स्थापित लोग
काव्य साहित्य | कविता शैलेन्द्र चौहान15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
स्थापित लोग स्थापित होने से पहले
कड़ी मेहनत करते हैं
वे अपने कर्म क्षेत्र में घुसते जाते हैं गहरे
वहाँ की मिट्टी को धीरे-धीरे परत दर परत हटाते हैं
उसे सूँघते हैं, समझते हैं
उसकी कठोरता को कम करते हैं
उसे नर्म करते हैं, उपजाऊ बनाते हैं
वे मिट्टी से अलग नहीं होते
मिट्टी बन जाते हैं
जैसे जैसे वे अपने काम में पारंगत होते हैं
वे चूहों की भूमिका में आ जाते हैं
वे छोटे मोटे कीट खाते हैं
अन्न खाते हैं
किसी घर में घुस जाएँ तो
खाद्यान्न के अलावा और भी चीज़ें कुतरने लगते हैं
स्थापित होने के बाद
अपनी स्थिति को बचाए रखने के लिए
वे गुट बनाते हैं
छोटे चूहों को अन्न गोदामों का पता बताते हैं
लोकप्रियता बढ़ाने के लिये तरह तरह के जतन करते हैं
छोटे घरों की अपेक्षा बड़े घरों में घुसते हैं
बेहतर खाद्य पदार्थों का आकर्षण खींचता है
उन्नत होने का अहसास होता है
सार्वजनिक संस्थानों, सरकारी दफ़्तरों और
विशाल महलों का रुख़ करते हैं
वहाँ ख़तरे कम होते हैं सुविधा अधिक
शाम पाँच बजने के बाद उनका अपना राज होता है
वे ख़तरों से खेलते हैं
पकड़े जाने पर दूर वीराने में छोड़े जाने से घबराते नहीं
कोई ज़ालिम मौत के घाट उतार दे
यह रिस्क भी होती है
लेकिन वे अपनी धुन के पक्के होते हैं
धीरे-धीरे वे चूहे से साँप बन जाते हैं
रुत्बा बढ़ जाता है
चूहे डरते हैं सहमते हैं
उनका भोजन बनते हैं
साँप लाभदायक भी होते हैं
नहीं बढ़ने देते चूहों की संख्या
साँप की अपनी विशेषताएँ हैं
पहचान है
कुछ ज़हरीले भी नहीं होते
लेकिन साँप तो साँप
उसका डर बड़ा होता है
लोग सोचते हैं अगर डँस लिया तो नहीं बच पाएँगे
वे नहीं लेते कोई पंगा
स्थापित लोग कड़ी मेहनत करते हैं
बनने के लिये साँप
निर्बल लोग होते हैं उनका भोजन
ख़तरा भाँप छुप जाते हैं बिलों में
समझते हैं वे अंतर अच्छी तरह
निर्बल और सबल का
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