छाया दी लेखक की चेतना है
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा शैलेन्द्र चौहान1 Mar 2019
पुस्तक: मुंतज़िर की आत्मकथा: ’छाया दी’
लेखक: डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह
पहला संस्करण: जनवरी-2016
मूल्य: 350/-
प्रकाशक: मुक्तधारा प्रेस एण्ड पब्लिकेशन्स ’अमरावती’
अपर रोड, गुरुंगनगर, पो. प्रधान नगर,
सिलीगुड़ी-०३, ज़िला दार्जिलिंग (प.बं)
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ और जीवनी-लेखक टामस कारलाइल ने अत्यंत सीधी-सादी और संक्षिप्त परिभाषा में आत्मकथा को "एक व्यक्ति का जीवन" कहा है। आत्मकथा स्वानुभूत अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सहज माध्यम है। आत्मकथा के माध्यम से लेखक अपने जीवन, परिवेश, महत्त्वपूर्ण घटनाओं, विचारधारा, निजी अनुभव, अपनी क्षमताओं और दुर्बलताओं तथा अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। यह एक ऐसी विधा है, जिसमें अमूमन इस बात की भी प्रबल संभावना रहती है कि उसका लेखक ख़ुद को कसौटी पर न कस पाए। अगर हम हिंदी साहित्य की बात करें तो इस तरह के अनेकों उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ लेखक ने अपने आसपास के परिवेश और परिचितों पर तो वह निर्ममतापूर्वक क़लम चलाई है, लेकिन ख़ुद को न केवल बचाकर चलता है, बल्कि अपनी एक आदर्श तस्वीर पेश करता चलता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि जहाँ ख़ुद के बारे में असहज या अप्रिय स्थिति बनती है, वहाँ लेखक बेहद चालाकी से कन्नी काट लेता है। राजेन्द्र प्रसाद सिंह की आत्मकथा 'छाया दी' इसका अपवाद है। यहाँ लेखक न केवल अपनी दुर्बलताओं और सीमाओं को स्पष्टतः पाठकों के सामने रखता है बल्कि निज कहानी के साथ-साथ आत्मविश्लेषण भी करता चलता है। इन अर्थों में यह कुछ भिन्न है। इस आत्मकथानक का प्रारंभ कुआँरों को किराये पर मकान न मिलने की समस्या से होता है और लेखक के लिए यह समस्या एक जगह बहुत दिनों तक न रुक पाने की अस्थिर मानसिकता में परिणित हो जाती है। इसी मानसिकता के तहत लेखक अनेकों घर बदलता है और तमाम अनुभवों को समेटता है। 'छाया दी' इसी अनुभव की वह वस्तुगत चेतना है जहाँ लेखक अपने छोटे-छोटे अनुभवों को व्यापक परिप्रेक्ष्य देने की सोचता है।
इस आख्यान में लेखक के जीवन में अच्छे व बुरे के संघर्ष की उग्रतर मनःस्थिति निर्मित होती है। वह निर्बल और शोषित मनुष्यों का पक्षधर होने लगता है। सामजिक विसंगतियाँ उसे परेशान करती हैं और वह उनसे मुठभेड़ करता है। फिर चाहे सामंतों का जनविरोधी आचरण हो, उनकी अय्याशी हो, क्रूरता हो वह अपनी क़ुव्वत के अनुसार उनकी चुनौती स्वीकार करता है। इस चक्कर में वह प्रशासनिक भ्रष्टाचार से दो-चार होता है, उसके आतंक और क्रूरता का शिकार भी होता है। थाने के लॉकअप में बंद होता है, पिटता है और छूटता है। पर यहाँ वह सुपरमैन न होकर एक साधारण युवक की तरह ही कष्ट भोगता है। उसका सफ़र मंज़िल तक पहुँचा या नहीं, बीच राह में उसे कैसे अनुभव मिले, इसका एक प्रामाणिक इतिहास इस आत्मकथा में दृष्टव्य है। सामाजिक अंतर्विरोधों का बड़ा कैनवास यहाँ मौजूद है।
