यायावर मैं–010: मराठवाड़ा की महक
संस्मरण | स्मृति लेख शैलेन्द्र चौहान15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
1980 में मैं विदिशा छोड़कर नांदेड पहुँच गया। महाराष्ट्र बीज (बिजली) मंडल में नौकरी लगी थी। इससे पहले नांदेड के बारे में मेरी जानकारी शून्य थी। जब अपाइंटमेंट लेेटर मिला तब जानकारी हासिल की। मराठवाड़ा क्षेत्र में एक ज़िला है जहाँ सचखंड हुज़ूर नामक एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है। गुरु गोविंद सिंह यहाँ शहीद हुए थे। यह नगर गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ है। तब इंटरनेट तो था नहीं कि गूगल सर्च कर लेते और सूचनाएँ खंगाल लेते। कई जानकारों से यह सब पता चला। यद्यपि विदिशा में मराठी बहुत थे लेकिन वे पुणे, मुंबई और नागपुर से अधिक परिचित थे। नांदेड के बारे में उतने नहीं।
रेल का रूट पता किया तो पता चला कि मनमाड से ट्रेन बदलनी होगी जो औरंगाबाद, जालना, परभणी, पूर्णा होते हुए नांदेड जायेगी। उन दिनों मनमाड-हैदराबाद मीटर गेज ट्रैक हुआ करता था। विदिशा से तीसरी श्रेणी का नांदेड का टिकिट लिया और ट्रेन में सवार हो लिये। मनमाड पहुँच कर नांदेड की ट्रेन के लिये कुछ घंटे प्रतीक्षा की। रात को गाड़ी में सवार होकर सुबह नांदेड पहुँचे। ट्रेन से उतर कर ऑटो तय किया। वह ले गया बिजली विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय जो नवा मोंढा में था। मुझे जाना था ट्रांसमीशन के कार्यालय में। वहाँ के कर्मचारियों से पूछा तो उन्हाेंने बताया कि श्यामनगर में कहीं ऑफ़िस है लेकिन सही पता नहीं मालूम। एक बाबू के पास वहाँ का फोन नंबर मिला। उसने फोन लगाया तो एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के स्टेनोटायपिस्ट ने फोन उठाया। उसने कहा मैं शहर जा रहा हूँ काम से लौटते हुए आपको ले लूँगा। मैं बोला मुझे दोपहर से पहले ऑफ़िस में रिपोर्ट करना है। उसने कहा तुम आ गए हो मालूम हो गया (मराठी में आप का प्रयोग नहीं होता है)। ज्वाइनिंग रिपोर्ट मैं ही लूँगा। मैं प्रतीक्षा करता रहा। दो घंटे बाद वह आया और मैं उसके साथ दफ़्तर पहुँच गया।
वहाँ तीन-चार लोग थे। नई कॉलोनी थी। घर दूर-दूर थे। वह इलाक़ा उजाड़ जैसा था।
मैं बोला, “ज्वाइनिंग रिपोर्ट।”
वह बोला, “आराम से बैठो। चाय-साय पियो। ज्वाइनिंग हो जायेगी।”
एक्जीक्यूटिव इंजीनियर बाहर थे। दफ़्तर में उस समय स्टेनो के अलावा प्रशासनिक सहायक और दो अकाउंट्स सेक्शन के बाबू थे। एक गाड़ी थी। उसका एक ड्रायवर था हरपाल। चाय की दुकान कहीं नज़र नहीं आ रही थी। कुछ देर बाद वे लोग उठे बोले, “चलो चाय पीकर आते हैं।” मैं साथ हो लिया। कुछ दूर पर सड़क के किनारे चाय की गुमटी थी। चाय पीकर वापस आ गये। तब स्टेनो ने एक कोरा काग़ज़ थमाया बोला, “ज्वाइनिंग लिखो।” उसी ने बताया क्या लिखना है।
दोपहर डेढ़ बजे लंच हो गया। उनके पास खाना था उसी में से मुझे भी मिला। लंच के बाद एक्जीक्यूटिव इंजीनियर आये। मैं उनसे मिला। उन्हाेंने पूछा पहले का क्या अनुभव है। मैंने बताया मैं लेक्चरर था। बोले, “यहाँ साइट का काम है। गाँव-देहात, जंगल में जाना पड़ेगा। टेंट में रहना पड़ेगा। कठिन काम है। कर सकोगे?”
