है। इस महल से दूर-दूर तक नर्मदा का दर्शन होता था, ताकि रूपमती प्रतिदिन नदी के जल को निहारकर अपनी आराधना कर सके। 

उनका यह प्रेम मात्र भावनात्मक नहीं था; उसमें सांस्कृतिक एकता और सौंदर्य चेतना का गहरा भाव था। एक मुस्लिम शासक और हिंदू स्त्री का यह प्रेम उस समय के समाज में धर्म की सीमाओं को लाँघकर मानवता के उच्चतम मूल्यों को प्रतिष्ठित करता है। 

राजनीतिक परिदृश्य और त्रासदी:

परन्तु यह प्रेमकथा सदैव सुखद नहीं रह सकी। 1561 ई. में मुग़ल सम्राट अकबर ने अपने सेनापति आदम खान (कुछ इतिहासकारों के अनुसार आदिलशाह खाँ) को मालवा विजय के लिए भेजा। मालवा की सेना कमज़ोर थी और बाजबहादुर के सैनिक मनोबलहीन। युद्ध में बाजबहादुर को पराजय मिली और उसे भागकर खंडेश तथा बाद में गुजरात की ओर शरण लेनी पड़ी। 

रूपमती को मुग़ल सेना ने बंदी बना लिया। अकबर के आदेशानुसार उसे दिल्ली भेजे जाने की तैयारी की गई, किन्तु रूपमती ने यह अपमान स्वीकार नहीं किया। अपने आत्मसम्मान और निष्ठा की रक्षा के लिए उसने विषपान कर आत्मोत्सर्ग कर दिया। इतिहास की यह घटना भारतीय स्त्री-संकल्प और स्वाभिमान का सर्वोच्च उदाहरण बन गई। 

रूपमती की सांस्कृतिक छवि:

रूपमती केवल एक ऐतिहासिक नायिका नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की एक संगीतमयी प्रतीक हैं। कहा जाता है कि उन्होंने स्वयं अनेक गीतों और रागों की रचना की थी। लोकस्मृति में आज भी ‘रूपमती के गीत’ गाए जाते हैं, जो नर्मदा, प्रेम और विरह की संवेदना से ओतप्रोत हैं। 

मांडू की वादियों में आज भी उनकी स्मृति बसी हुई है। रूपमती महल के खंडहरों में जब हवा बहती है, तो लगता है जैसे वीणा की कोई अदृश्य धुन गूँज उठी हो। इसीलिए मांडू को ‘प्रेम की राजधानी’ कहा जाता है—जहाँ प्रेम, संगीत और मृत्यु एक साथ गुँथे हुए हैं। 

लोककथा से साहित्य तक: रूपमती की अमरता

रूपमती और बाजबहादुर की प्रेमकथा इतिहास के पन्नों से निकलकर लोककथाओं, गीतों और साहित्य में जीवित हो गई। लोकसाहित्य में यह कथा प्रेम और त्याग का आदर्श बनकर गाई जाती है। फ़ारसी, उर्दू और हिंदी कवियों ने इसे विभिन्न रूपों में रचा। अनेक राजस्थानी और मालवी लोकगीतों में रूपमती की व्यथा और नर्मदा के प्रति उसका अनुराग आज भी सुनाई देता है। 

आधुनिक साहित्य में इस कथा को पुनः सृजित किया गया। मालती रामचंद्रन के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘The Legend of Rani Roopmati’ (2010) ने ऐतिहासिक तथ्यों और कल्पना का सुंदर संयोजन करते हुए इस प्रेमकथा को नए पाठकों तक पहुँचाया। यह उपन्यास रूपमती के दृष्टिकोण से इतिहास को पुनः देखने का प्रयास करता है, जहाँ स्त्री अपनी नियति की शिकार नहीं, बल्कि अपने स्वत्व की रचयिता है। 

स्त्री-स्वाभिमान और रूपमती का आत्मोत्सर्ग

रानी रूपमती का जीवन उस समय की भारतीय स्त्री की असाधारण चेतना को प्रकट करता है। उसने अपने प्रेम को आत्मसमर्पण की तरह नहीं, बल्कि समानता और गरिमा के स्तर पर जिया। बाजबहादुर के प्रति उसका प्रेम गहरा था, किन्तु वह उसके अधीन नहीं थी। 

