उत्तर-पूर्व का एक ख़ूबसूरत राज्य है मणिपुर
आलेख | सामाजिक आलेख शैलेन्द्र चौहान1 Nov 2023 (अंक: 240, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच भड़की हिंसा नई नहीं है। पूर्वोत्तर के राज्यों में जनजातीय संघर्ष का इतिहास पुराना है। यह संघर्ष पाँच दशक से ज़्यादा पुराना है। कुकी समुदाय का संघर्ष, दूसरे जनजातियों से होता रहा है। मणिपुर से लेकर नागालैंड तक, जनजातीय टकराव अंतहीन रहे हैं। मणिपुर के जातीय संघर्ष के मूल में आदिवासी भूमि अधिकारों की लड़ाई है। मैतेई, कुकी और नगा जनजातियों की यह लड़ाई, अपने सर्वाधिक हिंसक दौर में पहुँच गई है। यह विडंबना है। मणिपुर एक ख़ूबसूरत राज्य है। अपनी विविध वनस्पतियों व जीव-जंतुओं के कारण मणिपुर को ‘भारत का आभूषण’ व ‘पूरब का स्विट्ज़रलैंड’ आदि विविध नामों से संबोधित किया जाता है। लुभाने वाले प्राकृतिक दृश्यों, में विलक्षण फूल-पौधे, निर्मल वन, लहराती नदियाँ, पहाड़ियों पर छाई हरियाली शामिल है। मणिपुर की भौगोलिक स्थिति दर्शनीय है। उत्तरी तथा पूर्वी इलाक़ों में ऊँची पहाड़ियाँ है और मध्य भाग में मैदानी समतल है। यहाँ हर पहाड़ के बीच में कोई न कोई नदी बहती हैं। इम्फाल नदी यहाँ की प्रमुख नदी है। इस राज्य में प्राकृतिक संसाधनों का प्रचुर भंडार है। यहाँ की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है। यहाँ तरोताज़ा करने वाले जल-प्रपात है; रंग-बिरंगे फूलों वाले पौधे हैं, दुर्लभ वनस्पतियाँ व जीव-जन्तु हैं, पवित्र जंगल हैं, हमेशा बहने वाली नदियाँ हैं, पर्वतों-पहाड़ियों पर बिखरी हरी विभा है और टेढ़े-मेढ़े गिरने वाले झरने हैं। लोकटक झील यहाँ की एक महत्त्वपूर्ण झील है। भौतिक आधार पर इस राज्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहाड़ियाँ व घाटियाँ। चारों ओर पहाड़ियाँ हैं और बीच में घाटी है। इस प्रकार प्रकृति की प्राचीन गौरव है। राज्य की कला व संस्कृति समृद्ध है जो विश्व मानचित्र पर इसकी समृद्धि को दर्शाती है।
यहाँ तीन प्रमुख जनजातियाँ निवास करती हैं। घाटी में मीतई जनजाति और बिष्णुप्रिया मणिपुरी रहती है तो नागा और कूकी-चिन जनजातियाँ पहाड़ियों पर रहती हैं। प्रत्येक जनजाति वर्ग की ख़ास संस्कृति और रीति रिवाज़ हैं जो इनके नृत्य, संगीत व पारंपरिक प्रथाओं से दृष्टिगोचर होता है। यहाँ नागा तथा कूकी जातियों की लगभग 60 जनजातियाँ निवास करती हैं। विभिन्न आदिवासी समुदाय आइमोल, अनल, अंगामी, चिरु, चोटे, गंगते, हमार, कबुई, कचनागा, कैराव, कोइरांग, कोम, लामगंग, माओ, मारम, मारिंग, मिजो, मोनसांग, मोयोन, पैइट, पुरुम, राल्ते, सेमा, सिमटे, सब्टे, तंगखुल, थाडौ, वैफा और ज़ो आदि हैं।
हमार जनजाति: हमार मिज़ो की प्रमुख उपजातियों में से एक है। हमार अपनी परंपराओं, संस्कृति और सामाजिक रीति-रिवाज़ों के सम्मान के साथ एक विशिष्ट समुदाय हैं।
कबुई जनजाति: कबुई जनजाति दूसरी लोकप्रिय जनजाति है जो नागा जनजाति की उपजातियों में से एक है। वे ख़ुद को ‘रोंगमई’ कहते हैं। वे चार कुलों में विभाजित हैं; कमई, गोलमाई, गंगामाई और लंगमई।
मारम जनजाति: मराम जनजाति मणिपुर की नागा जनजातियों में से एक है। वे मुख्य रूप से मणिपुर के सेनापति ज़िले के तबुड़ी उप-विभाग में पाए जाते हैं।
अंगामी जनजाति: अंगामी जनजाति एक और नागा आदिवासी समूह है जो अक़्सर मणिपुर में पाया जाता है जो एक साधारण जीवन शैली का पालन करते हैं, जो मणिपुर के अन्य सभी जनजातियों के समान है। वे मुख्य रूप से किसान हैं।
पुरुम जनजाति: पुरुम भारत और म्यांमार के मणिपुर हिल्स क्षेत्र में रहने वाली एक पुरानी कुकी जनजाति है। माना जाता है कि पुरुम और अन्य पुरानी कूकी जनजातियों का मूल घर लुशाई पहाड़ियों में था।