मुझे थोड़ा असहज लगा। लेकिन मैंने कहा, “जी, करूँगा।” बाहर उन तीनों-चारों लोगों ने अपनापन दिखाया। थोड़ा डराया भी कि लोग छोड़कर भाग जाते हैं लेकिन कुछ दिन बाद यहाँ एडजस्ट हो जाओगे। ऑफ़िस ख़त्म होने के बाद मैंने पूछा कि कहाँ ठहर सकते हैं। कोई सस्ता होटल, धर्मशाला। पता चला शहर दूर है। यहाँ पास में कोई होटल या धर्मशाला नहीं है। रात यहीं ऑफ़िस की छत पर सोयेंगे। पता चला दो अकाउंट्स वाले बाबू भी नये थे और घर मिलने तक छत पर ही उनका डेरा था। छोटा बिस्तर मैं लेकर आया था। शाम शहर के नज़दीक एक होटल में खाना खाया और उस डेरे में शामिल हो गया। दूसरे दिन से मकान की तलाश शुरू हुई। मेरी रिपोर्टिंग वहीं डिप्टी एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को हो गई। वह कन्नड़ थे। अच्छी मराठी बोलते थे। सज्जन थे। काम के प्रति समर्पित। वे अपने साथ दो-तीन बार साइट ले गये। काम समझाया। मकान तलाशने में मदद भी की। मैंने अपने स्टाफ़ की सहायता से मराठी सीखनी शुरू कर दी। ड्रायवर भी मददगार था।
साइट पर काफ़ी स्टाफ़ था। आठ दस रेगुलर टैक्नीशियन, फ़ोरमैन, ट्रक ड्रायवर, ट्रैक्टर ड्रायवर और डेढ़ सौ मज़दूर। मज़दूरों की एक दिन की मज़दूरी थी नौ रुपये पच्चीस पैसे। इसी शीर्षक से मैंने कविता लिखी। बाद में मेरा पहला कविता संग्रह इसी नाम से छपा। उसमें पच्चीस की जगह बीस पैसे कर दिया। पहली साइट नांदेड से बीस-बाईस किमी दूर थी। अर्धापुर के पास। यह नांदेड-यवतमाल रोड पर थी। यहाँ स्पेशल चाय को गोल्डन चाय बोलते थे। आगे वारंगा फाटा होते हुए पुसद, हिंगोली, दिग्रस, दारव्हा, बोरी जो अमरावती रोड पर थे। दूसरी ओर परली तक।
श्यामनगर में एक मकान किराये पर ले लिया। परिवार भी ले गया। मकान मालिक थे महाजन। उनके तीन बच्चे थे। बड़ी थी मुन्नी, बारह साल की, फिर वाड्या दस वर्ष का। उसके बाद माई छह-सात वर्ष की। जैसे-जैसे काम बढ़ता गया स्टाफ़ भी बढ़ता गया और काम का दायरा भी। घूमना भी बढ़ गया। साइट के अलावा दूसरी जगहों से लाइन निर्माण का सामान लाना, पहुँचाना भी। चीफ़ इंजीनियर ऑफ़िस जो नागपुर में था वहाँ जाना। दस्तावेज़, ड्राइंग ले जाना ले आना। दस्तावेज़ की जगह ‘दस्तएवज’ लिखा होता था। कुछ-कुछ संदेशवाहक जैसा काम भी था।
नागपुर में कहानीकार विनायक कराडे ‘नया खून’ अख़बार में काम करते थे। उसमें वे मुझसे लघु पत्रिकाओं पर टिप्पणी लिखवाते थे। उनके मारफ़त हरीश अड्यालकर, विनोद व्यास, गोपाल नायडू से परिचय हुआ। फिर दूसरी साइट पर सहयोग करना भी चलने लगा। अक़्सर जीप में बैठकर जाता था। एक बार ट्रक में बैठकर पुणे गया। पुणे से सातारा। बीच में जलगांव के पास भी एक स्टोर था। वहाँ से औरंगाबाद जाते हुए एलोरा की गुफाएँ देखीं। एक तरफ़ से छह सौ किमी की यात्रा। बीच में कहीं रात्रि विश्राम। जाने-आने में छह दिन लगे। हालत ख़राब हो गई। पूरे शरीर में दर्द भर गया। जिसे निकलने में तीन-चार दिन लगे। ट्रक में बैठकर इतनी लंबी यात्रा पहले कभी नहीं की थी। हालाँकि साथ में फ़ोरमैन, टेक्नीशियन और मज़दूर थे। उन्हाेंने मेरी सहूलियत का पूरा ख़्याल रखा फिर भी यह थकान भरा उद्यम था। उधर कभी किसी की विज़िट होती और उसका ज्योतिर्लिंग देखने का मन किया तो मुझे साथ लगा दिया जाता। परली बैजनाथ, ओंढा नागनाथ। मेरी कोई रुचि नहीं थी लेकिन जाना पड़ता। माहुर का जंगल था वहाँ कोई देवी का मंदिर था वहाँ भी लोग जाते। मैं प्रकृति का आनंद लेता। इस तरह मराठवाड़ा, विदर्भ, खान देश और पश्चिम महाराष्ट्र का काफ़ी कुछ भाग घूम लिया। एक बार किसी काम से मुंबई गया। हेड ऑफ़िस बंबई वीटी (विक्टोरिया टर्मिनस अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनल) के पास था। तब होटल में