यशपाल: व्यक्तित्व, वैचारिकता और सृजन
आलेख | साहित्यिक आलेख शैलेन्द्र चौहान15 Dec 2025 (अंक: 290, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
हिंदी साहित्य के विकास में यशपाल एक ऐसे उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं जिन्होंने कथा-साहित्य को वैचारिक दृढ़ता, सामाजिक यथार्थ और क्रांतिकारी चेतना से जोड़ा। उनकी रचनाएँ मात्र मनोरंजन या भावप्रवणता की भूमि नहीं, बल्कि संघर्षशील मनुष्य की ऐतिहासिक-सामाजिक यात्रा का दस्तावेज़ हैं। वे प्रेमचंद के बाद हिंदी में ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने साहित्य में सामाजिक परिवर्तन, वर्ग-संघर्ष और राजनीतिक आंदोलनों को केंद्रीय स्थान दिया। आज की आलोचना-परंपरा में यशपाल को प्रगतिशील यथार्थवाद के सर्वाधिक प्रामाणिक उपन्यासकार के रूप में मान्यता मिली है।
यशपाल का साहित्य उनके जीवनानुभवों का प्रतिफल है। वे क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़े, जेल जीवन देखा, भूमिगत गतिविधियों में शामिल रहे और देश की स्वतंत्रता-संग्राम की वैचारिक उथल-पुथल को प्रत्यक्ष अनुभव किया। इन अनुभवों ने उनकी साहित्य-दृष्टि को क्रांतिकारी रूप दिया।
उनका साहित्य: समाजवादी और वैचारिक आशय से ओतप्रोत है। मानव-मुक्ति और समतामूलक समाज की खोज में रत है तथा पाखंड, सामंती मानसिकता और शोषण की संरचनाओं के विरुद्ध इतिहास और राजनीति के आलोचनात्मक पुनर्पाठ पर आधारित है।
प्रगतिवाद ने यशपाल को एक ऐसी दृष्टि दी, जिसके सहारे उन्होंने साहित्य को वर्ग-संघर्ष के वास्तविक मंच के रूप में परिवर्तित किया। यशपाल का कथा-समाज आदर्शों से अधिक यथार्थवादी है। वे घटनाओं की भीतरी संरचना, सामाजिक शक्तियों के संघर्ष और मनुष्य के क्रियाशील पहलू पर विश्वास रखते हैं। उनकी दृष्टि में साहित्य समाज की परिवर्तनकारी शक्ति है; इसलिए वे कथानक को विचारों के साथ जोड़ते हैं।
उनका यथार्थवाद अनेक स्तरों पर प्रकट होता है—
1. राजनीतिक यथार्थ–स्वतंत्रता-आन्दोलन, क्रांतिकारियों का अंतरजगत, संघर्ष और विश्वासघात।
2. आर्थिक यथार्थ–गरीबी, श्रम, वर्गीय असमानता।
3. सांस्कृतिक यथार्थ–परंपराओं का दबाव, सामाजिक पाखंड।
4. ऐतिहासिक यथार्थ–इतिहास को सत्ता के बजाय आम जन की दृष्टि से देखना।
यशपाल का यथार्थवाद “उद्घाटन” की प्रक्रिया है—वे जीवन की उन तहों को प्रकट करते हैं जो सामान्य रूप में अदृश्य रहती हैं।
यशपाल के प्रमुख उपन्यासों की आलोचनात्मक विवेचना सहज ही सम्भव है।
‘दादा कामरेड’: क्रांतिकारी संघर्ष का जीवंत दस्तावेज़
यह यशपाल का पहला उपन्यास है, जिसमें उन्हें क्रांतिकारी आन्दोलन के जीवन और वैचारिक दुविधाओं का प्रत्यक्ष अनुभव था। उपन्यास में: क्रांतिकारियों के त्याग, साहस और मानवीय कमज़ोरी, विचारधारा और व्यवहार के बीच तनाव, सामाजिक न्याय की खोज गहराई से उभरते हैं। यशपाल यहाँ किसी रोमांटिककरण में नहीं फँसते—‘दादा कामरेड’ क्रांति को मानवीय यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करता है।
‘देशद्रोही’: स्वतंत्रता-आन्दोलन की विडंबनाएँ
‘देशद्रोही’ यशपाल के राजनीतिक-सामाजिक चिंतन को परिपक्व रूप में सामने रखता है। यह उपन्यास बताता है कि:
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स्वाधीनता-संघर्ष में नेतृत्व और जन-संघर्ष के बीच कितनी दूरी थी।
