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एक यात्रा हरिपाल त्यागी के साथ

सन्‌ 1988 नवम्बर की एक हल्की खुनक भरी शाम मुरादाबाद में मेरे किराए के आवास में भाई वाचस्पति के साथ पधारे श्री माहेश्वर तिवारी,  मूलचंद गौतम और बल्ली सिंह चीमा।  साथ में एक और सज्जन जिन्हें मैं नहीं पहचानता था,  वाचस्पति ने परिचय दिया "ये हैं श्री हरिपाल त्यागी सुप्रसिद्ध चित्रकार।"  मैं गद्‍गद था,  पुलकित भी कि इतने साहित्यिक मित्रों का सत्संग मिला,  यह सुयोग ही था कि साथ में त्यागी जी भी हैं।  त्यागी जी के चित्र पत्र-पत्रिकाओं में मैं देख चुका था अत: उनके प्रति मन में गहरी उत्सुकता थी।  वाचस्पति मेरे काफ़ी पुराने मित्र थे, ’धरती’ के त्रिलोचन अंक के लिए न केवल स्वयं उन्होंने त्रिलोचन जी की एक पुस्तक पर समीक्षा की थी बल्कि उनकी सात अप्रकाशित कविताएँ भी भिजवाई थीं। 1983 में जब जयपुर में प्रलेस के राष्ट्रीय सम्मेलन में मैंने ’धरती’ का वह अंक रिलीज़ किया तब श्री वाचस्पति को वहाँ बाबा की सेवा में रत पाया था।  ’धरती’ के शील विशेषांक के प्रकाखन की योजना जब कानपुर के बाद मुरादाबाद में बनी तब मुखपृष्ठ के लिए शील जी का चित्र बनवाने के लिए भाई वाचस्पति ने त्यागी जी का नाम सुझाया था।  और आज त्यागी जी मुरादाबाद की मित्र मंडली के साथ सशरीर उपस्थित थे।  यह मेरे लिए बेहद प्रसन्न्ता की बात थी।  

श्री माहेश्वर तिवारी मेरे विदिशा के परिचित थे। तब मैं इन्जीनियरिंग में पढ़ता था और वे डिग्री कालेज में प्राध्यापक थे।  मुरादाबाद स्थान्तरण से पहले मैंने तिवारी जी को एक पत्र लिखा था कि मैं मुरादाबाद आ जाऊँ तो कैसा रहे? उनका जवाब बहुत ही आत्मीय और स्नेह से भरा हुआ था ’इस बंजर भूमि में अगर कोई मित्र आ जाए तो यह तो बहुत ही प्रसन्नता की बात है’।  भाई मूलचंद गौतम मुरादाबाद के पास ही एक क़स्बे चंदौसी में व्याख्याता थे और बल्ली सिंह चीमा बाजपुर के पास एक गाँव में रहते थे।  वाचस्पति उन दिनों खटीमा के एक कालेज में पढ़ाते थे।  
हम लोग कमरे में नीचे दरी बिछा कर आराम से बैठकर बातें करने लगे।  बातें ऐसी कि ख़त्म ही न हों,  साहित्य,  रंगमंच,  नाटक,  चित्रकला,  घुमक्कड़ी और कवि सम्मेलनों की।  माहेश्वर जी मंच और स्थानीय कवि मित्रों के बारे में अनुभव सुना रहे थे,  वाचस्पति बाबा नागार्जुन के क़िस्से रस ले-लेकर सुना रहे थे जिसमें माहेश्वर जी और त्यागी जी भरपूर मज़ेदार टिप्पणियाँ करते जा रहे थे।  बीच-बीच में त्यागी जी अपने चित्रों और चित्रकला की भी बातें कर जाते थे।  चित्रकला में मेरी सदैव एक रहस्यमय रुचि रही है।  मैं चित्र और चित्रकला वगैरह कुछ ज़्यादा समझता-अमझता नहीं हूँ पर न जाने क्यों कला दीर्घा देखने का अवसर मिलता है तो मैं उसे देखता अवश्य हूँ।  