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ये कैसा वसंत है कविवर

 

वसंत आता है हर बार
जब से ऋतुओं की समझ आई
सुना, पढ़ा और बाँध ली गाँठ
 
मेरे जानने समझने से पहले भी आता था
आगे भी आएगा
जैसे सर्दी आती है
गर्मी आती है, बारिश आती है
ऋतुएँ आती हैं जाती हैं
कभी ख़ुशनुमा कभी तकलीफ़देह
दुख और सुख
चलता रहता है कारोबार
 
जन्मते हैं अनेक प्राणी
सभी ऋतुओं में
धीरे-धीरे बढ़ते हैं
स्कूल में दाख़िला लेते हैं मनुष्यों के बालक
कॉलेज जाते हैं
करते हैं व्यवसाय और विवाह
मेले-ठेले
व्याधियाँ और आनंद
चलता है चक्र निरंतर
 
अपवाद होते हैं कुछ, 
कुछ अभिशप्त
मरते भी हैं लोग बारहों मास
कितने प्रियजन, परिचित कब-कब बिछड़े
प्रसंगवश कभी-कभार ही आते हैं याद
बिसर गये हैं कुछ पूरी तरह
 
सब कह रहे हैं
आया है वसंत फिर
नहीं दिख रहे हैं भौंरे
न खिले हुए फूल
कवि गा रहे हैं वसंत गान
लिख रहे हैं कविताएँ
ढूँढ़ रहा हूँ, किन
‘कूलन में केलिन में कछारन में कुंजन में
बनन में बागन में बगरयो बसंत है’
ऊहापोह है
कैसे महसूस करूँ
वसंत आया है
 
फ़सलें आती थीं पहले वर्ष में दो बार
अब एकाध बार ज़्यादा भी आती हैं
गोदामों और कोल्ड स्टोर्स में बंद होता है उत्पाद
बिकता है वर्ष भर
मँझोले और सीमांत किसान
रहते हैं विपन्न
लागत ज़्यादा उत्पादन कम
बिकने का भाव और भी कम
आंदोलित हैं किसान
ये कैसा वसंत है? 

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