जनाब, हम भीख नहीं माँगते
संस्मरण | आप-बीती शैलेन्द्र चौहान21 Feb 2019
उस दिन मिश्रा जी के प्रति मैं पूरी तरह घृणा से भर गया था। वह 31 अक्टूबर 1984 का दिन था। दोपहर बाद कोई तीन बजे के लगभग मैं आगरा ऑफ़िस में था कि कानाफूसी होने लगी। किसी ने कहा "इंदिरा गांधी को मार दिया रेडियो पाकिस्तान से यह ख़बर सुनी है।" आधिकारिक रूप से तब तक यह घोषणा नहीं की गई थी। मैं बड़े पशोपेश में था। मुझे इस बात का क़तई अनुमान नहीं था कि अब आगे क्या होगा। हत्या हुई है तो जाँच होगी, अपराधियों को सज़ा मिलेगी। प्रधानमंत्री की हत्या कोई मामूली बात नहीं। परंतु वास्तव में जो होना था उसके बारे में मैं एक अज्ञानी व्यक्ति की तरह पूरी तरह अनभिज्ञ था। मिश्रा जी उन दिनों हमारे मैनेजर थे, वह इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड से डेपुटेशन पर आए हुए थे। उनकी अच्छी राजनीतिक पहुँच थी। देश के तत्कालीन केंद्रीय ऊर्जा राज्यमंत्री के कारण ही वह हमारे विभाग में मैनेजर बन सके थे। ज़ाहिर है राजनीतिक समझ भी उनकी अच्छी होनी थी। उन्हें इस बात का पूरा अंदाज़ था कि आगे क्या होने वाला है। सो उन्होंने इटावा में तैनात मिश्रा इंजीनियर की गाड़ी ली और कानपुर रवाना हो गए। मुझसे कह गए "तुम यहीं रहो, बाद में आना और होटल में ठहरने का हिसाब कर देना, मैं बाद में पैसे दे दूँगा"।
मैंने उनसे कहा कि "होटल का पेमेंट करने के बाद मेरे पास पैसे नहीं बचेंगे।" वह बोले- "आगरा ऑफ़िस से ऐडवांस ले लेना।" आगे बिना कोई बात सुने उन्होंने जीप स्टार्ट करने को कहा और तुरंत चल दिए।
उधर आगरा ऑफ़िस से मेरे ऐडवांस माँगने पर वहाँ के अकांउट्स अफ़सर ने पैसा देने से मना कर दिया। उसने बताया "चार बज गए हैं, कैश बंद हो चुका है।" मुझे उसकी इस बदत्तमीज़ी पर बहुत क्रोध आया परंतु दूसरे ऑफ़िस में मैं कुछ कर भी नहीं सकता था, अत: अन्य इंजीनियर साथियों से मैंने पैसे माँगे लेकिन सभी ने पैसे न होने का कोई न कोई बहाना बना दिया। अब कोई चारा नहीं था मैं सीधा होटल पहुँचा और वहाँ हिसाब चुकता करने के बाद मेरी जेब में मात्र बाईस रुपये पचास पैसे बचे। इतने कम पैसों में अब और होटल में रहा नहीं जा सकता था, जैसे भी हो वापस लौटना था। पैसे इतने कम बचे थे कि प्रथम श्रेणी तो दूर, द्वितीय श्रेणी में भी कानपुर तक पहुँचना मुश्किल था। सामान उठाकर बिजलीघर बस अड्डे पहुँचा, वहाँ से टूंडला की बस पकड़ ली। टूंडला पहुँच कर पैसेंजर ट्रेन का कानपुर का टिकट लिया। दूसरे दिन सुबह सात बजे कानपुर स्टेशन जा लगा।
एक नवंबर 1984। कानपुर सेंट्रल स्टेशन पर कुछ पुलिस और सेना के जवान दिखे। वहाँ पता चला, छुटपुट मारपीट की घटनाएँ ट्रेन के डब्बों में हो रही हैं। अब मैं शीघ्रातिशीघ्र घर पहुँचना चाहता था। घर पर मेरी पत्नी और दो छोटी बच्चियाँ थीं। मैं एक रिटायर्ड आर्मी जे.सी.ओ. बलविंदर सिंह के घर में, पनकी में किराए पर रहता था। मुझे बलविंदर सिंह की चिंता थी। मैं जल्द से जल्द वहाँ पहुँच कर उन्हें सावधान कर देना चाहता था। शहर में जो वारदातें हो रहीं थी, रास्ते में मैंने जो सुना, देखा था उससे उन्हें अवगत करा देना चाहता था।