जब परिस्थितियों ने उसे अपमान और बँधन की ओर धकेलना चाहा, तो उसने मृत्यु को चुन लिया—पर अपनी स्वतंत्रता और मर्यादा से समझौता नहीं किया। यही निर्णय उसे भारतीय इतिहास की उन विरल स्त्रियों में स्थान देता है जिन्होंने अपने आत्म-सम्मान के लिए मृत्यु को वरण किया। रूपमती की यह छवि हमें याद दिलाती है कि भारतीय संस्कृति में नारी केवल प्रेमिका नहीं, बल्कि ‘स्वाधीन चेतना’ का प्रतीक भी है। 

मांडू: रूप और राग की धरती:

मांडू के खंडहर आज भी उस युग के वैभव, प्रेम और त्रासदी की गवाही देते हैं। बाजबहादुर का महल और रूपमती का मंडप इस प्रेमकथा के प्रतीक स्थल हैं। इन स्थापत्य संरचनाओं में केवल पत्थर नहीं, बल्कि संगीत और भावना की लहरियाँ भी समाई हुई हैं। 

इतिहासकार लिखते हैं कि जब मांडू की वादियों में बाजबहादुर की वीणा बजती थी, तो रूपमती का स्वर दूर-दूर तक गूँजता था। यह केवल दो व्यक्तियों का प्रेम नहीं था, बल्कि एक संपूर्ण सांस्कृतिक संवाद था—इस्लामी संगीत और भारतीय लोकधुनों का अद्भुत संगम। 

रूपमती का साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

रूपमती के चरित्र को साहित्यिक दृष्टि से देखें तो वह संवेदना और आत्मबल की चरम अभिव्यक्ति हैं। उनके जीवन में प्रेम, संगीत, धर्म और मृत्यु–चारों तत्त्व मिलकर एक त्रासद नायिका की छवि गढ़ते हैं। उनका आत्मोत्सर्ग केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्रतीकात्मकता लिए हुए है—जैसे भारतीय नारी अपने आदर्शों और मर्यादा के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है। इस दृष्टि से रूपमती मीराबाई, पद्मिनी और कर्णावती जैसी ऐतिहासिक स्त्रियों की परंपरा में आती हैं, जिन्होंने प्रेम और प्रतिष्ठा को एक ही सूत्र में बाँधा। 

मनोवैज्ञानिक रूप से रूपमती का निर्णय उनके आत्म-सम्मान और धार्मिक निष्ठा की परिणति है। प्रेम ने उन्हें ऊँचा किया, और मृत्यु ने उन्हें अमर। 

रूपमती की प्रासंगिकता: आज के संदर्भ में:

आज, जब समाज में प्रेम और संबंधों की परिभाषाएँ बदल रही हैं, रूपमती का जीवन हमें यह सिखाता है कि प्रेम केवल आकर्षण नहीं, बल्कि दृढ़ विश्वास और आत्मीयता का संवाद है। उनका आत्मोत्सर्ग यह संदेश देता है कि स्त्री की गरिमा किसी सत्ता या धर्म की बंधक नहीं हो सकती। रूपमती की कथा हमें यह भी याद दिलाती है कि संस्कृति तब तक जीवित रहती है जब तक उसमें स्त्री की स्वतंत्र आवाज़ गूँजती है। उनकी स्मृति भारतीय स्त्रीत्व के उस स्वरूप का प्रतीक है जो सौंदर्य के साथ-साथ साहस, विवेक और आत्मनिष्ठा को भी साधता है। 

रानी रूपमती का जीवन एक ऐसा संगीत है जो सदियों से गूँज रहा है—कभी इतिहास के दस्तावेज़ों में, कभी लोकगीतों में, और कभी मांडू की हवा में। उन्होंने प्रेम को पवित्रता, संगीत को साधना और मृत्यु को आत्म-सम्मान का विधान बना दिया। वह भारतीय स्त्री की उस चेतना की मूर्ति हैं जो प्रेम में मर्यादा, निष्ठा में सौंदर्य और त्याग में गौरव देखती है। मांडू की हर ईंट, हर गली और हर गुंबद आज भी रूपमती के स्वर से गूँजता है— ‘प्रेम कभी मरता नहीं, वह इतिहास के पार जाकर भी जीवित रहता है।’ इसलिए रानी रूपमती केवल एक ऐतिहासिक पात्र नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की जीवंत स्मृति हैं— प्रेम, संगीत और स्वाभिमान की अनश्वर प्रतिमा। 

संपर्क: 34/242, सेक्‍टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-30203
मो। 7838897877

रानी रूपमती: प्रेम, स्वाभिमान और संस्कृति की अनश्वर प्रतिमा

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