इतिहास में झाँकने पर
काव्य साहित्य | कविता शैलेन्द्र चौहान15 Nov 2024 (अंक: 265, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
यादों की भी एक उम्र होती है
बिसरने लगती हैं धीरे-धीरे
कुछ होती हैं गड्डमड्ड
इतिहास होता है विशिष्ट
और होता है विशिष्ट जनों का
मैं पहुँचा था जब वहाँ
थी शिक्षा की कुछ अधिक सुविधाएँ
थोड़ी अधिक जनसंख्या बड़ा नगरीय क्षेत्र
हालाँकि नहीं था वह बड़ा नगर
एक ठीक-ठाक क़स्बा, ज़िला मुख्यालय
इतिहास था
रहा था अशोक वहाँ का सूबेदार
विवाह किया था वहाँ की कन्या से
आसपास कुछ खंडहर
पुरातत्विक अवशेष
मेघदूत में दर्ज था वह सुंदर और समृद्ध क्षेत्र
संप्रति था बस एक साधारण नगर
शिक्षण संस्थाएँ थीं
महाविद्यालय और इंजीनियरिंग कॉलेज
दसवीं कक्षा में प्रविष्ट हुआ
उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में
बीता वह वर्ष फिर अगला वर्ष
विद्यालय और घर इतना ही आकाश
ख़ाली समय में पढ़ना कुछ किताबें
साहित्यिक और जासूसी उपन्यास
सामने था मंदिर
पुजारी का बेटा शंकर
उसके साथ जाना नदी किनारे
बेतवा और वैस नदियों का संगम
चरण तीर्थ, छोटे बड़े अनेक मंदिर
नदी पार हेलियोदर का स्तंभ, वनप्रांतर
कुछ दूरी पर उदयगिरि की गुफाएँ
सांची के स्तूप थे विद्यालय की दिशा में
विद्यालय से महाविद्यालय
सपनों के पंख निकले फड़फड़ाने लगे
उड़ने को और आगे किसी बड़े नगर में
नहीं थे संसाधन
प्रवेश लिया इंजीनियरिंग कॉलेज में
इतिहास के बाद विस्तृत हुआ कुछ भूगोल
विषय के अलावा पढ़ा कुछ और साहित्य
पुष्यमित्र वाचनालय में
साहित्य और संस्कृति में सक्रियता थी नगर में
पर मुझे पाना था अपना लक्ष्य
यही बड़ी उपलब्धि थी हो सकूँ आत्मनिर्भर
महत्वाकांक्षाएँ धीरे-धीरे सिमटने लगी थीं
समेट लिये पंख
आर्थिक स्थितियाँ थीं बाधक
यथार्थ ख़ूबसूरत न सही
ठोस तो था
उड़ने के लिये था साहित्य
जिसमें अपना अलग पथ था
अलग वेदना थी अलग ही लक्ष्य
क्या था जो नहीं था विदिशा में
सोचता हूँ तो लगता है
नागरबोध, उन्मुक्तता, खुली दृष्टि, ज्ञान का विस्तार
कोई आंदोलन, प्रतिरोध
नहीं थी संभावनाओं की आहट
इतिहास भी अशोक और पुष्यमित्र शुंग का था
मेरा अपना जो हासिल है
उसकी पृष्ठभूमि में
यही तो है अब
मेरा अपना इतिहास
झाँकता हूँ कभी-कभी
बिसरने से रोकने का जतन है किंचित
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