कुछ पैदल, कुछ रिक्शा, कुछ बस, बमुश्किल मैं अपने घर पहुँच सका। घर के अंदर घुसते ही मैंने बलविंदर सिंह को आगाह किया कि वह अपनी सुरक्षा का कुछ बंदोबस्त करें। वह स्वयं भी पशोपेश में थे, उन्हें अधिक फ़साद की संभावना नहीं लग रही थी। सुबह ही वह गुरुद्वारा होकर लौटे थे और शायद फिर वह गुरुद्वारा जाना भी चाहते थे। परंतु शहरी स्थिति धीरे-धीरे विस्फोटक होती जा रही थी।
मेरे घर पहुँचने से पहले ही कुछ आवारा लड़के बलविंदर सिंह के यहाँ पत्थर फेंक कर गए थे। ऐसा मुझे पत्नी ने बताया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आगे क्या करूँ। हम अभी अनुमान ही लगा रहे थे कि देखते-देखते घर के आसपास दो-तीन सौ आवारा लोगों की भीड़ जुट चुकी थी। अधिकांशत: भीड़ में मोहल्ले एवं आसपास के उद्दण्ड और आवारा लड़के थे।
देखते ही देखते उन बदमाशों ने बड़े-बड़े पत्थर फेंकने शुरू कर दिए। बलविंदर उन्हें समझाने की कोशिश करने लगे- "हमारी क्या ग़लती है! किसी सिरफिरे का काम है यह। उसकी सज़ा हम सबको क्यों दे रहे हो!" उनकी बात न कोई सुन रहा था, न ही सुनना चाहता था। भीड़ गालियाँ बक रही थी और उन पर पत्थरों की बरसात कर रही थी। मैंने इस बीच अपनी पत्नी और बच्चों को, बलविंदर सिंह की पत्नी, बहू, लड़की सहित अपने वाले कमरे में बंद कर दिया और भीड़ को समझाने मैं भी बाहर आ गया। भीड़ मेरी तरफ मुख़ातिब हो गई। आवाज़ें आईं - "ये गद्दार है, इसे बाहर खींच कर निकालो।" कुछ पत्थर मेरी तरफ़ भी आने लगे। मुझे क्रोध आ रहा था परंतु मैंने संयम से काम लेना उचित समझा। मैंने पूछा, "आख़िर आप लोग चाहते क्या हैं?" तो लोग बोले, "ये घर छोड़ दो, हम इसमें आग लगाएँगे।"
"यह कैसे हो सकता है, ऐसे में मैं कहाँ जाऊँगा, मेरे बच्चे हैं, सामान है।"
भीड़ से आवाज़ आई - "तुम अपना सामान जल्दी से निकाल लो फिर हम इस घर में आग लगा देंगे।"
मैंने सोचा, इस वक़्त इन्हें टालने के लिए यह मान लेना ठीक है। तब तक कुछ और इंतज़ाम किया जाएगा।
"अच्छा, मुझे थोड़ा समय दो ताकि अपनी कुछ व्यवस्था कर सकूँ।" तब धीरे-धीरे भीड़ छँटने लगी। आधे घंटे का समय और धमकी देकर वे चले गए।
भीड़ हटते ही मैंने बलविंदर सिंह से कहा, "आप लोग यहाँ से कहीं चले जाइए वरना अनर्थ हो जाएगा। यह भीड़ हिंसक है, इससे निपटना आसान नहीं, स्थिति नाज़ुक है।" बलविंदर सिंह के सामने भी समस्या थी, जाएँ तो कहाँ जाएँ। उन्हें घर और सामान का भी मोह था। सो वह घर छोड़ने का मन नहीं बना पा रहे थे। उन्हें मोह ने जकड़ रखा था। मैंने समझाया, "ज़िंदगी हज़ार नियामत, ख़ुदा के वास्ते कुछ जल्दी सोचिए वरना आगे ख़ैर नहीं।" आख़िरकार यह तय हुआ कि महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित जगह पहुँचा दिया जाए फिर कुछ किया