सामाजिक यथार्थ के अनूठे व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई
आलेख | साहित्यिक आलेख शैलेन्द्र चौहान1 Sep 2023 (अंक: 236, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
हरिशंकर परसाई हिंदी के पहले रचनाकार थे, जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को हरिशंकर परसाई ने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा-शैली में एक ख़ास प्रकार का अपनापन नज़र आता है।
हिंदी साहित्य व्यंग्य के तेवर से तो बहुत पहले लैस हो चुका था पर इसे विधात्मक मंज़ूरी मिलने में समय लगा। व्यंग्य आज हिंदी गद्य की अहम विधा है तो इसका ऐतिहासिक श्रेय हरिशंकर परसाई को जाता है। स्वाधीनता के बाद के भारतीय समाज और सार्वजनिक जीवन के विरोधाभासों और स्फीतियों को लेकर जितनी बातें परसाई ने कही हैं, उतनी शायद ही किसी और ने कही हों। परसाई प्रगतिशील जीवन मूल्यों के प्रति सचेत थे। उन्होंने एक तरफ़ जहाँ जीवन और समाज में व्याप्त पाखंड को लेकर करारा व्यंग्य किया, तो वहीं आज़ादी के बाद विकास और आधुनिकता के बने नए साझे के बीच जगह बनाते भ्रष्टाचार को उन्होंने एक बड़े ख़तरे के तौर पर रेखांकित किया। यह भी कि प्रेमचंद की तरह परसाई को भी यह यश प्राप्त है कि उन्होंने हिंदी साहित्य की न सिर्फ़ गरिमा बल्कि उसकी लोकप्रियता भी बहाल रखी। उनकी यह रचनात्मक सफलता हर लिहाज़ से असाधारण है।
परसाई का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के जमानी गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। आगे चलकर उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया। कुछ सालों तक अध्यापन करने के बाद 1947 से वे लेखन में जुट गए। उन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली। वे अपने सामने एक तरफ़ स्वाधीन भारत की विकासयात्रा को देख रहे थे, वहीं राजनीति और समाज के उस नैतिक पराभाव से भी वे वाक़िफ़ हो रहे थे जो स्वाधीनता पूर्व की उम्मीदों के उलट था और एक नए ख़तरे के तौर पर सामने आ रहा था। इन ख़तरों के बीच भारतीय मध्यवर्ग की वह बनावट भी सामने आ रही थी, जिसमें संयम और त्याग की नैतिकता पर पाखंड और स्वार्थ से भरा जीवन आचारण भारी पड़ रहा था। इन स्थितियों को देखते-समझते हुए परसाई ने लेखन के लिए व्यंग्य की विधा को चुना। उन्हें लगा कि सम-सामयिक जीवन की व्याख्या, उसके विश्लेषण, उसकी भर्त्सना और विडंबना को सामने लाने के लिए व्यंग्य से कारगर दूसरा कोई औज़ार नहीं हो सकता। देश और समाज की दुरावस्था पर व्यंग्यात्मक चोट करने वाले परसाई ने ख़ुद को भी नहीं बख्शा। दरअसल, आजीवन अविवाहित रहकर पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को पूरा करने वाले परसाई के लेखन की बड़ी ताक़त वह पारदर्शी मानक है, जो सबके लिए समान है। वह अपनी आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ में लिखते हैं, “साल 1936 या 37 होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। क़स्बे में प्लेग फैला था . . . रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते थे। कभी-कभी, गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेती और हम भी रोने लगते। फिर ऐसे ही भयकारी त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गई। पाँच भाई-बहनों में मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था।”
परसाई कहते थे, “गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता। इसलिए गर्दिश नियति है।”
कम उम्र में ही परसाई जी ने अपनी माँ को खो दिया। इसके बाद, पिता की भी एक लाइलाज बीमारी से मौत हो गई। ऐसे में चार छोटे भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी परसाई के कंधों पर आ गई। आर्थिक अभावों का सामना करते हुए, उन्होंने अविवाहित रहकर किसी तरह अपने परिवार को सँभाला।
