समाज, प्रकृति, पर्यावरण
आलेख | सामाजिक आलेख शैलेन्द्र चौहान15 May 2023 (अंक: 229, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
जैसे-जैसे यह दुनिया अन्योन्याश्रितता (interdependence) की ओर बढ़ रही है वैसे-वैसे हमारा भविष्य और मज़बूत तथा ज़ोखिम भरा भी होता जा रहा है। यह सही है कि हम सब लोग इस दुनिया में मिलकर काम कर रहे हैं पर साथ ही साथ हम पर्यावरण के लिए ख़तरे भी पैदा कर रहे हैं। हमें ख़ुद को आगे विकसित करते हुए इन ख़तरों को पैदा होने से रोकना है और समाज को एक मानव-संवेदी परिवार बनाकर चलना है। हमें अपने इस विकास-क्रम में आत्मनिर्भर समाज, प्रकृति के प्रति सम्मान, मानव अधिकारों की रक्षा, आर्थिक न्याय, श्रम का महत्त्व (डिग्निटी ऑफ़ लेबर), शान्ति जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों का भी ध्यान रखना है। यह ज़रूरी है कि हम समाज तथा आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझें।
पृथ्वी संपूर्ण मनुष्य जाति एवं जीवों का निवास स्थान है। यह एक मात्र ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन है। ध्यातव्य है कि यह जीवन प्रकृति की वज़ह से है। प्रकृति ही मनुष्य जाति के लिए जीने के साधन जुटाती रही है। प्रकृति ही मनुष्य जाति का पालन करने के लिए पृथ्वी पर साफ़ पानी, साफ़ हवा और वनस्पति तथा खनिज उपलब्ध कराती है। आज वही प्रकृति और पर्यावरण ख़तरे में है। वस्तुओं के अंधाधुंध उपभोग और उत्पादन के हमारे वर्त्तमान तौर-तरीक़ों से पर्यावरण नष्ट हो रहा है, जीव लुप्त होते जा रहे हैं। मनुष्य जाति में आपस में प्रतिद्वंद्विता छिड़ गई है। शक्तिशाली गुट शक्तिहीन गुटों को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। अमीर गुट ग़रीब गुटों के दुश्मन हो गए हैं। अमीरी और ग़रीबी की दूरी बढ़ती जा रही है। ग़रीब विकास का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं। अमीरी और ग़रीबी के इस टकराव में सारे अधिकार अमीरों के पास सुरक्षित हो गए हैं। ग़रीब अधिकारहीन हैं। इससे जो सामाजिक बुराइयाँ पैदा हुईं हैं वे ही पर्यावरण तथा मनुष्य जाति के लिए ख़तरा बन गईं हैं। ये बुराइयाँ हैं: अन्याय, ग़रीबी, अशिक्षा तथा हिंसा। इन बुराइयों को समाप्त करने की आवश्यकता है।
एक-दूसरे की रक्षा करने का संकल्प लेना अब हमारे लिए बहुत आवश्यक हो गया है। यदि हमने अभी यह निर्णय नहीं लिया तो पृथ्वी पर हम तो नष्ट होंगे ही, साथ ही अपने साथ अन्य जीवों, पशु-पक्षियों के नष्ट होने का ख़तरा भी बढ़ाते जाएँगे। इस ख़तरे को टालने के लिए हमें अपने रहन-सहन में बदलाव लाना होगा और अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना होगा। वन्य प्राणियों का शिकार, उन्हें जाल में फँसाना, जलीय जीवों को पकड़ना ये सभी क्रूरतापूर्ण कार्य दूसरे जीवों को कष्ट देते हैं, इन्हें रोकना होगा। वैसे प्राणी जो लुप्त प्राणियों की श्रेणी में नहीं हैं, उन प्राणियों की भी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है।
विकास का अर्थ हमें सम्पूर्ण मानव जाति की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से लेना होगा। आज हमारा विज्ञान आज इतनी तरक़्क़ी कर चुका है कि पृथ्वी को नष्ट करने वाली शक्तियों पर रोकथाम लगाने के साथ हम सभी की आवश्यकताओं को भी पूरा कर सकता है। अतः हमें अपनी योजनाओं को लोकोन्मुखी और लोकतांत्रिक बनाना होगा। हमारे सभी कार्यक्रम लोकोन्मुखी होने चाहिए। हम सभी की चुनौतियाँ आपस में एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, जैसे–पर्यावरणिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चुनौती। इसलिए हम सबको मिलकर इसका हल निकालना होगा।
इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए सार्वजनिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित करनी आवश्यक है। हमें स्थानीय समाज के साथ-साथ वैश्विक समाज के साथ भी अपने रिश्ते को पहचानना होगा। एक राष्ट्र के साथ-साथ हम लोग एक विश्व के भी नागरिक हैं तथा विश्व और इस विश्व के विशाल जीव-जगत के प्रति हर व्यक्ति का अपना उतरदायित्व है। ब्रह्मांड के रहस्य और प्रकृति द्वारा दिए जीवन के प्रति सम्मान तथा मानवता और प्रकृति में मानव की गौरवपूर्ण उपस्थिति के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने पर आपसी भाईचारा और बन्धुत्व की भावना और मज़बूत होती है। यह बहुत आवश्यक है कि मौलिक सिद्धांतों में आपसी तालमेल हो जिससे आनेवाले समाज को एक नैतिक आधार मिले। हम सभी को एक ऐसे सिद्धांत पर केन्द्रित होना होगा जो जीवन स्तर में समानता लाए, साथ ही उससे व्यक्तिगत, व्यावसायिक, सरकारी एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को भी दिशा निर्देश मिले और उनका आकलन हो सके। पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवधारियों का जीवन एक-दूसरे से जुड़ा है और हम एक दूसरे के बिना नहीं जी सकते। यहाँ रहने वाले छोटे-बड़े सभी जीव महत्त्वपूर्ण हैं। किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। निर्बल, उपेक्षित हर मनुष्य के स्वाभिमान की रक्षा करनी होगी। उनकी बौद्धिक, कलात्मक, सांस्कृतिक और विवेकशील क्षमताओं पर विश्वास करना होगा।
प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व प्रबन्धन तथा प्रयोग के अधिकारों को प्रयोग करने से पहले यह तय करना होगा कि पर्यावरण को कोई नुक़्सान न पहुँचे और जनजाति एवं आदिवासी समुदायों के लोगों के अधिकारों की रक्षा करें। समाज में मानव अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। हर व्यक्ति को विकास का अवसर प्राप्त होना चाहिए। सामाजिक तथा आर्थिक न्याय को बढ़ावा मिले तथा हर किसी के पास स्थायी और सार्थक जीविका का ऐसा आधार हो जो पर्यावरण को नुक़्सान ना पहुँचाए। हमारा हर कार्य आने वाली पीढ़ी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए। आने वाली पीढ़ी को उन मूल्यों, परम्पराओं, और संस्थाओं, के बारे में जानकारी देनी होगी जिससे मानव और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके। उपभोग सामग्री (Luxuries) में कमी लानी बहुत ज़रूरी है।
चिरस्थायी विकास की उन सभी योजनाओं और नियमों को अपनाया जाना चाहिए जो हमारे विकास में सहायक हैं तथा जिनसे पर्यावरण की रक्षा होती है। पृथ्वी के सभी जीवों की रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है। साथ ही वन्य व समुद्री जीवों की रक्षा भी आवश्यक है ताकि पृथ्वी की जीवनदायिनी शक्तियों की रक्षा हो सके। पशुओं की समाप्त हो चुकी प्रजातियों के अवशेषों की खोज को हमें बढ़ावा देना है। प्राकृतिक प्रजातियों तथा वातावरण को नुक़्सान पहुँचाने वाले कृत्रिम परिवर्तन तथा कृत्रिम प्रजातियों के विकास पर रोक लगनी चाहिए। जल, मिट्टी, वन्य संपदा, समुद्री प्राणी ये सब ऐसे संसाधन हैं जिन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाया जा सकता है, फिर भी इन्हें सोच-समझकर प्रयोग में लाया जाना चाहिए जिससे ना तो ये नष्ट हों और ना ही पर्यावरण को कोई नुक़्सान पहुँचे। हमें खनिज पदार्थों तथा खनिज तेल का उत्पादन भी सोच समझकर करना होगा। ये पदार्थ धरती के अन्दर सीमित मात्रा में हैं और इनका समाप्त होना भी मानव जाति के लिए ख़तरनाक है। हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम मिट्टी की उपजाऊ शक्ति (Fertility) की रक्षा करें और पृथ्वी की सुन्दरता को बनाए रखें।