रुकने का बहुत कम पैसा मिलता था। बंबई जैसी जगह के लिए पचास रुपये। इतने पैसों में होटल मिलना मुश्किल था। अतः ऑफ़िस में ही एक टेबल पर लेट कर रात गुज़ारी। दूसरी बार एक डिपार्टमेंटल इंटरव्यू देने गया तो इंटरव्यू के बाद मराठी के सुप्रसिद्ध कवि नारायण सुर्वे से भेंट करने उनके घर चला गया। शायद अँधेरी में कहीं रहते थे। सुर्वे जी तो नहीं मिले उनकी पत्नी और बेटे से भेंट हुई। काफ़ी बातें हुईं। वे एक प्रायमरी स्कूल में सहायिका थीं और कामगार महिलाओं के संगठन में सक्रिय थीं। उन्हाेंने बड़े स्नेह से मुझे रोक लिया और रात में अपने घर रहने देने का उपकार किया। अन्यथा मैं स्टेशन के बाहर रात गुज़ारता। श्रीरंगा सुर्वे की शैलेश मटियानी जी के कथा साहित्य में बहुत रुचि थी। हम उस पर बात करते रहे।
नांदेड में साहित्यकारों के बीच भी मैंने अपनी पैठ बना ली थी। वहाँ महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक थे बी ए जोशी जी। उनसे परिचय हो गया था। एक थे भा ग महामुनि जिन्होंने इस कार्यक्रम की सफलता के लिए काफ़ी मेहनत की थी, और एक और प्राध्यापक थे उनका नाम मैं भूल रहा हूँ शायद जायसवाल जी। ये हिंदी से संबद्ध थे। इनके अलावा इतिहास के एक विद्वान प्राध्यापक थे प्रो. एस आर गाडगिल। मध्ययुग के संतों के प्रगतिशील दृष्टिकोण पर इनका बड़ा काम था। गाडगिल जी का मुझ पर काफ़ी स्नेह रहा। मराठी के एक विद्वान आलोचक थे नरहर कुरुंदकर। वे गंभीर व्यक्ति थे। मराठी साहित्य की मुझे समझ नहीं थी अतः ज़्यादा बात नहीं हुई। और एक उत्साही युवक था दिलीप शिंदे जो हमारे घर के पीछे रहता था। शहर और हमारी बस्ती के बीच सेतु का काम उसने किया। ‘धरती’ का समकालीन कविता अंक जब प्रकाशित हुआ तो उसके विमोचन का एक बड़ा कार्यक्रम हुआ जिसमें नांदेड के सभी पढ़ने-लिखने वाले शताधिक लोग इकट्ठे हुए। इसे हमारे घर के पास की ही एक प्रेस निर्मल प्रिंटिंग प्रेस में छपवाया था। प्रेस चलाने वाला युवक निर्मल बहुत सहज मनुष्य था। इसका कवर हमारे एक्जीक्यूटिव इंजीनियर इनामदार साहब ने एक आर्टिस्ट से बनवाया था। इस कार्यक्रम से मैं अभिभूत था। वहाँ मुझे सबका स्नेह प्राप्त था लेकिन कभी-कभी लगता था कि घर से दूरी अधिक है। डेढ़ वर्ष यूँ ही गुज़र गया। तनख़्वाह बढ़ाने के लिए हड़ताल का आह्वान हुआ। मैं वहाँ इंजीनियर एसोसिएशन का सेक्रेटरी भी था। कुछ दिन बाद हड़ताल शुरू हो गई। शीघ्र समझौता न होने पर यह अनिश्चितकालीन हो गई। इस बीच मुझे घर जाना पड़ा। मैं पहले एनटीपीसी में इंटरव्यू दे आया था। तदुपरांत एक कंपनी बेस्ट एंड क्रांप्टन इंजीनियरिंग लि. में इंटरव्यू देने चेन्नई पहुँचा। इंटरव्यू के दौरान वहाँ के मैंनेजिंग डायरेक्टर से पता चला कि हड़ताल समाप्त हो गई है। माँगें मान ली गई हैं। चेन्नई से सीधा नांदेड आ गया। दिसंबर का महीना था। हल्की-हल्की सर्दी थी। यहाँ अधिक सर्दी नहीं होती। काम फिर शुरू हुआ। अनुपस्थित रहे दिनों की तनख़्वाह काट ली गई। उस समय को अवैतनिक छुट्टी माना गया। अब मेरा मन उचाट रहने लगा। तभी विदिशा से पिताजी का पत्र आया कि बेस्ट एंड क्राम्पटन से ऑफ़र आया है। पंद्रह दिन में इलाहबाद में ज्वाइन करना है। इलाहबाद के नाम से मुझे अच्छा लगा। साहित्यिक नगरी थी। कई साहित्यिक मित्र थे जो ‘धरती’ के माध्यम से जुड़े थे। मैंने ज्वाइनिंग के लिए एक महीने का समय ले लिया और महाराष्ट्र बीज मंडल से इस्तीफ़ा दे दिया। मेरे सहकर्मी प्रसन्न नहीं थे। लेकिन मैं घर के पास जा रहा था यह वे समझते थे। महीने भर का नोटिस पीरियड था। दो मार्च 1982 को मैंने वहाँ की सुखद स्मृतियों के साथ नांदेड को विदा कह दिया।
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