परसाई के जीवन की यह त्रासदी रही कि आर्थिक परेशानी से वे आजीवन जूझते रहे। इस अभाव ने जहाँ उन्हें कई तरह की परेशानियों में डाला, वहीं उनके भीतर एक ऐसा जीवन संस्कार भी आकार लेता गया, जो यथार्थ से निर्भीक मुठभेड़ की प्रेरणा देता है। जीवन के तमाम संघर्षों के बीच, परसाई ने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. पूरा किया और पढ़ाने का काम शुरू किया। कुछ साल तक पढ़ाने के बाद, उन्होंने सन् 1947 में विद्यालय की नौकरी छोड़ दी। इसके बाद, उन्हें शाजापुर में एक कॉलेज के प्रिंसिपल बनने का भी प्रस्ताव आया, पर उन्होंने इसे ठुकरा दिया। ये सब छोड़कर परसाई ने जबलपुर में स्वतंत्र लेखन करने का फ़ैसला किया और यहीं से उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’ का प्रकाशन और संपादन शुरू किया।
व्यंग्य संग्रह ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित परसाई का रचना संसार विपुल है। एक तरफ़ उनके प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रह हैं, तो दूसरी तरफ़ लेख और कहानी संग्रह के साथ उपन्यास भी। इतने व्यापक और विविधतापूर्ण लेखन के बावजूद व्यंग्य न सिर्फ़ उनकी रचनात्मक धुरी है, बल्कि यही उनकी सबसे बड़ी रचनात्मक ताक़त है। दरअसल, परसाई व्यक्ति और व्यक्तिनिर्मित कला की सामाजिक सोद्देश्यता के पक्षधर हैं। वे कहते हैं, “मनुष्य की छटपटाहट है मुक्ति के लिए, सुख के लिए, न्याय के लिए। पर यह बड़ी लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती है। अकेले वही सुखी है, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी।” अपने लेखन के इसी मक़सद और कसौटी के कारण परसाई अपने अक्षर सृजन के साथ आज भी प्रगतिशील जीवनमूल्यों के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की प्रेरणा हैं।
परसाई ने सड़क किनारे पन्नी खाती गाय देखी, मगर हमारी आपकी तरह उसे अनदेखा नहीं किया बल्कि उसपर लिखा। तब की सड़कों पर घूमती गाय की स्थिति पर परसाई ने कहा था कि, “विदेशों में जिस गाय का दूध बच्चों को पुष्ट कराने के काम आता है, वही गाय भारत में दंगा कराने के काम में आती है।” इस कथन की सच्चाई आज भी क़ायम है। इस कथन को बार-बार पढ़िये, दोहरा-दोहरा के पढ़िये पता चलेगा कि देश में गाय को लेकर तब भी ऐसे ही राजनीति होती थी, जैसी आज हो रही है। गाय पर हो रही राजनीति पर तब परसाई ने लिखा था, “इस देश में गौरक्षा का जुलूस सात लाख का होता है, मनुष्य रक्षा का मुश्किल से एक लाख का।” उन्होंने ये भी लिखा कि, “अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तो गौरक्षा आंदोलन का नेता जूतों की दुकान खोल लेता है”। आज के वक़्त में तब के परसाई के इस व्यंग्य को समझिये तो मिलेगा कि तब के परसाई भारतीय समाज के अरस्तु थे। शायद परसाई तब ही ये देख चुके थे कि आने वाले समय में भारत की दशा क्या और कैसी होगी। परसाई के व्यक्तित्व को देखें तो मिलता है कि वो एक ऐसे पेंटर थे जिसने हमेशा पेंटिंग के लिए बड़े कैनवस का इस्तेमाल किया। हिन्दी के तमाम साहित्यकारों और लेखकों में ये गुण केवल परसाई के पास था। केवल वही भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य को देख पाए और उसे हू-ब-हू हमारे सामने पेश किया।
आज हमारा समाज तमाम तरह के पाखंड और दक़ियानूसी बातों से भरा पड़ा है। समाज के ऐसे पाखंडियों पर परसाई ने अपनी स्थिति पूरी तरह साफ़ कर दी थी। परसाई ने कहा था कि “मानवीयता उन पर रम की किक की तरह चढ़ती है। उन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं।” परसाई भारत के प्रत्येक नागरिक को अद्भुत सहनशीलता और भयानक तटस्थता का प्रतीक मानते थे। अपनी कई रचनाओं में परसाई ने ये बात मानी थी कि इस देश में आप आदमी ने जन्म ही केवल शोषण करने और शोषण सहने के लिए लिया है। हाल के दिनों में लोगों को धर्म के नाम पर भीड़ द्वारा मारा जा रहा है। इस पर भी परसाई की अपनी राय थी। परसाई ने कहा था कि “दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ ख़तरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी ख़तरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।”
परसाई को पढ़ते हुए महसूस होता है कि वो तब जिन मुद्दों पर लिख रहे थे, आज भी हम उन्हीं मुद्दों से घिरे हैं और लगातार उन्हीं मुद्दों के दलदल में और अन्दर तक धँसते चले जा रहे हैं। परसाई को पढ़ते हुए हमारे सामने कुछ स्वाभाविक प्रश्न उठते हैं जो हमारे भूत, हमारे वर्तमान और हमारे भविष्य से अभिन्न रूप से जुड़े हैं।
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