वैज्ञानिक पद्धतियों की जानकारी के अभाव के बावज़ूद पर्यावरण को किसी भी प्रकार की हानि से बचाना बहुत आवश्यक है। यदि आपका कार्य पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं है तो इसके लिए आपके पास ठोस सबूत होने चाहिए और यदि आप द्वारा किया जा रहे कार्य ने पर्यावरण को नुक़्सान पहुँचाया तो इसकी ज़िम्मेवारी आपकी होगी। हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हमारे द्वारा लिए गए निर्णयों का सम्बन्ध मनुष्य द्वारा किए गए कार्यों से हो। इन निर्णयों का प्रभाव लम्बे समय तक के लिए लाभकारी होना चाहिए। पर्यावरण को दूषित करने वाले साधनों पर रोक लगनी चाहिए तथा विषैले पदार्थ, विकिरण और प्रकृति के लिए हानिकारक तत्वों (Toxic, Radio Active and Hazardous materials) व कार्यों के निर्माण पर भी पाबन्दी लगनी चाहिए। ऐसी सैनिक कार्यवाही पर भी रोक लगानी होगी जो पर्यावरण को नुक़्सान पहुँचाते हैं। उत्पादन, उपभोग के दौरान काम आने वाले सभी घटकों का उपयोग हो सके और इस दौरान जो अवशेष निकले वह प्रकृति के लिए नुक़्सान पहुँचाने वाला सिद्ध ना हो। ऊर्जा के प्रयोग में हमें सावधानी बरतनी होगी। हमें सूर्य और वायु जैसे ऊर्जा के साधनों के महत्त्व को जानना होगा। ये ऐसे साधन हैं जिनका उपयोग बार-बार किया जा सकता है। हमें उन तकनीकों के विकास, प्रयोग और प्रचार को महत्त्व देना होगा जो पर्यावरण की रक्षा मेंउपयोगी हो सके। वस्तुओं और सेवाओं की क़ीमतों में उनके सामाजिक तथा पर्यावरणिक सुरक्षा से जुड़े ख़र्चों को भी शामिल करना होगा जिससे उपभोक्ताओं को इस बात का अहसास हो सके कि इन वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धता में पर्यावरणीय और सामाजिक क़ीमतें चुकानी पड़ती हैं। स्वास्थ्य कल्याण और सुरक्षा से सम्बन्धित सेवा सबके लिए उपलब्ध होनी चाहिए। हमें ऐसी जीवन पद्धति को चुनना होगा जो हमारे जीवन स्तर को बेहतर बनाए और प्रकृति की भी रक्षा करे।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विज्ञान और तकनीक में सुचारु सम्बन्ध होना, प्रत्येक देश का विकास होना और उनकी आत्मनिर्भरता में बढ़ोत्तरी आवश्यक है। विकासशील देशों के लिए यह और भी आवश्यक है। सभी देशों की संस्कृति और स्वायत्तता को सुरक्षित रखना है। इससे पर्यावरण और मानव हितों की रक्षा होती है। इस बात की भी कोशिश करनी होगी कि स्वास्थ्य, पर्यावरण सुरक्षा और आनुवांशिकता से जुड़ी आवश्यक और लाभदायक जानकारी लोगों को मिलती रहे। सुनिश्चित करना होगा कि शुद्ध जल, शुद्ध वायु, भोजन, घर और सफ़ाई जैसी सुविधाएँ सभी के लिए हों। विकासशील देशों में शिक्षा, तकनीक, सामाजिक और आर्थिक संसाधनों का निरंतर विकास होना चाहिए तथा उन्हें भारी अंतरराष्ट्रीय क़र्ज़ों से मुक्ति मिलनी चाहिए। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि सभी प्रकार के व्यापार में प्राकृतिक संसाधनों के पुनः इस्तेमाल के महत्त्व को समझा जाए। यदि ऐसे व्यापारों में श्रमिकों से काम लिया जा रहा है तो श्रम नीतियाँ लागू हों। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों को सार्वजनिक हित के काम में आगे आना चाहिए। उनके कामों में पारदर्शिता होनी चाहिए। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थ का समान रूप से विभाजन अपेक्षित है। सभी को शिक्षा और आजीविका के साधन मिलने चाहिए तथा उन्हें सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान की जानी चाहिए विशेषकर जो इन्हें प्राप्त करने में असमर्थ हैं। उपेक्षित, प्रताड़ित और पीड़ित वर्ग की क्षमताओं को विकसित करना आवश्यक है।
