रीढ़हीन
काव्य साहित्य | कविता शैलेन्द्र चौहान15 Dec 2023 (अंक: 243, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
रीढ़ की हड्डी का विलुप्त हो जाना
विशेषता है आज के समय के मनुष्य की
जैसी प्रकृति होती है प्राणियों की
शरीर उसी हिसाब से करता है अंगों का प्रबंधन
सिर आधा घूमना पर्याप्त होता है
धड़ के आधे घूमने से नहीं चलता काम इन दिनों
पूरा तीन सौ साठ डिग्री पर घूमना वक़्त की ज़रूरत है
जिधर हो दाता, जिधर मिल रहा हो दान
तुरत घूम जाए मुँह उस ओर
झुक जाए चरणों पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति से
यह व्यवहारिक प्रक्रिया है
संस्कार है, जेस्चर है
भूल से भी नहीं मुड़ता कोई अंग
स्वाभिमान के समक्ष
न किसी ऐसे व्यक्ति की ओर
हर रंग, हर गंध, स्पर्श, स्वाद, ध्वनि सभी इंद्रियों से
महसूस कर
लाभ का आनंद
हर प्रजाति से लेकर पराग कण
इतराते हुए शान से
भोग, उपभोग, यश और
आनंद की अपनी ही दुनिया में मस्त
रीढ़हीन लोगों का जनतंत्र है यह
सच बोलना अपराध
असहमत होना विद्रोह और प्रतिरोध करना राजद्रोह
इतना साहस कहाँ कर सकें रीढ़ का उपयोग
इसीलिए नहीं रही शरीर में रीढ़
नहीं थी उसकी उपयोगिता
निरर्थक थी वह
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