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अंग्रेज़ी सत्ता के साथ-साथ स्वदेशी सामंतवाद भी जनता का शोषक था।
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राष्ट्रवाद के भीतर मौजूद आंतरिक विसंगतियाँ।
यह उपन्यास विचारधारा की दृष्टि से तीखा है और यशपाल की राजनीतिक चेतना के निर्भीक स्वर को उजागर करता है।
‘मेरी तेरी उसकी बात’: युद्ध, शोषण और समाज की फटती बनावट
द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखा यह उपन्यास मानव-व्यवहार की बिखरती नैतिकताओं का चित्रण है। इसमें यशपाल यह दिखाते हैं कि युद्ध सिर्फ़ सैनिकों की नहीं, पूरे समाज की त्रासदी है। आर्थिक असमानता युद्ध के समय और घातक हो जाती है। राजनीतिक उथल-पुथल आम जीवन को भीतर तक तोड़ देती है।
यह उपन्यास मनोवैज्ञानिक और वैचारिक दोनों स्तरों पर महत्त्वपूर्ण है।
‘झूठा सच’: विभाजन का महाकाव्य
यशपाल का सबसे बड़ा और सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘झूठा सच’ हिंदी साहित्य में विभाजन की त्रासदी का महाकाव्य माना जाता है। दो खंडों में प्रकाशित—1. वतन और देश, 2. देश का भविष्य—यह उपन्यास दर्शाता है कि:
विभाजन राजनीतिक निर्णय का परिणाम नहीं, औपनिवेशिक सत्ता और हिंदू-मुस्लिम नेतृत्व की विफलताओं का नतीजा था।
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सांप्रदायिकता एक योजनाबद्ध राजनीति है।
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आम आदमी हमेशा सत्ता के खेल का शिकार बनता है।
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स्त्रियाँ विभाजन की सबसे बड़ी पीड़ित।
‘झूठा सच’ में यशपाल ने विभाजन की घटनाओं को वैचारिक विमर्श और मानवीय करुणा के साथ संयोजित किया है। पात्र जैसे—जयदेव, तारा, कनक—मात्र पात्र नहीं, विभाजन-कालीन चेतना की प्रतीक संरचनाएँ हैं।
यह उपन्यास यशपाल की कथा-शक्ति, चरित्र-निर्माण, ऐतिहासिक दृष्टि और वैचारिक परिपक्वता का चरम उदाहरण है।
यशपाल की नारी-चेतना: स्त्री की स्वतंत्रता की निर्णायक आवाज़
यशपाल हिन्दी के उन थोड़े उपन्यासकारों में हैं जिन्होंने नारी का प्रश्न केवल सामाजिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक प्रश्न के रूप में देखा।
उनकी कथा में स्त्रियाँ स्वतंत्र निर्णय लेने वाली, शिक्षा और नौकरी के माध्यम से स्वावलंबन की ओर अग्रसर तथा प्रेम, विवाह, मातृत्व आदि के बारे में स्वयं निर्णय लेने वाली और पुरुष-सत्ता को चुनौती देने वाली दिखाई देती हैं।
तारा (झूठा सच), शैल (दिव्या), कनक, शन्नो आदि चरित्र यह सिद्ध करते हैं कि यशपाल की नारी-दृष्टि स्त्री को मनुष्य के रूप में स्वीकारने की प्रगतिशील चेतना है।
यशपाल के चरित्र विचारधारा से प्रभावित अवश्य हैं, परन्तु वे शुष्क या प्रचारवादी नहीं बनते।
उनके पात्र जटिल मनोविज्ञान, सामाजिक दबाव, वैचारिक संघर्ष, व्यक्तिगत आकांक्षाएँ इन सबके बीच अपनी राह तलाशते हैं। उनके चरित्र एकांगी नहीं हैं; वे विकासशील हैं और समय के दबाव में बदलते हैं। यही यथार्थवादी साहित्य का मुख्य गुण है।
यशपाल का भाषा-शिल्प उनकी लोकप्रियता का बड़ा कारण है। वे सरल, सुबोध और संवादप्रधान भाषा में लिखते हैं। उनकी शैली की विशेषताएँ:
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लोकोक्ति, कहावत और बोलचाल की अभिव्यक्ति,