जाएगा। बलविंदर सिंह की एक जवान लड़की थी उन आवारा लौंडों की उस पर नजर थी। संयोग से उनकी बहू भी उन दिनों वहाँ आई हुई थी वह भी जवान और खूबसूरत थी सो उन आवारा लडकों की नजरों में एक शैतान मौजूद था। यह बात मैं भी समझ रहा था और मेरा मित्र भी पर बलविंदर सिंह न जाने क्यों अनजान बने हुए थे। जब मैने उनसे महिलाओं को सुरक्षित जगह पहुँचाने को कहा तो प्रश्न यह पैदा हुआ कि आख़िर कहाँ पहुँचाया जाए।
आख़िर मैंने उनके घर की महिलाओं को पास ही रह रहे एक पंजाबी परिवार के यहाँ पहुँचा दिया। अपनी पत्नी और बच्चों को पनकी पावरहाउस कॉलोनी में रह रहे एक सुपरवाइजर मित्र के यहाँ छोड़ दिया। अब एक बड़ी राहत थी। सुपरवाइजर मित्र को साथ लेकर मैं घर वापस आ गया। वह मित्र काफी दिनों से वहाँ रह रहे थे और उनके स्थानीय लोगों से अच्छे संबंध भी थे। अत: कुछ समझाने की गुंजाइश भी थी।
हम लोगों ने मिलकर एक बार फिर बलविंदर सिंह को समझाया कि "सामान और घर का मोह छोड़िए, अपनी जान बचाइए।"लड़की सहित अपने वाले कमरे में बंद कर दिया और भीड़ को समझाने मैं भी बाहर आ गया। भीड़ मेरी तरफ मुख़ातिब हो गई। आवाज़ें आईं - "ये गद्दार है, इसे बाहर खींच कर निकालो।" कुछ पत्थर मेरी तरफ भी आने लगे। मुझे क्रोध आ रहा था परंतु मैंने संयम से काम लेना उचित समझा। मैंने पूछा, "आख़िर आप लोग चाहते क्या हैं?" तो लोग बोले, "ये घर छोड़ दो, हम इसमें आग लगाएँगे।"
"यह कैसे हो सकता है, ऐसे में मैं कहाँ जाऊँगा, मेरे बच्चे हैं, सामान है।"
भीड़ से आवाज आई - "तुम अपना सामान जल्दी से निकाल लो फिर हम इस घर में आग लगा देंगे।"
मैंने सोचा, इस वक्त इन्हें टालने के लिए यह मान लेना ठीक है। तब तक कुछ और इंतज़ाम किया जाएगा।
"अच्छा, मुझे थोड़ा समय दो ताकि अपनी कुछ व्यवस्था कर सकूँ।" तब धीरे-धीरे भीड़ छँटने लगी। आधे घंटे का समय और धमकी देकर वे चले गए।
भीड़ हटते ही मैंने बलविंदर सिंह से कहा, "आप लोग यहाँ से कहीं चले जाइए वरना अनर्थ हो जाएगा। यह भीड़ हिंसक है, इससे निपटना आसान नहीं, स्थिति नाजुक है।" बलविंदर सिंह के सामने भी समस्या थी, जाएँ तो कहाँ जाएँ। उन्हें घर और सामान का भी मोह था। सो वह घर छोड़ने का मन नहीं बना पा रहे थे। उन्हें मोह ने जकड़ रखा था। मैंने समझाया, "ज़िंदगी हजार नियामत, खुदा के वास्ते कुछ जल्दी सोचिए वरना आगे खैर नहीं।" आख़िरकार यह तय हुआ कि महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित जगह पहुँचा दिया जाए फिर कुछ किया जाएगा। बलविंदर सिंह की एक जवान लड़की थी उन आवारा लौंडों की उस पर नज़र थी। संयोग से उनकी बहू भी उन दिनों वहाँ आई हुई थी वह भी जवान और ख़ूबसूरत थी सो उन आवारा लडकों की नज़रों में एक शैतान मौजूद था। यह बात मैं भी समझ रहा था और मेरा मित्र भी पर बलविंदर सिंह न जाने क्यों अनजान बने हुए थे। जब मैने उनसे महिलाओं को सुरक्षित जगह पहुँचाने को कहा तो प्रश्न यह पैदा हुआ कि आख़िर कहाँ पहुँचाया जाए?