पित जनजाति: पित जनजाति जनजातियों का एक अन्य समूह है जो अक़्सर मणिपुर, बर्मा, बांग्लादेश और आसपास के क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
इनके साथ मणिपुर की जनजातियों में कुछ और समूह शामिल हैं जो मणिपुर के उखरूल ज़िले पर क़ब्ज़े वाली भारत-म्यांमार सीमा में रहते हैं।
यहाँ के लोग संगीत तथा कला में बड़े प्रवीण होते हैं। यहाँ कई बोलियाँ बोली जाती हैं। मणिपुर के लोग कलाकार होते हैं साथ ही सृजनशील होते हैं जो उनके द्वारा तैयार खादी व दस्तकारी के उत्पादों में झलकती है। ये उत्पाद विश्वभर में अपनी डिज़ाइन, कौशल व उपयोगिता के लिए जाने जाते हैं। यहाँ नेपाल से आकर बसे नेपालियों की भी अधिक संख्या है, जो मणिपुर के कई इलाक़ों में बसे हैं।
मणिपुर को देश की 'ऑर्किड बास्केट' भी कहा जाता है। यहाँ ऑर्किड पुष्प की 500 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। समुद्र तल से लगभग 5000 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित शिरोइ पहाड़ियों में एक विशेष प्रकार का पुष्प शिरोइ लिली पाया जाता है। शिरोइ लिली का यह फूल पूरे विश्व में केवल मणिपुर में ही पैदा होता है। इस अनोखे और दुर्लभ पुष्प की खोज फ्रैंक किंग्डम वॉर्ड नामक एक अँग्रेज़ ने 1946 में की थी। यह ख़ास लिली केवल मानसून के महीने में पैदा होता है। इसकी विशेषता यह है कि इसे सूक्ष्मदर्शी से देखने पर इसमे सात रंग दिखाई देते हैं। इस अनोखे लिली को 1948 में लंदन स्थित रॉयल हॉर्टिकल्चरल सोसाइटी ने मेरिट प्राइज़ से भी नवाज़ा था। हर वर्ष उखरूल ज़िले में शिरोइ लिली फ़ेस्टिवल का आयोजन बड़ी धूम धाम से होता है। इसे देखने दूर दूर से लोग मणिपुर आते हैं।
राज्य में कृषि के अनुकूल परिस्थितियाँ हैं। यहाँ की जलवायु और मिट्टी, कृषि व बाग़वानी वाली प्रायः सभी फ़सलें उगाने के लिए उपयुक्त है। राज्य में प्रचुर मात्रा में धान, गेहूँ, मक्का, दलहन व तिलहन (जैसे तेल, मूँगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी आदि) की खेती की जाती है। इसके अतिरिक्त विभिन्न फलों जैसे अनानास, नींबू, केला, नारंगी आदि और सब्ज़ियाँ जैसे फूलगोभी, बंदगोभी, टमाटर व मटर आदि का उत्पादन किया जाता है। इसके फलस्वरूप खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र, कृषि, बाग़वानी, मछली पालन, मुर्गी पालन, पशु पालन और वनों के विविधीकरण तथा वाणिज्यीकरण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हथकरघा उद्योग राज्य का सबसे बड़ा कुटीर उद्योग है। यहाँ यह उद्योग अनादि काल से फल-फूल रहा है। राज्यथ में यह सर्वाधिक रोज़गार उपलब्ध करा रहा है ख़ासकर महिलाओं को। मणिपुर के प्रमुख हथकरघा उत्पाकद साड़ी, चादर, पर्दे, फ़ैशनवाले कपड़े, स्कार्फ़ व तकिए के कवर आदि है। अधिकांश जुलाहे जिन्हें हुनर व महीन डिज़ाइनिंग के लिए जाना जाता है। वे वाँग खाई बायोन काँपूँ, कोंगमान, खोंग मैन उल्लालऊ आदि से हैं जो उत्कृष्ट सिल्क आदि उत्पादों के लिए प्रसिद्ध हैं। मणिपुरी कपड़े व शॉलों की राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में काफ़ी माँग है।
देश की विभिन्न हस्तशिल्प कलाओं में राज्य के हस्तशिल्प उद्योग का अनूठा स्थान है। इसके अंतर्गत बेंत व बाँस के बने उत्पादों के साथ-साथ मिट्टी के बरतन बनाने की संस्कृति भी शामिल है। मणिपुर में मिट्टी के बरतन बनाने की प्रथा काफ़ी पुरानी है और यह उद्यम मुख्यतः एंड्रो, सिकमाई, चैरन, थोगजाओ, नुंगवी व सेनापति ज़िले में किया जाता है। चूँकि बाँस व बेंत काफ़ी मात्रा में उपलब्ध है, टोकरी बुनना यहाँ के लोगों का लोकप्रिय व्यवसाय बन गया है। इसके अतिरिक्ति मछली मारने के उपकरण भी बेंत व बाँस के बनाए जाते हैं।
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