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यायावर मैं–007: स्थानांतरण

मास्टर फ़िदा हुसैन 'नरसी'

सन 1988 की बात है। उन दिनों मेरी पोस्टिंग मुरादाबाद में थी। वह अक्टूबर का महीना था। तारीख़ शायद सोलह। कानपुर से शील जी आए हुए थे। जनवादी लेखक संघ, मुरादाबाद इकाई की ओर से उनके सम्मान में एक गोष्ठी बुलाई गई थी। उस गोष्ठी में शील जी, कवि-गीतकार माहेश्वर तिवारी, प्रो. धीरेन्द्र प्रताप सिंह, प्रो. मूलचंद गौतम, प्रो. वाचस्पति उपाध्याय, मास्टर फ़िदा हुसैन 'नरसी' एवं अन्य नाट्यकर्मी, (उस वक़्त वहाँ नुक्कड़ नाटक करने वालों की एक बड़ी टीम थी) लेखक, पत्रकार, समाजसेवी तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उपस्थित थे। असल में जब लोग आने शुरू हुए तो थोड़ी देर बाद कुर्ता पायजामा पहने हुए एक लहीम-शहीम व्यक्ति का पदार्पण हुआ। लंबाई साढ़े छह फुट से ज़्यादा ही होगी, शरीर भी स्वस्थ और व्यक्तित्व सौम्य। उनकी उम्र का अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल था। वे उस वक़्त 94 वर्ष के थे लेकिन साठ से ऊपर का सोच पाना मुश्‍किल था। सब लोगों ने उठकर उनका स्वागत किया। तब मुझे पता चला कि वे मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी थे। एक सीबीआई अधिकारी और एक पुलिसकर्मी भी थे जो बहुधा हमारे कार्यक्रम में मित्रवत आ जाते थे। चूँकि कानपुर में मैं शील जी के क़रीब रहा था और उनके ऊपर 'धरती' पत्रिका का अंक निकालने की योजना थी (जो 1991 में कोटा में फलीभूत हो सकी), अतः गोष्ठी का संचालन मुझे सौंपा गया। अध्यक्षता माहेश्वर जी कर रहे थे। गोष्ठी हुई। शील जी का उद्बोधन बहुत महत्त्वपूर्ण था। पहले स्वतंत्रता आंदोलन के कुछ प्रसंगों की उन्हाेंने चर्चा की फिर अपनी कविताओं और नाटकों के बारे में विस्तार से बताया। विशेषकर अपने नाटक 'किसान' के बारे जिसके सोवियत संघ में सात सौ शो हुए। लेनिनग्राद यूनिवर्सिटी में भी खेला गया। नाटक का मंचन पृथ्वी थिएटर के बैनर पर किया गया था जिसके मालिक पृथ्वीराज कपूर थे। यह नाटक राष्ट्रपति भवन में खेला गया। कानपुर में एक माह तक नियमित इसका मंचन हुआ। शील जी के बाद हुसैन साहब ने पारसी थिएटर की भूमिका, सिनेमा पर उसका प्रभाव और आधुनिक रंगमंच के बारे में विस्तार से बताया। आगाहश्र कश्मीरी, नारायण प्रसाद बेताब, राधेश्याम कथावाचक, किशनचंद्र जेबा और तुलसीदत्त शैदा की चर्चा की। पारसी थिएटर के बारे में कम से कम मैं तो पहली बार परिचित हुआ। तब तक बस नाम भर सुना था। 11 मार्च 1894 को मुरादाबाद में जन्मे मास्टर फ़िदा हुसैन को पारसी थियेटर का बादशाह माना जाता था। पृथ्वीराज कपूर के थिएटर के उद्भव में पारसी थिएटर की ऐतिहासिक भूमिका थी। उसका प्रभाव बाद में शुरूआती दौर के सिनेमा तक क़ायम रहा, दिखता रहा। 

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