आख़िर मैंने उनके घर की महिलाओं को पास ही रह रहे एक पंजाबी परिवार के यहाँ पहुँचा दिया। अपनी पत्नी और बच्चों को पनकी पावरहाउस कॉलोनी में रह रहे एक सुपरवाइज़र मित्र के यहाँ छोड़ दिया। अब एक बड़ी राहत थी। सुपरवाइज़र मित्र को साथ लेकर मैं घर वापस आ गया। वह मित्र काफ़ी दिनों से वहाँ रह रहे थे और उनके स्थानीय लोगों से अच्छे संबंध भी थे। अत: कुछ समझाने की गुंजाइश भी थी।
हम लोगों ने मिलकर एक बार फिर बलविंदर सिंह को समझाया कि "सामान और घर का मोह छोड़िए, अपनी जान बचाइए।" सामान छोड़ कर जाने की बात पर हम लोग ज़्यादा ज़ोर भी नहीं दे पा रहे थे। हमें लग रहा था, कहीं इस बात को बलविंदर सिंह अन्यथा न ले लें। आख़िर को हम दूसरे संप्रदाय के थे। बलविंदर सिंह सब सुन कर चुप थे, वह वहाँ से नहीं गए। भीड़ पुन: जुट गई। हम लोग भीड़ को फिर समझाने की कोशिश करने लगे। मेरे मित्र ने सावधानी बरतते हुए अपना हिंदू कार्ड भी चलाया। इसका भी कोई फ़ायदा नहीं निकला। तभी भीड़ से कुछ लोगों ने दरवाज़े खिड़कियाँ तोड़ने शुरू कर दिए। वे अब बड़े-बड़े पत्थर भी फेंक रहे थे और "इंदिरा गांधी ज़िंदाबाद" के नारे चीख-चीख कर लगा रहे थे। पत्थरों की मार से बलविंदर की कमीज़ फट गई थी और उनकी बाजुओं से खून बह रहा था। फिर भी वह उन शैतानों से याचना कर रहे थे और अपने निर्दोष होने की दुहाई दे रहे थे पर उस भीड़ की क्रूरता में कोई कमी नहीं थी। हम नि:सहाय यह देख रहे थे।
बहुत पत्थर खा चुकने के बाद बलविंदर सिंह अपना स्कूटर पकड़ कर भागे। आवारा लौंडों ने उन्हें पकड़ लिया और हाथों से उनकी पिटाई करनी शुरू कर दी एवं स्कूटर छुड़ा कर उसमें आग लगा दी। जैसे-तैसे हमने बलविंदर सिंह को छुड़ाया और वह फिर भागे। कुछ ने उनका पीछा भी किया पर वह किसी तरह निकल ही गए। एक-दो लोग जो तब भी पीछा कर रहे थे उनके सामने बलविंदर सिंह ने दो दो रुपये की गड्डियाँ फेक दी थीं सो वे वहीं रुक गए थे। इस बीच स्कूटर के चक्कर में हमारे पड़ोसी की भी जमकर पिटाई हुई जो उस समय बलविंदर सिंह की मदद करने पहुँचे थे हम लोग तो पत्थर खा ही चुके थे और गद्दार करार दिए जा चुके थे।
धीरे-धीरे भीड़ ने बलविंदर सिंह का सामान लूटना शुरू कर दिया। हर कोई कुछ न कुछ लेकर भाग रहा था। मुझे यह देख कर भारी आश्चर्य हो रहा था कि इन दुबले-पतले आवारा लौंडों में इतनी ताक़त कहाँ से आ गई। कोई अकेला सोफा लिए जा रहा था, कोई टी.वी.। एक लौंडा फ्रिज उठाकर सरपट भागे चला जा रहा था। एक और आदमी बड़ा सा बक्सा सर पर लादे अकेला दौड़ा जा रहा था। आश्चर्य, सामान्य वक़्त में इतना बड़ा सामान दो-तीन आदमी भी उठाने में आनाकानी करते पर वह एक बंदा कितनी आसानी से उठा कर भाग रहा था। जिसके हाथ जो आया, वह ले भागा। लग रहा था एक के पीछे एक कुली दौड़ते चले जा रहे हैं, हड़बड़ी इतनी कि कहीं ट्रेन न छूट जाए। हर किसी की कोशिश ज़्यादा से ज़्यादा सामान समेटने की थी। कुछ चीज़ों के लिए छीना-झपटी, कहासुनी भी हो रही थी। देखते-देखते बलविंदर सिंह का घर साफ हो गया। बड़ा अजीब नज़ारा था। कुछ देर पहले तक जो घर भरा-भरा था, अब उजड़ा खँडहर नज़र आ रहा था। मैं अपनी असमर्थता, ग्लानि, क्रोध और क्षोभ से अंदर तक हिल गया था।