महिलाओं और लड़कियों को मानव अधिकारों से अलग नहीं किया जा सकता। उनके ख़िलाफ़ हो रहे सभी प्रकार के अत्याचारों को रोकना होगा। महिलाओं को पुरुषों के बराबर आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने को प्रोत्साहित करना होगा। परिवार के सभी सदस्यों के बीच सुरक्षा और प्रेम की भावना का विकास करते हुए परिवार की संकल्पना को मज़बूत करना होगा। जाति, रंग, लिंग, धर्म, भाषा, राष्ट्र और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर उपजे भेदभाव को समाप्त करना होगा। हमें आदिवासियों के रहन-सहन, जीविका प्राप्त करने के तौर-तरीक़ों, भूमि सम्बन्धी अधिकारों और धार्मिक धारणाओं को स्वीकार करना होगा। समाज के युवा वर्ग की भावनाओं को सम्मान और प्रोत्साहन देना जिससे कि वे एक स्वस्थ और आत्मनिर्भर समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकें। सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्त्व के सभी स्थानों की सुरक्षा और रख-रखाव की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी। सबको पर्यावरण सम्बन्धी व सभी प्रकार की विकास योजनाओं तथा प्रक्रियाओं की सम्पूर्ण जानकारी दी जानी चाहिए। स्थानीय, क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नागरिकों के उत्थान के लिए प्रयास किये जाने चाहिए। विचारों की अभिव्यक्ति, किसी बात पर असहमत होने तथा शांतिपूर्ण सभा करने का अधिकार सभी को मिलना चाहिए। कुशल प्रशासन तथा स्वतंत्र न्याय प्रणाली की स्थापना ज़रूरी है। वातावरण को प्रदूषण से बचाने और उसके सुधार का प्रयत्न भी आवश्यक है। सभी सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाओं से भ्रष्टाचारमुक्त होना होगा। स्थानीय समुदायों को मज़बूत बनाना होगा ताकि वे अपने आसपास के पर्यावरण के प्रति जागरूक रह सकें। सभी को, विशेषकर बच्चों और युवाओं को शिक्षा के अवसर देने होंगे तभी हमारा समाज आत्मनिर्भर हो सकेगा। विभिन्न कलाओं और विज्ञान का लाभ रोजगारोन्मुखी शिक्षा को मिल सके, इसकी व्यवस्था करनी होगी। सामाजिक और पर्यावरणिक चुनौती के प्रति जागरूकता के लिए संचार माध्यमों की मदद लेनी होगी। नैतिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा के बिना हम आत्मनिर्भर नहीं हो सकते, इस बात को भी ध्यान में रखना होगा।
अपने देश और दूसरे देशों में रहने वाले भिन्न-भिन्न संस्कृति एवं धर्मों के लोगों के बीच सौहार्द, एकता और सहकारिता की भावना को बढ़ावा देना होगा। हिंसात्मक टकराव को रोकने के लिए ठोस पहल करनी होगी। पर्यावरण की रक्षा पर आम राय बनानी होगी। सैनिक संसाधनों का प्रयोग शान्ति के लिए होना चाहिए। पारिस्थिकी के पुनर्निर्माण में भी इसका उपयोग हो सकता है। आणविक व जैविक अस्त्रों जैसे विध्वंसक और वातावरण में विष फैलाने वाले अस्त्रों पर रोक लगनी चाहिए। पृथ्वी व आकाश (का प्रयोग पर्यावरण की सुरक्षा और शान्ति के लिए होना चाहिए। हमें यह मालूम होना चाहिए कि शान्ति एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है। स्वयं की खोज आवश्यक है और यही खोज जब दूसरे लोगों की ओर, दूसरी संस्कृति की ओर, दूसरे जीवधारियों की ओर बढ़ती है और जब पूरी पृथ्वी से हमारा एक जीवंत रिश्ता बन जाता है तो शान्ति का प्रारम्भ होता है। यह एक नई शुरूआत है। इस नवीनीकरण का अर्थ है Earth Charter से जुड़े सभी वादों के प्रति विश्वास। सुखद भविष्य के लिए हमें उन सभी मूल्यों और आदर्शों को अपनाना होगा, जो Earth Charter का लक्ष्य है। इसके लिए हमें स्वयं को बदलना होगा, सोच को बदलना होगा, अपने रहन-सहन को बदलना होगा। साथ-साथ मौखिक सहयोग, पारस्परिक निर्भरता और सार्वभौमिकता को परस्पर आदर व सम्मान देना होगा। हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संवाद बढ़ाना और उसके क्षेत्र का विस्तार करना भी ज़रूरी है क्योंकि अपेक्षित परिणाम को पाने और बुद्धि-विवेक के विकास के लिए यह जो साझा प्रयास होगा उससे हमें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। जीवन में महत्त्वपूर्ण मूल्यों के बीच विरोध प्रकट होते रहते हैं और फिर इनके बीच सामंजस्य मुश्किल हो जाता है पर हमें प्राणी जगत की भलाई के लिए उदारता, सहनशीलता तथा दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा तभी कोई सही रास्ता निकल सकेगा।
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