उसी तर्ज पर मुझे चित्रकारों में रहस्यपूर्ण रुचि है। जब भी कहीं कोई चित्रकार मुझे मिलता है तो मैं उससे चित्रकला के संबंध में बहुत सामान्य सी बातें जानने की उत्सुकता नही रोक पाता।  विदिशा में ही कई चित्रकारों से मित्रता थी और स्वर्गीय भाई समर्थ से मिलने तो तब मैं नागपुर भी आया था।  विदिशा में ’धरती’ के ग़ज़ल अंक का विमोचन स्वर्गीय भाई समर्थ ने ही किया था।  उनके बनाए चित्र तो मुझे ही नहीं सभी लघु पत्रिका सम्पादकों को सदैव उपलब्ध होते रहते थे।  त्यागी जी से भी मुझे ऐसी ही उम्मीद बनी थी कि वे धरती के ’शील’ विशेषांक हेतु शील जी का चित्र अवश्य बनाएँगे। 

शाम जब अधिक गहराने लगी तो मुरादाबाद के कुछ स्थानीय मित्र भी इकट्ठे हो गए और हमारी यह संगोष्ठी एक छोटी सी कवि गोष्ठी में बदल गई।  माहेश्वर जी,  बल्ली सिंह चीमा जी और मैंने कविताएँ सुनाईं।  दो-एक स्थानीय कवि मित्रों ने भी कविताएँ सुनाईं।  कविताएँ सुनते-सुनते जब रात अधिक हो गई तब स्थानीय मित्र चले गए और हम पाँच लोग भोजन करके वहीं दरी पर पसर गए।  माहेश्वर जी चूँकि स्थानीय थे अत: वे भी चले गए थे।  मैं यद्यपि नीचे सोने वाली इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं था और संकोच से घिरा था लेकिन त्यागी जी ने बहुत ही आत्मीयता और अधिकार पूर्वक कहा ’इसमें क्या है,  हम सब नीचे ही सोएँगे इसलिए इस बारे में कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं है। ’ लाइट बंद करके हम लोग लेट तो गए लेकिन बातों का सिलसिला थमता ही नहीं था।  कोई न कोई बात चल निकलती और अंतत: हँसी में परिवर्तित हो जाती।  त्यागी जी चित्रकला के साथ-साथ हास्यकला के भी एक्सपर्ट थे।  वे कोई न कोई हँसने वाली बात छेड़ते और हम सब कहकहे लगाते।  कब बारह से एक बजा,  कब दो,  कब तीन और कब हम लोग एक-एक कर सो गए पता ही नहीं चला।  रात में ही यह कार्यक्रम भी तय हो गया था कि हम पाँचों और माहेश्वर जी सब मिलकर सुबह जिम कार्बेट पार्क जाएँगे।  सुझाव मेरा ही था लेकिन सब उससे सहमत थे।  वाचस्पति जी काशीपुर में कई वर्षों तक रह चुके थे अत: उनका वह इलाक़ा पूरी तरह परिचित था।  बल्ली सिंह तो थे ही उस इलाक़े के और त्यागी जी वाचस्पति के साथ वहाँ पहले भी आ चुके थे।  माहेश्वर जी और मूलचंद गौतम भी वहाँ से अपरिचित नहीं थे।  मैं भी, हालाँकि मुझे मुरादाबाद आए हुए कोई चार पाँच महीने ही हुए थे लेकिन इस बीच दो बार रामनगर हो आया था।  मुझे वह भू-भाग बहुत पसंद था।  खासतौर से रामनगर के ऊपर का वह भाग जहाँ से कोसी नदी पहाड़ से नीचे को बहती एकदम साफ दिखाई देती थी।  सुबह दैनिक कर्म से निवृत हो तथा स्नानादि के उपरांत नाश्ता किया गया।  