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यायावर मैं–008: ‘धरती’ पत्रिका का ‘शील’ विशेषांक

1983 में ‘धरती’ का त्रिलोचन अंक प्रकाशित हुआ था उसमें शील जी की एक कविता ‘उन्हें आवाज़ दो’ प्रकाशित हुई थी। कविता कुछ यूँ थी:

“मुट्ठियाँ बाँधकर उन्हें आवाज़ दो
उनके कानों तक आँखें हैं
और हैं तुम्हारी आवाज़ में उनकी धड़कनें
जिन्हें वे भोग रहे हैं
मुट्ठियाँ बाँधकर उन्हें आवाज़ दो
वे सब लोग जिन्होंने कल शांति-कपोत उड़ाये थे
अब अरक्षित श्रम की सुरक्षा के लिए
विश्वक्रांति की आहट ले रहे हैं . . .”

सन्‌ 1984 में मैं इलाहबाद से कानपुर आ गया। मेरी पोस्टिंग कानपुर हो गई थी। 1989 तक वहाँ रहा। इस बीच पुरुषोत्तम वाजपेयी जी की मारफ़त शील जी से भेंट हुई। वे किदवई नगर में ‘के’ ब्लॉक में रहते थे और मैं ‘एच’ ब्लॉक में। बहुत ज़्यादा दूरी नहीं थी। यही कोई दो-ढाई कि.मी. रही होगी। प्रायः रविवार को मैं उनके घर जाता। वे केरोसीन वाले स्टोव पर चाय बनाकर पिलाते। साथ में नमकीन भी होता। उनकी दृष्टि कमज़ोर थी लेकिन वे खाना बना लेते थे और अन्य काम भी कर लेते थे। चाय पीते-पीते वे सिगरेट भी सुलगा लेते और बीते दिनों के राजनीतिक-साहित्यक संस्मरण तन्मयता से सुनाते। अच्‍छा लगता। व्यक्तिगत जीवन की घटनाएँ भी उनमें शामिल होतीं। जिस रविवार मैं न जा पाता उस दिन सायकल पर पैडल मारते हुए मेरे घर आ जाते। उन्होंने जीवन में जितना संघर्ष किया था और जितना साहित्य रचा था उसकी तुलना में उनपर बात कम हुई थी। इसका उन्हें मलाल था। उनके मारफ़त मैंने उनका अधिकांश साहित्य पढ़ लिया था। मुझे लगने लगा था कि उनके अवदान पर काम होना चाहिए। 

1988 में मैंने ‘धरती’ के एक अंक को उनपर केंद्रित करने की योजना बनाई। शील जी से सलाह-मशविरा किया कि किस-किससे लिखवाया जाए। उनकी सूची बनाई और सभी को पत्र लिखे। कई बार पत्र लिखे पर कोई रिस्पांस नहीं मिला। एक वर्ष बीत गया। सबका यही कहना था कि शील जी की किताबें उनके पास नहीं हैं और उन्होंने शील जी को पढ़ा नहीं है। किताबें न मेरे पास थीं, न शील जी के पास ही अतिरिक्त प्रतियाँ शेष थीं कि उन्हें भेजी जा सकें। इस बीच मेरा स्थानांतर राजस्थान में कोटा हो गया। तब मैंने यह सोचा कि जब लोगों ने शील जी को पढ़ा नहीं है तो क्यों न उनके साहित्य को ही इस अंक में दे दिया जाए। मैंने उनसे पचास कविताएँ, तीन लेख और तीन कहानियाँ ले लीं और जयपुर आ गया। वहाँ से कोटा पहुँचा। कुछ महीनों बाद एक प्रेस ढूँढ़ा और सामग्री मुद्रक को सौंप दी। अधिकांश सामग्री हाथ से लिखी हुई थी और कुछ फोटोकॉपी की हुई। तब छपाई का काम हाथ की मशीन से होता था। इसी बीच मेरा स्थानांतर जयपुर हो गया। पत्रिका प्रेस के मालिक के भरोसे छोड़ दी। दो मित्रों को भी ज़िम्मेदारी सौंपी लेकिन वे ध्यान नहीं दे पाए। पत्रिका छप गई। ज़्यादा अच्छी नहीं छपी। कुछ प्रूफ़ की ग़लतियाँ भी छूट गईं। यह अखरा लेकिन एक ज़रूरी काम हो गया। 

10 जून 1990 को कोटा के भारतेन्दु भवन में इसका भव्य लोकार्पण संपन्न हुआ। इसमें स्वयं शील जी, वरिष्ठ कथाकार हेतु भारद्वाज, वरिष्ठ कवि ऋतुराज, आलोचक डॉ. जीवन सिंह, नाट्यकर्मी शिवराम, कवि महेन्द्र नेह, आलोचक शंभु गुप्त, कवि विनोद पदरज, प्रेम मिश्रा और कोटा के अनेक साहित्यकार उपस्थित रहे। यह एक छोटी, साधारण पर एक आवश्यक पहल थी जिससे जड़ता टूटी, यथास्थिति ख़त्म हुई और बाद में शील जी पर कुछ महत्त्वपूर्ण काम सामने आया। 

मेरा उद्देश्य पूरा हुआ और उद्यम सार्थक। शील जी का साहित्य सुधी पाठकों तक पहुँच गया। 

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