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विडंबना

 

यह महज़ संयोग ही था कि 
सुरंग धँसने के बाद ही होने थे कुछ राज्यों में चुनाव
आगे देश के चुनाव भी होने थे
तो धीरे-धीरे सुस्त रफ़्तार से जागा सोता हुआ प्रशासन
नेता भी कुनमुनाए जैसे ही ध्यान आया चुनावों का
हुए क्रेडिट लेने को आतुर 
बचाव के हुए यत्न तेज़
वरना होता वही हश्र इन मज़दूरों का भी
जो होता रहा है दशकों से
और उससे भी पीछे औपनिवेशिक समय में, 
सामंती व्यवस्था में
 
मारे गए लाखों मज़दूर निर्माण कार्यों में घटित दुर्घटनाओं से
लाभ के लोभ में
नहीं किए सुरक्षा के समुचित उपाय
ठेकेदारों, राजनेताओं, अधिकारियों की मिलीभगत से
असुरक्षा और असावधानियों का 
निरंतर सिलसिला रहा क़ायम
कभी धंसने से खान, कभी पुल टूटने से, 
बाँध और कभी इमारतें ढह जाने से
रेल दुर्घटनाओं में, ऊँचे-ऊँचे खंभों के गिरने से, 
मिलों और कारख़ानों में घटती दुर्घटनाओं से
तो कभी बाढ़ से, 
नदियों के किनारे बनते प्रकल्पों में भूमि के भारी कटाव से
होती रही सुरक्षा में चूक निरंतर
विकास के नाम पर होता है बहुत कुछ
उपेक्षा कर प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यों की
किसके लिए? 
 
नहीं समझी ग़रीब मज़दूरों की जान की कोई क़ीमत
कुछ हज़ार, अब कुछ लाख कर दिया घोषित मुआवज़ा
मुँह बंद हो गए सबके
मीडिया हुआ शांत
वैसे भी उसे कहाँ फ़ुरसत चुनाव, क्रिकेट और कॉर्पोरेट हितों से
उसका भी लक्ष्य वही है
बस लाभ और लाभ
 
यह प्रसन्नता की बात है बचा लिये गये वे
कोशिशें हुईं सफल
अब भले ही ले लें चुनावों में क्रेडिट
चुनावों के बाद फिर वही होगा
लाभ-लोभ का गणित
जो शाश्वत है इस व्यवस्था में
जारी रहेगा सुरक्षा से समझौता
यदि नहीं जागे वर्गों, धर्मों, जातियों और क्षेत्रों में बँटे
एक सार्वभौम देश के नागरिक
जो किए जा चुके हैं इन दिनों
मात्र मतदाताओं में परिणित

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