अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

एक पर्स का सफ़रनामा

 

आमतौर पर विवाह समारोहों में होने वाले रूढ़ और पारंपरिक रीति-रिवाज़ों तथा कर्मकांडों से बचता हूँ। कुछ स्थानीय और क़रीब के लोगों के निमंत्रण पर रिसेप्शन या प्रीति-भोज में कभी-कभार शामिल हो जाता हूँ लेकिन दूर यात्रा करके शामिल होने में शारीरिक कष्ट होता है। फिर भी कभी-कभी ऐसी परिस्थिति निर्मित हो जाती है कि वह कष्ट आपको सहर्ष (!) उठाना पड़ता है। यात्राओं में कष्ट के अलावा कुछ मीठे-खट्टे अनुभव भी होते हैं जो यादगार बन जाते हैं।

हाल ही में हमारे एक आरंभिक दिनों के कोई तीन दशक पुराने सहकर्मी के पुत्र के विवाह में कानपुर जाना पड़ा। चूँकि जयपुर से कानपुर का सीधा टिकिट उपलब्ध नहीं था अतः जयपुर से आगरा और फिर टूंडला से कानपुर का टिकिट कन्फ़र्म हुआ। आगरा से टूंडला तक कोई तीस कि.मी. दूरी टैक्सी या ऑटो से तय करनी थी। एक सम्भावना यह भी थी कोई ट्रेन यदि उस बीच हो तो अधिक सुविधाजनक रहेगा। ख़ैर जयपुर से इंटरसिटी से क़रीब एक बजे दोपहर आगरा फ़ोर्ट पहुँचा। अधिकांश गाड़ियाँ देरी से चल रही थीं लेकिन रेलवे की अघोषित कार्यप्रणाली के तहत उन्हें धीरे-धीरे देरी से घोषित करने की रवायत थी। तो एक ट्रेन जो एक घंटे देरी से आने की सम्भावना थी, मैं प्लैटफ़ॉर्म पर बैठ उसकी प्रतीक्षा करने लगा। तभी जी आर पी और आर पी एफ़ का एक दस्ता यात्रियों से प्लैटफ़ॉर्म ख़ाली करवाने लगा। बोले एक स्पेशल ट्रेन आ रही है। सभी प्रतीक्षा करने वाले यात्रियों को बाहर जाना होगा। मुझे पुलिसकर्मी ने उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय में बैठने की सलाह दी। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद यह पता चला कि मैं जिस ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था वह और लेट हो गई है लेकिन तभी वह स्पेशल बताई गई ट्रेन आ गई। यह कोई स्पेशल ट्रेन नहीं थी बल्कि एक रूटीन ट्रेन थी जो हफ़्ते में शायद दो-एक दिन चलती थी। सम्भवतः विशेष यह रहा होगा कि यह भावनगर गुजरात से आ रही थी और कोई विशेष धार्मिक समूह किसी तीर्थ स्थान जा रहा था। इसमें इतना नाटक करने की क्या बात थी मुझे समझ नहीं आया। बहरहाल प्रतीक्षालय पास में बैठे एक युवा यात्री को मेरी चिंता थी कि यदि मैं टूंडला जल्दी नहीं पहुँच सका तो मेरी आगे वाली ट्रेन छूट जाएगी। उसी वक़्त उसने ऊबर से टैक्सी बुक कर दी और मुझे टैक्सी नंबर, ओटीपी और ड्रायवर का नंबर दे दिया। मैं बाहर आ गया, कैब ड्रायवर को तलाशा। वह मिला लेकिन ऊबर द्वारा तय किराये पर जाने को राज़ी नहीं हुआ। उसने सौ रुपये अधिक चाहे। मुझे जल्दी पहुँचना था अतः राज़ी होने के अलावा कोई और चारा नहीं था। एक घंटे में मुझे टूंडला स्टेशन पहुँचना था।

समय पर मैं टूंडला स्टेशन पहुँच गया। मैं प्रतीक्षालय में मिले युवक की सामाजिकता और व्यवहारिकता से प्रसन्न था। यदि कुछ देर मैं और ठहरता तो मेरी ट्रेन छूट जाती। आने वाली ट्रेन भी थोड़ी देरी से चल रही थी। कुछ प्रतीक्षा के बाद वह स्टेशन पर आ गई और पाँच मिनिट बाद गंतव्य की ओर रवाना हुई। मेरी सीट पर लखनऊ जाने वाली दो महिलाएँ बैठी थीं। मैंने उन्हें अपना सीट नंबर बताया तो उन्होंने मुझे आगे एक सीट पर बैठने को कहा जो उनमें से एक की थी। मुझे कोई परेशानी नहीं थी। बैठने की बराबर जगह थी।

गाड़ी आगे बढ़ रही थी, मुझे थोड़ी-थोड़ी देर बाद कुछ फोन काल आ रहे थे जो सामान्य दिनों की अपेक्षा अधिक थे। दो नंबर, दो अलग-अलग मोबाइल सेट में थे। दोनों मोबाइल दो अलग-अलग जेबों में रखे थे। उन्हीं में से एक जेब में पर्स और रूमाल भी था। मोबाइल बार-बार निकालता और जेब में रखता था। इसी प्रक्रिया में मेरा पर्स सीट के नीचे गिर गया। उस पर मेरा ध्यान नहीं गया। गाड़ी कानपुर रुकी और मैं उतर कर प्लैटफ़ॉर्म से बाहर आ गया। तभी मुझे एक काल आया।

उसने पूछा, “आप शैलेन्द्र सिंह बोल रहे हैं?”

