मीडिया के बदलते रूपों की बानगी
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा शैलेन्द्र चौहान8 Jan 2019
पुस्तक : मीडिया का बदलता स्वरूप
लेखक : प्रमोद भार्गव
प्रकाशक : प्रकाश संस्थान
दरियागंज नई दिल्ली 110002
मूल्य : 350 रुपये
विगत दो दशकों में मीडिया के स्वरूप में बहुत तेज़ बदलाव देखने को मिला है। सूचना क्रांति एवं तकनीकी विस्तार के चलते मीडिया की पहुँच व्यापक हुई है। इसके समानांतर भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं बाज़ारीकरण की प्रक्रिया भी तेज़ हुई है, जिससे मीडिया अछूता नहीं है। नए-नए चैनल खुल रहे हैं, नए-नए अख़बार एवं पत्रिकाएँ निकाली जा रही है और उनके स्थानीय एवं भाषायी संस्करणों में भी विस्तार हो रहा है। मीडिया के इस विस्तार के साथ चिंतनीय पहलू यह जुड़ गया है कि यह सामाजिक सरोकारों से दूर होता जा रहा है। मीडिया के इस बदले रुख से उन पत्रकारों की चिंता बढ़ती जा रही है, जो यह मानते हैं कि मीडिया के मूल में सामाजिक सरोकार होना चाहिए। मीडिया की प्राथमिकताओं में अब शिक्षा, स्वास्थ्य, ग़रीबी, विस्थापन जैसे मुद्दे रह ही नहीं गए हैं। उत्पादक, उत्पाद और उपभोक्ता के इस दौर में ख़बरों को भी उत्पाद बना दिया गया है, यानी जो बिक सकेगा, वही ख़बर है। दुर्भाग्य की बात यह है कि बिकाऊ ख़बरें भी इतनी सड़ी हुई हैं कि उसका वास्तविक ख़रीददार कोई है भी या नहीं, पता करने की कोशिश नहीं की जा रही है। बिना किसी विकल्प के उन तथाकथित बिकाऊ ख़बरों को ख़रीदने (देखने, सुनने, पढ़ने) के लिए लक्ष्य समूह को मजबूर किया जा रहा हैं। ख़बरों के उत्पादकों के पास इस बात का भी तर्क है कि यदि उनकी ""बिकाऊ"" ख़बरों में दम नहीं होता, तो चैनलों की टी.आर.पी. एवं अख़बारों की रीडरशप कैसे बढ़ती? इस बात में कोई दम नहीं है कि मीडिया का यह बदला हुआ स्वरूप ही लोगों को स्वीकार है, क्योंकि विकल्पों को ख़त्म करके पाठकों, दर्शकों एवं श्रोताओं को ऐसी ख़बरों को पढ़ने, देखने एवं सुनने के लिए बाध्य किया जा रहा है। उन्हें सामाजिक मुद्दों से दूर किया जा रहा है। यह बात ध्यान देने की है कि भारत जैसे विकासशील देश में मीडिया की भूमिका विकास एवं सामाजिक मुद्दों से अलग हटकर नहीं हो सकती। हमारी अपनी सामाजिक समस्याएँ हैं, विषमताएँ हैं और सिस्टम की कमियाँ हैं, कानून व्यवस्था खामियाँ हैं। ऐसे में क्या मीडिया महज एक तमाशबीन बनकर रह सकता है? क्या वह सत्ता और कॉर्पोरेट जगत का पिछलग्गू मात्र बना रह सकता है? शायद नहीं! इससे न केवल समाज के स्वस्थ मूल्यों को ही ख़तरा है बल्कि स्वयं मीडिया के अस्तित्व को भी है। ऐसे समय में सुप्रसिद्ध पत्रकार प्रमोद भार्गव की पुस्तक "मीडिया का बदलता स्वरूप" हमें कुछ सुकून देती है। इस पुस्तक में पत्रकारिता के सन्दर्भ में लिखे गए ऐसे लेख सम्मिलित हैं जो इस देश के जनमानस और उसकी अपेक्षाओं के बारे में अपनी चिंता से हमें अवगत कराते हैं। इसमें लेखक एक ओर अपनी सनातन सांस्कृतिक पहचान की दृष्टि से घटित घटनाओं और समाचारों का विश्लेषण करता है तो वहीँ बहुलतावादी समृद्ध संस्कृति के महत्वपूर्ण पक्षों पर भी अपने विचार रखता है। खोजी विज्ञान पत्रकारिता के बारे में लेखक कहता है- "विज्ञान के क्षेत्र में खोजी पत्रकारिता लगभग नगण्य है, परन्तु स्वस्थ विज्ञान पत्रकारिता के लिए आज इसकी ज़रूरत है। आमतौर पर विज्ञान पत्रिकाओं के अधिकांश लेखक वैज्ञानिक होते हैं और वे विज्ञान से रोज़गार के रूप में जुड़े हुए हैं।" ज़ाहिर है वे एक जानकारी वाला पक्ष उजागर करते हैं उसकी सामाजिक उपयोगिता के आगे