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उनके अपने कोणार्क

 

तीन दशक से अधिक समय बीत चुका है। हिंदी में एक उपन्यास पढ़ा था कोणार्क की पृष्ठभूमि पर रूमानी उपन्यास था चंद्रकांता जी का। तब से कोणार्क देखने की इच्छा थी। यह उपन्यास ‘अपने अपने कोणार्क’ नाम से राजकमल पर उपलब्ध है और इसके प्रथम संस्करण का प्रकाशन वर्ष 2019 बताया गया है। मैं कुछ भ्रमित हुआ हूँ। क्या वाक़ई पहली बार यह 2019 में छपा है? तो तीन दशक पहले जो मैंने पढ़ा था वह क्या था? बहरहाल, बात सिर्फ़ एक उत्कंठा की थी कि कोणार्क का सूर्य मंदिर वहाँ के समुद्र तट, चंद्रभागा नदी और पुरी के समुद्र तट देखने हैं। साथ में चिलिका झील भी। बाद में यह प्राथमिकता बदल गई। एक संपन्न उड़ीसा की जगह दक्षिण और पश्चिम उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्र देखना ज़रूरी लगा। पर देख वह भी न सका। कई बार सोचा, कार्यक्रम बनाया पर नहीं जा सका। नौकरी के कारण और कुछ घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण देश के अधिसंख्य राज्य देख सका लेकिन उड़ीसा जाना नहीं हो पाया। यूँ पूर्वोत्तर के पाँच राज्य अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिज़ोरम, नागालैंड और त्रिपुरा भी अभी तक नहीं जा पाया हूँ। तो 2023 वर्षांत में उड़ीसा के इस उत्तर-पूर्वांचल का कार्यक्रम बन ही गया। दो-एक ट्रैवल एजेंट्स से पता किया। उन्हाेंने धार्मिक भ्रमण का प्रस्ताव दिया जिसे वे आध्यात्मिक भ्रमण कह रहे थे। मैंने उनसे सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, पर्यावरणीय स्थलों की रूपरेखा चाही तो वे नहीं दे पाये। ऐसी स्थिति में यह निर्णय लिया कि अपने आप ही जो समझ आये और सुविधाजनक हो वही घूमा जाये। अतः भुवनेश्वर के पास कुछ स्थान चुन लिए। कोणार्क और उसके समुद्र तट, पुरी के समुद्र तट, चिलिका झील, धौलिगिरि, पिपली और रघुराजपुर विरासतीय गाँव। भुवनेश्वर शहर में म्यूज़ियम, प्लेनेटेरियम, वन्यजीव और वनस्पति उद्यान सूची में रख लिए। 

25 दिसंबर की रात्रि हम भुवनेश्वर पहुँचे। गेस्ट हाउस तक पहुँचने पर यह इल्म हो गया कि भुवनेश्वर एक खुला-खुला शांत और सुंदर शहर है। 26 से हमने एक टैक्सी तय कर ली। टैक्सी का स्वामी और ड्रायवर प्रशांत एक सुशील और शांत युवक था। हमने उसे अपनी ज़रूरत समझाई। वह समझ गया। पहले रोज़ हम कोणार्क गये। मंदिर के भग्नावशेष देखे। उसपर उकेरे गये चित्र देखे। अंदर प्रवेश वर्जित था। वहाँ कुछ देर ठहरे। बाहर रास्ते पर लगे बाज़ार से एक किलो काजू ख़रीदे जो बाक़ी जगहों की तुलना में आधी क़ीमत पर मिल रहे थे। फिर चंद्रभागा बीच पर गये। तदुपरांत पुरी के गोल्डन बीच पर। जगन्नाथ मंदिर के दर्शनार्थियों को देखा। उनकी आँखों में एक ख़ास तरह का एडवेंचर देखा। भीड़ और सुरक्षा के चलते मंदिर का शिल्प देखना सम्भव नहीं था। आधा किलोमीटर दूर से आते-जाते भक्तगण दिख रहे थे। बाहर मिठाई की दुकानों पर विशेष क़िस्म का खाजा मिल रहा था वह लिया और चखा। स्वादिष्ट था। अँधेरा हो चला था। एक अन्य बीच दूसरे दिन के लिये छोड़ा और भुवनेश्वर की ओर लौट लिये। बीच में पीपली में एप्लीक काम देखने के लिये मुड़े लेकिन बाज़ार बंद था। दूसरे दिन सबसे पहले रघुराजपुर गये। घुसते ही हर घर पर चित्रकारी दिखी। अद्भुत गाँव था। वहाँ पट्टचित्र कलाकारों से भेंट की। चित्र देखे। चित्रकारी की कार्यविधि समझी। पत्नी ने उसका वीडियो बनाया। एक चित्र ख़रीद कर वहाँ से बाहर आये। तत्पश्चात् चिलिका के लिए रवाना हुए। अनेक गाँवों से गुज़रते हुए सतपड़ा पहुँचे। वहाँ झील में बोटिंग के लिए टिकिट मिल रहे थे। टिकिट अत्यंत महँगे थे। लेकिन इतनी दूर जाने के बाद यूँ लौटना ठीक नहीं लगा इसलिए टिकिट ख़रीद लिये। एक गंदी, ख़राब सी नाव, मोटर लगी हुई। ग़रीब नाविक और झील का उथला पानी। कुछ दूर चलने के बाद एक जगह नाव किनारे लगा दी। वहाँ व्यवसाय शुरू हुआ। पहले केकड़े दिखाए। फिर सीप में से मोती निकाल कर दिखाए। फिर कोरल से रत्न निकाल कर दिखाए। डल की याद आई जहाँ शिकारे के पास दूसरी नावों से सामान बेचने वाले आ जाते हैं। वियतनाम में भी होचिमिन्ह सिटी में एक नहर में नौकायन के दौरान कई तरह के मनोरंजन वाले लोग आ जाते हैं। वहाँ से चले तो कुछ देर बाद एक जगह नाव रुक गई। नाविक ने बताया यहाँ डॉल्फिन दिखेंगी। बीस मिनिट इंतज़ार किया। कुछ भी नहीं दिखा। लौटते वक़्त बहुत गंदे खाने की जगहों पर रोका। पर्यावरण को बचाने का दावा था लेकिन झील के किनारों पर गंदगी थी। कुछ दूरी पर बंगाल की खाड़ी में झील मिल रही थी। वहाँ समुद्र तट पर रुके। शाम ढल रही थी। वापस लौट लिए। पूरी के समुद्र तट पर रुकते हुए वापस भुवनेश्वर पहुँचे। पीपली का एप्लीक काम देखा। अगले दिन भुवनेश्वर में म्यूज़ियम देखा। ताड़पत्र पर लिखी गई पांडुलिपि उसकी विधि देखकर अच्छा लगा। 