मैंने कहा, “जी हाँ बोल रहा हूँ।”

उधर से आवाज़ आई, “देखिये आपका पर्स कहीं गिरा है।”

मैंने कहा, “गिरना तो नहीं चाहिए फिर भी देख लेता हूँ।” जेब टटोली तो वाक़ई में पर्स नहीं था। मैंने कहा, “गिरा तो है।”

आवाज़ आई, “मैं टीटीई गौरव शाह बोल रहा हूँ। पर्स मेरे पास है। उसमें छह हज़ार से कुछ अधिक रुपये हैं और पेन कार्ड है।”

मैंने कहा, “स्टेशन पर आकर ले लेता हूँ।”

बोले, “गाड़ी चल चुकी है।”

“तो फिर कैसे लिया जायेगा?” मैंने पूछा।

उन्होंने कहा, “एक तरीक़ा है यदि लखनऊ में कोई परिचित हो और मुझसे स्टेशन पर आकर ले ले तो ठीक अन्यथा फिर जीआरपी थाने में जमा करा दूँगा। काग़ज़ी कार्यवाई करनी पड़ेगी।”

अब इतनी जल्दी लखनऊ में किसी को ढूँढ़ कर स्टेशन भेजना सम्भव नहीं है। मैंने रिक्वेस्ट की, “आप इसे अपने साथ घर ले जाइए, सुबह तक मैं कुछ इंतज़ाम करता हूँ।” इसके बाद मैंने जिनके यहाँ विवाह में जाना उनसे पूछा कि क्या लखनऊ में उनका कोई परिचित है जो पर्स कलेक्ट कर सके? उन्होंने कहा, “दो लोग हैं उनसे बात करता हूँ। कल वे लोग शादी में भी आएँगे।” बात होने के बाद गौरव शाह का नंबर उन्हें दे दिया। उनमें से एक महेश द्विवेदी ने गौरव शाह से बात कर सुबह पर्स लेने का निश्चय कर लिया।

रात के दस बज चुके थे। मुझे जहाँ शादी में जाना था वह जगह स्टेशन से काफ़ी दूर थी और मैट्रो के निर्माण के चलते बहुत जाम लगता था अतः ऊबर और ओला ऑटो और कैब वाले जाने को तैयार नहीं हो रहे थे। मैंने वहाँ खड़े एक ऑटो वाले से पूछा कि मुझे फ़लाँ जगह जाना है चलोगे? बोला, “तीन सौ रुपये लगेंगे और पता ठिकाना समझाना होगा।” वह जीपीएस का इस्तेमाल नहीं करता था। मैंने जहाँ जाना था उनसे ऑटो वाले को रास्ता और पता समझाने के लिए कहा। वह समझ गया। रात सवा ग्यारह बजे मैं गंतव्य पर पहुँच गया। उसके फोन नंबर पर यूपीआई से पैसा भी चुका दिया। मुझे जब से पर्स खोने की सूचना मिली मैंने मन से अपने आपको पर्स से डिटैच कर लिया था। मुझे नहीं लग रहा था कि कुछ अनपेक्षित हुआ है। मैंने आराम से खाना खाया और सो गया।

सुबह नहा-धोकर चाय नाश्ता किया। शत्रुघ्न जिनके बेटे की शादी थी और महेश द्विवेदी जो उसी प्रतिष्ठान में काम करते हैं जहाँ से मैं सेवा निवृत्त हुआ हूँ, पर्स पाने की प्रक्रिया में लगे हुए थे। महेश द्विवेदी ने अपने एक वरिष्ठ सहकर्मी जो गौरव शाह के पास रहते थे उनसे पर्स लाने की रिक्वेस्ट की वह तैयार हो गए। वह घर से निकल ही रहे थे तभी उनकी बेटी कहीं गिर पड़ी और उसे चोट आ गई। उसे अस्पताल ले जाने के चक्कर में वे पर्स लेना भूल गये। यह द्विवेदी जी से सूचना मिली। तब मैंने अपने एक और पूर्व सहकर्मी उमेश जी को फोन लगाया। उन्हें समस्या बताई और गौरव शाह का नंबर दिया। वे गौरव शाह से बात कर उनके घर जाने को तैयार हो गये। एकाध घंटे बाद वे वहाँ पहुँचे और शाह जी से मेरी बात कराई। शाह जी बहुत भले इंसान हैं। ट्रेन में बैठे मैंने नोटिस किया कि वह एक बुज़ुर्ग यात्री का टिकिट अपग्रेड करने में जो पैसे बनते थे उन्हें ऑनलाईन ट्रांसफ़र की बात इसलिए कर रहे थे ताकि बिलकुल बराबर पैसा रेलवे के खाते में जमा हो सकें। फुटकर पैसे न होने से लेनदेन में दिक़्क़त आती है। ख़ैर, शाह जी ने बताया कि संपर्क करने में समय इसलिए लगा क्योंकि आपका पहचान पत्र तो था लेकिन संपर्क नंबर नहीं था और आपने सीट भी बदल ली थी। पर्स मिलने पर उस महिला ने बताया कि अंकल से मैंने सीट बदली थी। सीट नंबर और नाम मिलाकर टिकिट डिटेल्स देखकर आपका नंबर मिल पाया। तब आपको फोन किया। गौरव शाह की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा देखकर मैं चकित था। अंततः लखनऊ घूम-घाम कर पर्स मेरे पास लौट आया।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

28 अक्टूबर, 2015 की वो रात
|

बात २४ जनवरी २०१३ की है। उस दिन मेरा ७५वां…

 काश! हम कुछ सीख पायें
|

अभी कुछ दिनो पूर्व कोटा से निज़ामुद्दिन जनशताब्दी…

अजनबी चेहरे 
|

कल की ही बात (20 नवंबर2022) है, मैं अपने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

आप-बीती

यात्रा-संस्मरण

स्मृति लेख

ऐतिहासिक

सामाजिक आलेख

कहानी

काम की बात

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. धरती-21