चूँकि मैं और मेरी पत्नी मध्य प्रदेश में पले बढ़े हैं अत: हमारे यहाँ सुबह-सुबह अक्सर पोहे (चिवड़ा) का नाश्ता बनता था।  मध्यप्रदेश में ख़ासतौर से इन्दौर के पोहे और नमकीन बहुत प्रसिद्ध हैं,  महाराष्ट्र में भी बटाटा-पोहा बहुत चाव से खाया जाता है अत: उस दिन भी पोहा ही बना था।  यद्यपि चारों साथियों के लिए नमकीन पोहे का नाश्ता नया ही था पर त्यागी जी इस पोहे के नाश्ते से इतने चमत्कृत थे कि उसकी बहुत गहरी तारीफ़ कर रहे थे।  बनाने की विधि और उसके प्रभाव क्षेत्र की पूरी जानकारी भी उन्होंने कई बार प्राप्त की।  यहाँ तक कि उसके बाद जब भी त्यागी जी मिले तो उस पोहे के नाश्ते के बारे में बताना नहीं भूले।  त्यागी जी की यह सहजता उनके व्यक्तित्व का अटूट हिस्सा है।  

हम नाश्ता कर उठे ही थे कि माहेश्वर जी आ गए।  थोड़ी देर बाद हम लोग रामनगर के लिए जीप से रवाना हो लिए।  जीप चलती रही,  बातें भी चलती रहीं,  कभी मुरादाबाद की,  कभी दिल्ली की और वरिष्ठ साहित्यकारों की,  कलाकारों,  चित्रकारों की,  विशेषकर बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन की।  अक्सर दोनों बुजुर्ग साहित्यकार वाचस्पति जी के यहाँ महीनों ठहरते रहे थे अत: उनके पास उनकी बातों का अथाह भंडार था।  कभी-कभी बाबा के साथ त्यागी जी भी वाचस्पति के यहाँ ठहरे थे सो उनके पास भी ढेरों स्मृतियाँ थीं।  काशीपुर से रामनगर तक का रास्ता बहुत मनोरम था।  घने लम्बे सघन वृक्ष,  ज्यादा आवागमन नहीं और सुदूर दिखती हिमालय की गिरि-शृंखला,  बहुत ही रोमांचक अनुभव है।  यह रास्ता मुझे बहुतप्रिय है न चिमनी,  न धुँआ,  न भागम-भाग,  न गंदगी।  सब कुछ एकदम स्वच्छ,  निर्मल,  स्वाभाविक,  प्राकृतिक।  रामनगर जाने के लिए यह आकर्षण भी मेरे लिए बहुत गहरा था।  थोड़ी देर में हम लोग रामनगर पहुँच गए।  भाई वाचस्पति के एक मित्र वहाँ रेलवे में पार्सल क्लर्क थे श्री हरनाम सिंह।  वाचस्पति जी मुझे उनसे मिलाना चाहते थे।  उन्हें ’ढते हुए हम रेलवे स्टेखन पहुँचे और उन्हें अपने साथ लेकर जिम कार्बेट के लिए रवाना हुए।  रामनगर के ऊपरी हिस्से में पहुँच कर कुछ और मित्रों से हमने भेंट की और एक मित्र के यहाँ कुछ हल्का भोजन करके रामनगर के ऊपरी हिस्से से कोसी नदी की ओर चल दिए।  कल-कल बहती कोसी नदी,  इकमंजिला छोटे-छोटे मकान,  कोसी के दूसरे छोर पर हरे भरे वन,  बहुत न्यारी प्राकृतिक सुषमा थी। 
 