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संवादों के माध्यम से वैचारिक टकराव,
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कहानी की गति को बनाए रखने वाली भाषा,
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व्यंग्य और तंज़ के तीखे प्रयोग
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तर्कपूर्ण परिच्छेद और विश्लेषणात्मक शैली।
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उनकी भाषा में कठिनता नहीं, बल्कि वैचारिक स्पष्टता है।
हालाँकि यशपाल एक महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार माने जाते हैं, किन्तु आलोचना ने कुछ मूलभूत प्रश्न भी उठाए हैं—
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कई आलोचकों का मत है कि यशपाल के उपन्यासों में कभी-कभी विचारधारा पात्रों पर हावी हो जाती है, जिससे कथा-कला प्रभावित होती है।
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उनकी गद्य-शैली में विवेचनात्मकता कभी-कभी कथा की सहजता कम कर देती है।
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कुछ जगह पात्र अत्यधिक बौद्धिक हो जाते हैं और भावनात्मक पक्ष कमज़ोर पड़ता है।
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‘झूठा सच’ जैसे उपन्यासों में विवरण की अधिकता पाठक को थका सकती है।
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परन्तु यह भी तथ्य है कि इन आलोचनाओं के बावजूद यशपाल की साहित्यिक विरासत भारतीय लेखन परंपरा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
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यशपाल हिंदी साहित्य को कई स्तरों पर समृद्ध करते हैं।
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प्रगतिशील यथार्थवाद को प्रामाणिक रूप देना।
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उपन्यास को राजनीतिक-ऐतिहासिक विमर्श के माध्यम के रूप में स्थापित करना।
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विभाजन जैसी राष्ट्रीय त्रासदी का सबसे व्यापक चित्रण प्रस्तुत करना।
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स्त्री-स्वतंत्रता का क्रांतिकारी दृष्टिकोण देना।
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हिंदी उपन्यास को आधुनिकता, समाजवाद और इतिहास-बोध से जोड़ना।
इस प्रकार वे मात्र कथा-लेखक नहीं, 20वीं सदी के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहासकार भी हैं।
सारतः यशपाल का उपन्यास-साहित्य भारतीय समाज की वैचारिक और राजनीतिक जटिलताओं का शक्तिशाली आकलन है। उन्होंने उपन्यास को जीवन-संघर्षों की प्रयोगशाला बनाया, जहाँ व्यक्ति और समाज दोनों के संकट परख में आते हैं। उनके उपन्यासों में क्रांति, इतिहास, प्रेम, नारी-चेतना और मानव-मूल्य—सभी का समन्वय मिलता है।
यशपाल की लेखनी में एक क्रांतिकारी मनुष्य का विश्वास, एक सजग बुद्धिजीवी का विश्लेषण, और एक मानववादी कलाकार का हृदय—तीनों का सुंदर संयोग है। वे निश्चय ही हिंदी के सबसे महत्त्वपूर्ण वैचारिक उपन्यासकारों में अग्रगण्य हैं। हिंदी उपन्यास-परंपरा में उनका योगदान अत्यंत विशिष्ट, गहन और स्थायी है।
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