बलविंदर सिंह के सामान के बाद अब मेरे सामान पर भीड़ की नज़र थी। अफरा-तफरी में पहले ही मेरा भी कुछ सामान उठ चुका था पर बाक़ी सामान अब मैं बचा लेना चाहता था। बलविंदर सिंह की तरफ़ वाले दरवाज़े टूट चुके थे। टूटी हुई चौखटों में भीड़ आग लगा रही थी। उनकी गिद्ध दृष्टि अब मेरे सामान पर टिकी थी। उस वक़्त वे केवल लुटेरे थे यह हमारी समझ में अच्छी तरह आ गया था। वे उस वक़्त न हिंदू थे, न सिख, न ईसाई, न मुसलमान। फिर लूटपाट के ऐसे मौक़े रोज़ तो मिलते नहीं इसीलिए मौक़े का पूरा फ़ायदा उठा लेना चाहते थे। अब उनके लिए मुझमें व बलविंदर सिंह में कोई फ़र्क नहीं था। मेरे सामान को लूटना भी उन्हें अपना हक़ लग रहा था। इंदिरा गांधी की हत्या से लूटने का उन्हें सुनहरा अवसर मिल गया था।
मैंने अपना सामान मित्र तथा उस पड़ोसी की मदद से उसी के घर रखना शुरू कर दिया जो थोड़ी देर पहले ही पिटा था पर इस वक़्त मदद को तत्पर था। भीड़ का अधिकांश भाग लूटमार पूरी करके खिसक चुका था। दो चार लौंडे बचे थे, वे इस ज़िद पर अड़े थे कि मेरा वाला हिस्सा भी तोड़-फोड़ कर आग के सुपुर्द कर दिया जाए। अत: उन्होंने भी मेरा सामान पड़ोसी के यहाँ पहुँचाने में सहायता करनी शुरू की। इस बीच छोटे-मोटे सामान पर मौक़ा देख हाथ भी साफ़ कर दिया। यद्यपि इस हादसे के पहले हम पुलिस चौकी गए थे मदद लेने के लिए, पर वहाँ कोई पुलिस वाला उस समय नहीं था। हादसे के बाद हम थाने गए। थाने वालों ने कहा, "हम क्या कर सकते हैं! हमारे पास इतने आदमी नहीं हैं कि सबकी मदद कर सकें।" असमर्थता जताने के बाद वे बेफ़िक्र हो गए। हम मुँह लटकाए वापस लौट आए।
पहली और दूसरी तारीख़ तक वह सब चलता रहा जो भयानक, वीभत्स और बर्बरता की हद तक अभद्र था। आग, लूटमार, क़त्ल। भले लोगों ने इस बीच घर से बाहर न निकलने में ही ख़ैर समझी। पर बेचारे सिख क्या करते, वे तो घर-बाहर कहीं भी सुरक्षित नहीं थे। सैकड़ों लोगों को गाजर मूली की तरह काट दिया गया, ज़िंदा जला दिया गया। हज़ारों परिवारों को तहस-नहस कर दिया गया। जाने कितने बच्चे अनाथ और औरतें विधवा हुईं। पूरी एक कौम को भय के साये में जीने के लिए मजबूर कर दिया गया। तभी फिर आया नए प्रधानमंत्री का वह बयान, "जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास के छोटे-मोटे पेड़ टूटते ही हैं", जिसने उनके घावों पर नमक छिड़कने का ही काम किया। आतंकवाद का वह एक दशक पंजाब और भारत के लिए अब इतिहास है पर उसके कारणों में जाने बिना क्या आगे कश्मीर और बाक़ी आतंकवाद को मिटाना संभव है?
इस घटना के पाँच दिन बाद बलविंदर सिंह और उनकी पत्नी मुझे पनकी के घर के पास वाले रेलवे क्रॉसिंग पर मिले। सांत्वना व्यक्त करने को मेरे पास शब्द नहीं थे। मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि बलविंदर सिंह और उनका परिवार सुरक्षित था वे लोग एक कैंप में थे। मैंने कहा, "मेरे लायक़ कोई सेवा हो तो अपना समझकर कहें।" मैं पैसों से उनकी सहायता करना चाहता था। मैं अपने आप को भी उनका अपराधी महसूस कर रहा था। बलविंदर सिंह का जवाब था- "नहीं सिंह साहब, हमारे हाथ-पैर सलामत हैं, हम भीख नहीं माँगते।"
मैंने सफ़ाई दी, "नहीं यह भीख नहीं, परेशानी के समय में मदद है, आप जब समर्थ हों वापस कर दें।"
बलविंदर सिंह ने मेरी मदद स्वीकार नहीं की। इतने कठिन समय में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, न ही उनका आत्मविश्वास डिगा था। उनकी ख़ुद्दारी तारीफ़ के क़ाबिल थी। उनकी पत्नी इस वार्तालाप से अप्रभावित दूसरी तरफ मुँह किए खड़ी थीं। उन्होंने मेरी तरफ़ देखना भी मुनासिब नहीं समझा। शायद मेरे लिए उनके मन में बेइंतहा घृणा थी। आख़िर क्यों न होती ? उनकी उस वक़्त की भंगिमा को याद कर मैं आज भी सिहर जाता हूँ और मेरा मन ग्लानि से भर जाता है।
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