मुझे वहाँ पहुँच कर लगा कि त्यागी जी कुछ चुप-चुप हैं संभवत: उनके अंदर का कलाकार प्रकृति की इस सुषमा से तादात्म्य स्थापित कर रहा था।  वहाँ से हम लोग और ऊपर की तरफ़ बढ़े,  जिम कार्बेट नेशनल पार्क के किनारे-किनारे यह रास्ता बागों की रानी कहे जाने वाले सुंदर क़स्बे रानीखेत तक जाता है।  एक तरफ़ जिम कार्बेट पार्क,  दूसरी ओर कोसी नदी,  शेखर जोशी की कहानी ’कोसी का घटवार’ की याद दिलाती हुई।  अद्‍भुत प्राकृतिक सौंदर्य का राज था वहाँ।  शाम ढलने लगी थी,  हवा में हल्की सिहरन व्याप्त हो गई थी।  हम लोग गर्जिया पहुँच चुके थे।  गर्जिया से थोड़ा ही आगे कोसी नदी के ठीक बीचों बीच एक सुंदर सा मंदिर है।  यह मंदिर नदी के बीच में एक द्वीप जैसी जगह पर बना है।  मुख्य किनारे पर पुजारी रहते हैं और वहाँ ठहरने के लिए कुछ कमरे भी हैं।  इस मंदिर तक जाने के लिए एक छोटा सा लोहे का पतला पुल भी है जिसे झूला कहा जाना ही ज्यादा उचित होगा।  इस झूले से हम लोग मंदिर तक पहुँचे।  छोटा सा मंदिर और उसकी ऊँची चोटी।  सीढ़ियों से हम मंदिर तक ऊपर चढ़े।  वहाँ पहुँच कर सभी इस वन-प्रांतर को देखकर मंत्रमुग्ध थे।  गहरा आकर्षण था उस जगह का,  बहुत देर तक हम वहाँ रहे।  मेरा तो मन ही नहीं कर रहा था उस रात वहाँ से लौटने का पर मन मारकर लौटा।  त्यागी जी और मूलचंद गौतम मुझ पर टिप्पणी करते रहे ’शैलेन्द्र तो काम से गए,  न तो इस वक़्त ये इन्जीनियर हैं न ही दुनिया जहान से इन्हें कोई लेना-देना है।  ये तो बस कवि हैं,  प्रकृति प्रेमी हैं,  लगता है अब वैराग्य भी हो गया है इन्हें।  दरअसल मुझे बचपन से ही लगता रहा है कि मैं बहुत अधिक अनुरागी हूँ।  जिससे,  जिस जगह से मुझे अनुराग हो जाता है तो वह व्यक्ति और वह जगह मैं न कभी छोड़ना चाहता हूँ न ही भूलना।  हाँ अब तक इतना व्यवहारिक तो हो ही गया हूँ और समझ में भी आ गया है कि जगहें और व्यक्ति छुट तो जाते ही हैं पर मैं उन्हें भूल तो नहीं ही पाता कभी।  

मंदिर से लौटकर पुजारी को तलाशा परंतु वह नहीं मिला हाँ एक लड़का अवश्य था वहाँ जिसकी चाय की दुकान थी।  हमने चाय पीनी चाही तो उसने दूध ख़त्म हो जाने की बात कही।  तब हमने उससे काली चाय बनाने को कहा तो उसने बताया कि एक नीबू है वह चाय में डालने से चलेगा।  हम सब ने एक स्वर में कहा कि हाँ ज़रूर चलेगा।  चाय पीकर हम लोग वहाँ से चल दिए।  हमने जीप से और आगे बढ़ने का सोचा मगर एक जगह इन्ंजन बहुत गरम हो गया और फिर ड्रायवर ने बताया कि डीज़ल भी कम है गाड़ी में इसलिए हम वापस लौट लिए।  मैं देख रहा था त्यागी जी हर स्थिति में सहज निर्णय ले लेते थे।  जैसे कि जीप में परेशानी होने पर उन्होंने कहा ’अब लौट चलना ही ठीक है। ’ रामनगर में डीज़ल मिल गया पर अब रात में वापस पहाड़ पर चढ़ना आवश्यकता से अधिक कौतुक पूर्ण लगा इसलिए हम काशीपुर लौट लिए।  काशीपुर से त्यागी जी और वाचस्पति खटीमा जाने के लिए अलग हो गए।  बल्ली सिंह चीमा भी वहीं रुक गए।  त्यागी जी ने काशीपुर से अलग होते समय शील जी का चित्र बनाकर भेजने का पूरा आश्वासन दिया।  