उसके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव तथा सोच में प्रयोगात्मक व रचनात्मक विकास की ओर उनका ध्यान नहीं जाता, पत्रकारिता वाली खोजी दृष्टि वहाँ नहीं होती। विज्ञान की स्थूल समझ के आगे एक वैज्ञानिक समझ का विकास भी होता है जो समाजवैज्ञानिक पहलू है। इस दृष्टि से भी इस विषय को देखना चाहिए। जहाँ पत्रकारिता भी पीछे रह जाती है। पेड न्यूज़ को लेकर लेखक कहता है कि - "पेड न्यूज़, नकदी अथवा उपहार लेकर समाचार छापने की घटना है जो अनैतिक और बेमेल व्यवसायिक गठबंधनों की देन है।" लेखक यह भी इंगित करता है कि समाचार माध्यमों को सरकारी-गैरसरकारी विज्ञापनों के मार्फ़त जो पैसा मिलता है अंततः वह जनता की ही गाढ़ी कमाई का पैसा होता है इसलिए प्रत्येक नागरिक को यह जानने का है कि मीडिया क्या खेल खेल रहा है। लेखक का मत है कि पेड न्यूज़ के बहाने किये जाने वाले भ्रष्टाचार को अपराध के दायरे में लाया जाना चाहिए। स्टिंग ऑपरेशनों के बहाने टी आर पी बढ़ाने की प्रवृत्ति बिकने की प्रवृत्ति ही है। आसाम के एक न्यूज़ चैनल के मालिक ने एक महिला के साथ हुई छेड़छाड़ की निंदनीय घटना को टी आर पी बढ़ाने के लिए शह देकर ख़बर के तौर पर प्रायोजित किया था। क्या यह मीडिया के अपराधीकरण को नहीं दर्शाता है? आगे सवाल यह उठता है कि क्या बाज़ार की गोद में बैठ कर ई पत्रकारिता सच की वाहक बन पाएगी। लेखक के अनुसार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जवाबदेही को इस हद तक नज़रअंदाज़ किया जाने लगा है कि ख़बरें उत्सर्जित की जाने लगी हैं। यह स्थिति राष्ट्र, समाज और ख़बर के चरित्र के साथ खिलवाड़ है। हिंदी व क्षेत्रीय प्रिंट मीडिया के बारे में लेखक का मानना है कि जैसे-जैसे इन अख़बारों के संस्करण, प्रसार संख्या और पाठक संख्या में वृद्धि हो रही है वैसे-वैसे इनके पन्ने अंग्रेज़ी अख़बारों के अनुवादों से भरे जाने लगे हैं। चिंता का विषय यह भी है कि मीडिया का एक हिस्सा न केवल अंधविश्वास से जुड़े विज्ञापन लगातार प्रचारित प्रसारित करता है बल्कि उनके ऊपर अपने ख़ास कार्यक्रम भी चलाता है। अख़बार उनपर परशिष्ट छापते हैं। अवैज्ञानिक, अतार्किक, अलौकिक एवं सचाई से परे अतीन्द्रिय शक्तियों का भ्रम कुछ समाचार व धार्मिक चैनल फैलाते हैं जो समाज में नकारात्मकता, अन्धविश्वास व अपराध का कारण बन रहा है। एक सभ्य समाज में यह प्रवृत्ति नितांत अनावश्यक है। विकीलीक्स द्वारा उजागर की वाली गोपनीय वैश्विक सूचनाएँ इस समय बौद्धिक समाज द्वारा स्वागत के योग्य मानी जा रही हैं। जिसने अमेरिका जैसे देशों की चौधराहट को भी चुनौती दे डाली है। बाज़ारवाद के दौर में एग्ज़िट पोल का धंधा भी खूब फलफूल रहा है जो सियासी अनैतिक हथकंडों को पनाह दे रहा है। इस तरह इस पुस्तक में सूचना से जुड़े हर पक्ष पर लेखक ने मुखर होकर अपने विचार रखे हैं। एक सजग पत्रकार होने के नाते प्रमोद भार्गव की ये चिंताएँ न केवल उचित हैं बल्कि मीडिया के परिष्कार की उनकी अभिलाषा को भी सामने रखती हैं। हमारे देश के मीडिया में सजग, संवेदनशील और चिंतनशील पत्रकारों एवं मीडियाकर्मियों की एक बड़ी संख्या है जो इस स्थिति से कदापि संतुष्ट नहीं हैं। वे इन स्थितियों में सकारात्मक और रचनात्मक बदलाव के पक्षधर हैं। कुछ हद तक सोशल मीडिया और वैकल्पिक प्रिंट मीडिया इसकी भरपाई कर भी रहे हैं। लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में इसकी शुरुआत होनी अपेक्षित है जो बेहद ज़रूरी भी है।
संपर्क :
34/242, सेक्टर -3, प्रताप नगर, जयपुर – 302033 (राजस्थान)
मो. 7838897877
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