एक पर्यटक का साहित्य साहचर्य
संस्मरण | यात्रा-संस्मरण शैलेन्द्र चौहान1 Mar 2024 (अंक: 248, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
कल सोचा था कि कवि मित्र महेश पुनेठा की कुछ कविताओं का ज़िक्र करूँ जो मुझे अच्छी लगीं। पर भटक गया और क्षीण स्मृति का ज़िक्र करने बैठ गया।
दरअसल सन् 2014 में जून के महीने में कार्यालयीन दौरे पर पिथौरागढ़ जाना था। यह दौरा कुछ इस तरह बनाया गया था कि यह आधा कार्यालयीन और आधा निजी रहे। अपने निजी भाग का ख़र्च मैं वहन करूँ। इसलिए उस दौरान दो दिन की छुट्टी स्वीकृत करा ली और पिथौरागढ़ सीधे न जाकर वाया नैनीताल एवं कौसानी होकर जाने का कार्यक्रम तय हुआ। मैं सपरिवार था। मेरे एक सहकर्मी भी इसी तरह चल रहे थे। पिथौरागढ़ हम दोनों को ही जाना था। अब दिल्ली से टैक्सी लेकर हम पहले नैनीताल पहुँचे। वहाँ कुमाऊँ मंडल विकास निगम का होटल मैंने बुक करा रखा था।
नैनीताल हम लोग पहले भी कई बार आए थे सो बहुत उत्सुकता नहीं थी। शाम हो गई थी। होटल में थोड़ा सुस्ता कर नैनी झील की ओर बढ़ लिए और माल रोड पर तफ़रीह करते हुए वापस होटल आ गये। अगले दिन सुबह कौसानी के लिए निकलना था। सुबह नाश्ता करने के बाद हम लोग कौसानी के लिए रवाना हो गए। वहाँ पता चला कि अल्मोड़ा जाने वाला रास्ता बंद हैं। लैण्डस्लाइड हुआ है। ड्रायवर ने वैकल्पिक रास्ता पता किया। और एक लंबा रास्ता पकड़ लिया। रानीखेत, द्वारहाट, सोमेश्वर, कौसानी।
रानीखेत के आगे बड़ा बीहड़ रास्ता था। सँकरी सड़क जिसकी मरम्मत कई वर्षों से न हुई हो, ऐसा लगता था। हमारे अलावा सड़क पर न कोई आ रहा था न जा रहा था। न कोई गाँव नहीं न बस्ती। ये कैसा इलाक़ा है समझ में नहीं आ रहा था। ख़ैर प्रकृति का आनंद तो मौजूद था ही। और वही देखने तो निकले थे। इस बीच कवि-मित्र कपिलेश भोज से बात हुई। उनसे मैंने पूछा यदि आप सोमेश्वर में मिल सकें तो हम लोग दो घंटे तक पहुँच जाएँगे। उन्होंने बताया कि वे आज नहीं मिल पाएँगे कल कौसानी में ही मिलेंगे। ख़ैर हम लोग चलते जा रहे थे। असमंजस सा था कि कहाँ जा रहे हैं? रास्ता भटक तो नहीं गए हैं? तभी आगे सड़क पर द्वारहाट और सोमेश्वर का पत्थर वाला दिशा सूचक दिख गया। बड़ी राहत मिली। हम सोमेश्वर की तरफ़ मुड़ गये। थोड़ी देर बाद सोमेश्वर आया। कुछ और यात्रा के बाद कौसानी पहुँच ही गए। सीधा साढ़े तीन, चार घंटे का सफ़र था जो हमने छह-सात घंटे में तय किया। इस बहाने यह क्षेत्र भी दिख गया। पहाड़ में लैण्डस्लाइड के क्या मायने हैं समझ में आया।
