यायावर मैं – 002: दुस्साहस
संस्मरण | स्मृति लेख शैलेन्द्र चौहान1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
वो दिन थे जब पढ़ना एक ऐसी ज़रूरत थी जिसके बाद नौकरी मिलने की उम्मीद बँधाई जाती थी। घर वालों की आशाएँ, आकांक्षाएँ आपकी संभावित नौकरी पर टिकी होती थीं। नौकरी लग जाएगी तो कुछ आर्थिक सहयोग हो सकेगा। इसके लिए कुछ न कुछ योग्यता, डिग्री वग़ैरह होनी चाहिए। वैसे हाई स्कूल उर्फ़ मैट्रिक से लेकर स्नातक होने तक कुछ न कुछ संभावनाएँ अवश्य दिखती थीं। तो अब मैंने हायर सेकंडरी पास कर ली थी। और पंद्रह वर्ष का हो गया था। पिता अब मुझे ताने दिया करते थे। कब तक मुफ़्त की तोड़ते रहोगे कुछ कमाओ खाओ। मैं जब तुम्हारी उम्र का था तो कमाने लगा था। मैट्रिक पास करने के बाद नौकरी कर ली थी। वह प्रायमरी स्कूल मास्टर हो गए थे। हालाँकि उन्होंने मैट्रिक सत्रह-अठारह की उम्र में पास की होगी। उनके पिता जीवित नहीं थे। मामा स्टेट पीरियड में पीडब्लूडी में असिस्टेंट इंजीनियर थे। उन्होंने नौकरी लगवा दी थी। उनका रुतबा था। तब पढ़ना-लिखना बहुत आम भी नहीं था। अब तो बहुत लोग पढ़ रहे थे। फिर मैं पंद्रह वर्ष का ही था। क्या नौकरी मिलती! मज़दूरी की जा सकती थी। ख़ैर, एक तरफ़ वह ताने मारते थे दूसरी ओर वह यह भी उम्मीद रखते थे कि अच्छा पढ़ जाऊँगा तो अच्छी नौकरी मिल जायेगी। और तीसरी बात यह थी कि इस उम्र तक मुझसे घर का या ज़िम्मेदारी का कोई काम नहीं कराया जाता था। माँ जब गाँव पर रहती थीं तो घर का और मेरा सारा काम पिता ही करते थे। तो मैं ऐसा कुछ कर सकता था इस बारे में मुझमें आत्मविश्वास बिल्कुल भी नहीं था, जब तक कि बिल्कुल सड़क पर छोड़ न दिया जाऊँ।
हायर सेकंडरी पास करने के बाद स्थानीय जैन कॉलेज में बीएससी प्रथम वर्ष में मेरा एडमीशन करा दिया गया। मैं कॉलेज जाने लगा। अब छुट्टियों में मैंने अकेले गाँव जाना शुरू कर दिया था। इस बार जब मैं गाँव पहुँचा तो ननिहाल से किसी शादी का निमंत्रण आया हुआ था। पिता विदिशा में ही थे। माँ शादी-ब्याह में तभी जाती थीं जब उन्हें कोई लेने आता था। माँ बोलीं तुम चले जाओ। यूँ गाँव के शादी-ब्याह में जाना मुझे क़तई पसंद नहीं था लेकिन ननिहाल का मामला था इसलिए जाना ज़रूरी था। मैं चला आया।
ननिहाल पहुँच कर हमउम्र मामाओं से भेंट हो गई। बहुत से संबंधियों से मुलाक़ात हुई। विवाह में बहुत लोग आए हुए थे। विवाह संपन्न हो गया। लोग वापस लौटने लगे। उस समय तुरंत आना और तुरंत लौटना नहीं होता था। हफ़्ता-दस दिन पहले लोग पहुँच जाते थे और बहुधा इतना ही बाद में रुककर वापस लौटते थे। इस बार मेरी मुलाक़ात भिंड ज़िले में ब्याही एक मौसी के बेटे राजेश से हुई। उसने भी उस वर्ष हायर सेकंडरी पास की थी और बीएससी में एडमीशन लिया था। उसका ध्येय मेडिकल में जाने का था। हमारी अच्छी मित्रता हो गई थी।
विवाह के बाद सब ख़ाली ख़ाली सा हो गया। राजेश गवालियर जाना चाहता था पर अकेले नहीं साथ में मुझे भी ले जाना चाहता था। उसके ताऊ जो मेहगाँव से विधायक थे, उनका गवालियर में मकान था और उनका परिवार वहाँ रहता था। ताऊ जी 'बाबा' के नाम से जाने जाते थे। उनका पूरा नाम रायसिंह भदौरिया था। सम्भवतः 1967 में भारतीय जनसंघ से एमएलए बने थे। अच्छे सामाजिक कार्यकर्ता भी थे और अपने क्षेत्र में अच्छा नाम था। दिक़्क़त यह थी कि राजेश बिना किसी को बताए गवालियर जाना चाहता था। कारण क्या था मुझे याद नहीं। मैं यह बिल्कुल अच्छा नहीं मानता था। बहरहाल तय यह हुआ कि जाते समय जो रास्ते में दिखेगा उसे बता दिया जायेगा। मेरे पास कुछ पैसे थे, राजेश के पास भी थे। उसका परिवार आर्थिक रूप से अधिक संपन्न था। यूँ पिता उसके भी शिक्षक थे। सुबह हम लोग निकले और उरई, झांसी होते हुए शाम तक गवालियर लगे। स्टेशन से टैंपो पकड़ कर जयेंद्रगंज पहुँचे।
मुख्य सड़क पर ही बाबा का मकान था। मकान पुरानी स्टायल का दुमंज़िला था। दो-तीन तरफ़ कमरे बीच में छोटा आँगन। ऊपर उनका परिवार, बेटे बहू रहते थे। राजेश के पहुँचने से लोग ख़ुश हुए। खाना खाकर हम लोग एक कमरे में रुक गए। सुबह से हम लोग घूमने निकल लिए कुछ टैंपो सवारी ज़्यादातर पैदल। दो दिनों में लश्कर और गवालियर काफ़ी कुछ घूम लिया गया। बाड़ा, क़िला, छतरियाँ, महल, फूलबाग, मोती झील, ज़ू, पुरातत्व संग्रहालय और कला वीथिका उर्फ़ आर्ट गैलरी। पुरातत्व संग्रहालय विदिशा और सांची में देखा था लेकिन आर्ट गैलरी देख कर कुछ नया अनुभव हुआ। तानसेन का मक़बरा सम्भवतः छूट गया था। रीगल होटल में शास्त्रीय संगीत नीचे बिछे गद्दों पर बैठकर सुनना भी रोमांचित करने वाला था। इतना सब कुछ एक साथ पहली बार देखा था। यह आश्चर्यजनक था। ज़ाहिर है यह सब राजेश की वजह से ही सम्भव हुआ था। राजेश किस काम से या उद्देश्य से गवालियर आया था यह ध्यान नहीं। उसकी रुचियाँ कला-संस्कृति की ओर झुकी थीं यह भी नहीं लगा पर वह व्यवहार कुशल और एक्स्ट्रोवर्ट था। यद्यपि एक अपराधबोध था। लेकिन मेरे अनुभव और ज्ञान में भारी इज़ाफा हुआ था। हम लोग अगली सुबह वापस ननिहाल लौट लिए। ननिहाल पहुँच कर दो दिन तक ख़ूब डाँट-फटकार सुनी। और फिर स्थिति सामान्य होने पर मैं गाँव लौट आया। उसके बाद राजेश से पुनः भेंट नहीं हुई।
— क्रमशः
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