मुझे अच्छा लग रहा था कि इस बार कम से कम एक चित्रकार द्वारा बनाया गया शील जी जैसे जनकवि का चित्र ’धरती’ के मुखपृष्ठ पर छप सकेगा।  धीरे-धीरे समय बीतता रहा।  मैं वाचस्पति को पत्र लिखता रहा कि त्यागी जी ने वायदा किया है ’धरती’ के लिए शील जी का चित्र बनाने का।  वाचस्पति जवाब भी देते रहे कि त्यागी जी ने पुन: आश्वासन दिया है कि वे भेजेंगे चित्र लेकिन मुझे चित्र न मिल सका और मैं मुरादाबाद से स्थानांतरित होकर कोटा पहुँच गया।  कोटा से ’धरती’ का शील विशेषांक प्रकाशित हुआ।  शील जी के कुछ छायाचित्र मेरे पास थे,  उन्हीं में से एक का उपयोग कर लिया।  ’धरती’ के शील विशेषांक प्रकाशित होने के क़रीब वर्ष भर बाद मुझे भरतपुर के भाई राजाराम भादू मिले।  उन्होंने मुझे सूचना दी कि त्यागी जी मिले थे और कह रहे थे ’मैंने शैलेन्द्र के लिए शील जी का चित्र बनाया है और मैंने उसे किसी को दिया भी नहीं है।  शैलेन्द्र से कहना कि मैं तो उनसे चित्र के पैसे वसूल लूँगा।’ दरअसल त्यागी जी के पास मेरा कोटा का पता नहीं था अत: मुझे चित्र नहीं भिजवा सके।  जब ’धरती’ का शील अंक प्रकाशित हो चुका था तब राजराम भादू से उन्हें मेरा पता मिला।  वह चित्र मैंने नहीं देखा,  त्यागी जी ने भी उसे कहीं नहीं दिया था इस वर्ष तक जब तक उनसे मेरी पुन: मुलाकात फरीदाबाद और दिल्ली में नहीं हो गई।  फिर अचानक एक दिन श्री रामकुमार कृषक ने ’अलाव’ का शील विशेषांक दिल्ली में जब मुझे दिया तो उसके मुखपृष्ठ पर त्यागी जी का 89 में बनाया गया शील जी का चित्र देखकर मैंने तुरंत कृषक जी से कहा ’यह चित्र त्यागी जी ने ’धरती’ के लिए बनाया था पर ’अलाव’ के काम आया।’ यह सुखद ही था कि अलाव के महत्वपूर्ण शील विशेषांक पर शील जी का वह चित्र छप सका जो त्यागी जी ने मेरी आँखों से देखे गए शील जी का बनाया था।  

मैं तो मुरादाबाद और रामनगर के यात्रा प्रसंग काफ़ी हद तक विस्मृत ही कर चुका था पर भाई प्रकाश मनु के यहाँ त्यागी जी द्वारा याद दिलाए जाने पर उस घटना की स्मृति मन में सजीव हो उठी और प्रकाश मनु के ही उत्साहित  करने पर यह संस्मरण लिख पाना मेरे लिए संभव हो सका।  उसी दिन संयोग से त्यागी जी से पुन: श्री मनु के यहाँ भेंट हो गई और पुन: त्यागी जी ने जब मुरादाबाद में नाश्ते में खाए पोहे याद कर लिए तब मैंने उनसे इस पूरे प्रसंग की घटनाओं की गवाही चाही,  जो मैंने उसी दिन (फरीदाबाद- 14 नवम्बर 1997) कलमबद्ध की थी अत: इसे काफ़ी कुछ सही माना जाए।  वैसे तो यह लेख त्यागी जी पर प्रकाशित होने जा रही पुस्तक ’सुजन सखा हरिपाल’ के लिए डॉ. प्रकाश मनु ने लिखवाया था पर त्यागी जी ने न जाने क्यों इसे पंसंद नहीं किया।  
 

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