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मारण मोहन उच्चाटन

 

कविताओं ने विराम ले लिया है
हर तरफ़ अपराध कथाएँ लहलहा रही हैं
 
अंकुरित होते बीज को देखकर हर्षमिश्रित उत्तेजना हो रही है
किसान मुरझाए चेहरे लिए लौट रहे हैं गल्ला मंडी से
कितनी क़ीमत रही फ़सल की दूनी या आधी
खिला चेहरा होता तो . . .
 
मकड़ी ने जाल बुना है
छोटे-छोटे दो एक कीड़े गिरफ़्त में हैं
बहुत कुछ हो रहा है विकास के बाड़े में
झूठ जलेबी की तरह रसीला और गोल है
अचार की तरह बढ़ाता है खाने का स्वाद भी
 
जंतर मंतर पर बैठे धरने वालों की ख़बर कहीं नहीं है
उनके मंसूबों पर पानी फिर चुका है
लोकतंत्र और संविधान हो चुके हैं जुमलों में परिवर्तित
तिलिस्म गहरा रहा है
जादूगर ने सूरज पर पानी डाल दिया है
 
भाप ही भाप
कुहासा हर तरफ़
धरती काँप रही है
कैसा विरोधाभास है? 
 
आंदोलन में दोलन है विकट
थरथराहट है
घबराहट है
निराशा है
उपदेश हैं
प्रवचन हैं
सीख है
 
मैं पत्थर का पुतला हूँ
काला ग्रेनाईट
यह अहिल्या की अकथ कथा है
कविता यहीं खो गई है
भेड़़िये क़हक़हे लगा रहे हैं
शार्दूल काँप रहे हैं

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