कौसानी में भी कुमाऊँ मंडल विकास निगम का होटल बुक था। कॉटेज थी उसमें ठहर गये। लोकेशन बहुत सुंदर थी। दूर-दूर तक हिमालय पर्वत शृंखला फैली हुई थी। आसमान में बादल छाए हुए थे। होटल कर्मचारी बता रहा था कि मौसम साफ़ होने पर कंचनजंगा यहाँ से साफ़ दिखाई देता है। रात्रि विश्राम के बाद दूसरे दिन सुबह कपिलेश जी आए। नाश्ते के बाद हम लोग निकले। पहले कौसानी क़स्बा घूमा। पंत जी का घर देखा जो अब संग्रहालय बना दिया गया था। टी-एस्टेट देखी। फिर अनासक्ति आश्रम देखा। कपिलेश जी बताते रहे हम लोग सुनते रहे। शाम वापस होटल लौटे। कपिलेश जी से साहित्यिक, सांस्कृतिक चर्चा होती रही। उन्हें वापस भी लौटना था। गाँव दूर था। वाहन की समस्या थी। मन तो नहीं मान रहा था लेकिन कठिनाई देखते हुए हमने उन्हें विदा किया।
अगले दिन पिथौरागढ़ पहुँचना था। शाम होटल परिसर में घूम कर प्रकृति का आनंद लिया। बंदरों की बदमाशियाँ देखीं। कॉटेज के दरवाज़े पर डटे एक बंदर को कुछ खाने दिया तब वह हटा। खाना देख दूसरे बंदर भी आने लगे। हमें दरवाज़ा तुरंत बंद करना पड़ा। सुबह फिर नाश्ता करने के बाद पिथौरागढ़ के लिए रवाना हुए। पिथौरागढ़ पहुँच कर वहाँ कार्यालय से संपर्क किया। दूसरे दिन सुबह का निरीक्षण का प्रोग्राम था। शाम को एक बार सब-स्टेशन जाना उचित था। तो एक सरसरी विज़िट हुई। सुबह साढ़े नौ बजे मिलना था। लौट कर पुनेठा जी को पहुँचने की सूचना दी। अगले दिन शाम को मिलना तय हुआ।
दूसरे दिन सुबह साढ़े नौ बजे हम लोग सब-स्टेशन पहुँचे। शाम पाँच बजे तक संचालन गतिविधियों और दस्तावेज़ वह रिकॉर्ड चैक हुए। चैकिंग का संयुक्त रिपोर्ट पत्र अगले दिन सुबह बनना था। उस पर हस्ताक्षर होने थे। हम लोग होटल लौट आए। अब पुनेठा जी के घर पहुँचना था। वह होटल आए या हम लोग शहर में किसी तयशुदा स्थान पर मिले अब ध्यान नहीं है। बहरहाल घर पहुँच कर पारिवारिक माहौल में रम गए। साहित्य पर चर्चा हुई। पुनेठा जी की पत्नी की भी साहित्य में गहरी रुचि है; यह पता चला। बच्चों से बात हुई। बहुत अच्छा लगा। कुमाऊँ में भारतीय भोजन किया। कुमाऊँनी भोजन अगली बार के लिए ठहरा। कुछ ही दिन पहले पुनेठा जी से सूत्र सम्मान के कार्यक्रम में धमतरी छत्तीसगढ़ में भेंट हुई थी। स्मृति ताज़ा थी। उस पर भी बातें हुई।
इस यात्रा के कुछ महीनों बाद पुनेठा जी का कविता संग्रह ‘पंछी बनती मुक्ति की चाह’ डाक से प्राप्त हुआ। साहित्य लिखना-पढ़ना उन दिनों ठप्प था। सिर्फ़ अख़बारों के संपादकीय पृष्ठ पर लेख लिखता था। कविताएँ एक बार सरसरी तौर पर पढ़कर रख देता था। कविताओं पर लिखना बहुत समय से बंद ही था। अतः यह संग्रह भी फौरी तौर पर देखकर रख दिया। इधर कुछ दिनों से मुझे लगा कि मित्रों ने अपनी पुस्तकें भेज रखी हैं तो उनके बहाने कुछ बातें की जाएँ। समीक्षा-अमीक्षा लिखना तो अब अपने बस का नहीं है। इस संग्रह में मैंने एक बात नोट की कि पुनेठा जी की अपने कवि मित्रों पर अच्छी कविताएँ हैं। इसमें एक बेहतरीन कविता है—खुरदुरापन। इसकी कुछ पंक्तियाँ हैं:
“खुरदुरा ही है जो जगह देता है किसी और को भी।
पैर जमा कर खड़ा हुआ जा सकता है केवल खुरदुरे पर ही
वहीं रुक सकता है पानी भी।
खुरदुरे पत्थर से ही गढ़ी जा सकती हैं सुंदर मूर्तियाँ।
उसी से खुजाता है कोई जानवर अपनी पीठ
खुरदुरे रास्ते ही पहुँचाते हैं राजमार्गों तक
परिवर्तन भी दिखता है खुरदुरे में ही
खुरदुरेपन के गर्भ में होती हैं अनेकानेक संभावनाएँ।”
यह एक ऐसा सौंदर्यबोध है जो वास्तविकता और सुंदर गढ़ने की आकांक्षा को बहुत सादगी से अभिव्यक्त करने का क़ायल है। जिस किसी के बहाने यह कविता लिखी गई उसे छुपा देने के बाद यह बड़ी कविता बन जाती है।
ऐसी ही एक एक कविता है ‘हवा’:
“हवा का कोई घर नहीं होता
हर घर हवा का होता है।
X X X
ठहरे जल में मिलती है जब
तरंग पैदा कर देती है वहाँ
रेत पर कोई सुंदर चित्र
कठोर चट्टान को भी बना लेती है कैनवस अपना
एक कुशल चित्रकार है हवा
X X X
हवा को हवा ही रहने दो
बस उसे यूँ ही बहने दो।”
हवा जो नैसर्गिक जिजीविषा है, प्राण है, प्रकृति है, प्रेरणा है उसे सहज, स्वाभाविक रूप में समझने की योग्यता कम-से-कम एक सृजनशील व्यक्ति में तो होना ही चाहिए।
अब एक रुटीन सी त्रासदी है। बहुत कुछ कहती है:
“दिल्ली को कर्मों न कोसूँ मैं। मेरा भाई जिसको चिंता थी गाँव की—
एक दिन जो यह कहकर गया था दिल्ली
रोशनी लेकर आएगा हम सब के लिए
पहली बार गया था जैसा
वैसा ही लौट कर नहीं आया दोबारा
स्मृतिदोष से ग्रस्त होता चला गया वह
हमें पहचानता तक नहीं अब—“
बड़े शहरों की चमक-दमक और खींचतान, बहुत निजी संघर्ष रोशनी के पीछे भागने को विवश करते हैं। किसी और को रोशनी देने को कहाँ कोई स्थान बचता है।
आख़िर में:
“माँ मैं नहीं समझ पाया
तुम्हारे देवता को
बचपन से सुनता आया हूँ उसके बारे में
पर उसका मर्म नहीं समझ पाया कभी—“
यही मर्म समझना बहुत कठिन काम है। अगर सब यह समझ लेते तो सभी इंसान न हो जाते? यह प्रसन्नता की बात है कि पुनेठा जी यह मर्म समझ कर उसे कविता बना दे रहे हैं।
तो मैं पिथौरागढ़ बहुत खुरदुरे रास्तों से जा पहुँचा जिसका सुफल यह रहा कि कौसानी में कपिलेश भोज और पिथौरागढ़ में महेश पुनेठा मिल गये। यही इस यात्रा की सार्थकता थी। और अपने बारे में यह कि मैं ‘खुरदुरा नहीं हूँ, कँटीला हूँ।’
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