इस आत्मकथा में अनेकों प्रकरण हैं, ग्यारह वर्ष की आयु में अपने गाँव से असम पहुँचने और सिलीगुड़ी आने तक छोटे-मोटे काम करने तथा स्कूल में प्रवेश पाने के। मित्र और शत्रु बनाने के और शत्रुओं से दो-दो हाथ करने की इच्छा के। स्कूल के शिक्षकों की बातें हैं, उनकी नैतिक कमज़ोरियाँ भी हैं और उनकी दृढ़ता भी। अपने अनेक मकानमालिकों के पारिवारिक संघर्षों का भी वर्णन है। और उन चरित्रों का भी जिनका लेखक के जीवन पर प्रभाव पड़ा। माणिक बाबू, डॉ. कालीनाथ चक्रवर्ती का चरित्र बहुत विस्तार से वर्णित हुआ है। मुकुंद और उसकी माँ तथा बहन का मार्मिक चित्रण है तो उसके ताऊ पंडित पारस मणि का पाखंडी और धूर्तता भरा व्यवहार भी। यहाँ महिला चरित्रों को लेखक ने बड़ी उदारता और सम्मान से चित्रित किया है। तृषा, माया, जयंती, इंदु और छाया के चरित्र विविधता लिए हुए हैं। ये सभी सामाजिक विसंगतियों के शिकार हैं। जहाँ कर्नल कामरेड का स्मार्ट, व्यवहारिक और अवसरवादी व्यक्तित्व उजागर किया है वहीं लम्पट युवाओं का भी चित्रण है और नक्सलवाद के अंतर्विरोधों का भी। काँग्रेसी दुचित्तेपन, अनैतिकता और भ्रष्ट चरित्र का उद्घाटन भी हुआ है। बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की दमनकारी मानसिकता और नक्सलियों को मारने की उनकी व्यग्रता भी यहाँ बख़ूबी चित्रित हुई है। नक्सलवाद की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई थी जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के ख़िलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरूप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के ख़िलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया। इस प्रवृत्ति को भी कुछ युवाओं के माध्यम से दिखाया गया है। यद्दपि वहाँ कुछ बेहद प्रतिबद्ध युवा भी मौजूद हैं।
इस आत्मकथा के केंद्रीय चरित्र के रूप में छाया दी है जो स्वयं लेखक की चेतना है। जो उसे अपने अतीत मोह और आत्ममुग्धता से आगे अपना विकास करने को प्रेरित करती है। बहुत सारी बातें हमारे जीवन में गिरावट की तरफ़ ले जाती हैं, असफलता की तरफ़ ले जाती हैं। लेकिन किसी भी ऐसी चीज़ पर ध्यान न देते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले जाना ही वास्तविक संघर्ष होता है। ग़रीबों, शोषितों और वंचितों के प्रति हमदर्दी के अतिरिक्त अविचलित रहकर व्यवस्था परिवर्तन के लिए ज़मीन तैयार करने दायित्व का निर्वाह करना भी आवश्यक है। इस बात का बोध छाया दी कराती है। और भी अनेकों प्रसंग हैं जैसे बंगला देश में पहुँच जाना, वहाँ सांप्रदायिक दुर्भाव से साक्षात करना और फिर लौटना एडवेंचर जैसा है। यह आत्मकथा बहुत शिद्दत से पाठकों को अपने से जोड़ती है और पूरा पढ़ डालने के लिए विवश करती है। उन्हें जीवनसंघर्षो से जुड़ने को प्रेरित करती है। निश्चित रूप से यह एक ऐसी संघर्ष कथा है जो निरंतर सक्रिय सामाजिक दायित्व की ओर इंगित करती है और अपने नागरिक कर्तव्य के निर्वाह के लिए बल देती है। इसीलिए यह महत्वपूर्ण बन जाती है।
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