बदल गये हम
काव्य साहित्य | कविता शैलेन्द्र चौहान15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
बदल गये हम तो इतने
न पहचान सके ख़ुद को भी
लड़ते थे बचपन में कर लेते थे कुट्टी
फिर भूल सभी गिले शिकवे
साथ खेलते थे हम
चाव बहुत था सब कुछ जानें
घटता जो पास हमारे
और सुनाते अग्रज जो कुछ
उसको पहचानें
विद्यालय से कॉलेज तक
मस्ती में रहते, हँसते गाते
संस्कारों, मूल्यों, आदर्शों को रटते
परिजनों के सम्मान की ख़ातिर डटते
अपनी दुनिया नई-नई रचते
उन्नत होगा यह समाज
बदलेगा संसार
सबको कपड़ा, सबको अन्न मिलेगा
काम मिलेगा, सम्मान मिलेगा
श्रम का पूरा दाम मिलेगा
भटके काफ़ी तब काम मिला
प्रतिद्वंद्विता, स्पर्धा और ईर्ष्या
दफ़्तर वाली राजनीति
व्यवहारिक ज्ञान बढ़ा
जानी देश विदेश की घटनाएँ
कूटनीति और अर्थनीति
कैसा गोरखधंधा है
जो कूट कुटिल वह शक्तिमान
जो भोला भाला वह परेशान
मन में ठानी यह सब ख़त्म करेंगे
विषमता और अन्याय मिटेंगे इक दिन
जीवन सबका सुंदर होगा
लगे रहे हम इसी यत्न में
फिर सब तेज़ी से बदला
जो सोचा था उसका उल्टा
लेकिन आस नहीं छोड़ी
आपस में इक दूजे को समझाया
हर हाल में होगा सब चंगा
कटु यथार्थ है सतत संघर्ष
धीरे-धीरे स्वप्न हुए धूमिल
ख़ुद की चिंता बड़ी लगी
निज स्वार्थ औ' नित नये समझौते
अच्छा और बुरा गड्डमड्ड सब
था एक मदारी एक जमूरा
देखा था तब हमने
अब फैले चारों ओर जमूरे
जीवन भर जिनने विरोध की बातें की
सुर उनके अब बदले
ग़ज़ब तमाशा प्रहसन नये नये
हैं आज मुखौटे कई कई
भूले वह चेहरा जो दमका करता था
नहीं दिखाई देता वह
अब उससे डर लगता है
कितने बदल गये हम
न पहचान सके ख़ुद को भी
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