कोणार्क शब्द, ‘कोण’ और ‘अर्क’ शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य, जबकि कोण से अभिप्राय कोने या किनारे से रहा होगा। प्रस्तुत कोणार्क सूर्य-मन्दिर का निर्माण लाल रंग के बलुआ पत्थरों तथा काले ग्रेनाइट के पत्थरों से हुआ है। इसे 1236–1264 ईसा पूर्व गंग वंश के तत्कालीन सामंत राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया था। यह मन्दिर, भारत के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। इसे युनेस्को द्वारा सन् 1984 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है। कलिंग शैली में निर्मित इस मन्दिर में सूर्य देव (अर्क) को रथ के रूप में विराजमान किया गया है तथा पत्थरों को उत्कृष्ट नक़्क़ाशी के साथ उकेरा गया है। सम्पूर्ण मन्दिर स्थल को बारह जोड़ी चक्रों के साथ सात घोड़ों से खींचते हुए निर्मित किया गया है, जिसमें सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया है। परन्तु वर्तमान में सातों में से एक ही घोड़ा बचा हुआ है। मन्दिर के आधार को सुन्दरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महीनों को परिभाषित करते हैं तथा प्रत्येक चक्र आठ अरों से मिल कर बना है, जो अर दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं। यहाँ पर स्थानीय लोग सूर्य-भगवान को बिरंचि-नारायण कहते थे। 

मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मण्डप में जहाँ मूर्ति थी, अंग्रेज़ों ने स्वतंत्रता से पूर्व ही रेत व पत्थर भरवा कर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बंद करवा दिया था ताकि वह मन्दिर और क्षतिग्रस्त ना हो पाए। इस मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएँ हैं:

बाल्यावस्था—उदित सूर्य-8 फ़ीट
युवावस्था—मध्याह्न सूर्य-9.5 फ़ीट
प्रौढ़ावस्था—अपराह्न सूर्य-3.5 फ़ीट

इसके प्रवेश पर दो सिंह हाथियों पर आक्रामक होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाये गए हैं। दोनों हाथी, एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएँ एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये 28 टन की 8.4 फ़ीट लंबी 4.9 फ़ीट चौड़ी तथा 9.2 फ़ीट ऊँची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिह्न के रूप में अंगीकार कर लिया है। ये 10 फ़ीट लंबे व 7 फ़ीट चौड़े हैं। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। इसके के प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर है। ये वह स्थान है, जहाँ मंदिर की नर्तकियाँ, सूर्यदेव को अर्पण करने के लिये नृत्य किया करतीं थीं। पूरे मंदिर में जहाँ तहाँ फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक़्क़ाशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की आकृतियाँ भी एन्द्रिक मुद्राओं में दर्शित हैं। यह मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है। इस प्रकार की आकृतियाँ मुख्यतः द्वारमण्डप के द्वितीय स्तर पर मिलती हैं। इस आकृतियों का विषय स्पष्ट किन्तु अत्यंत कोमलता एवं लय में सँजो कर दिखाया गया है। जीवन का यही दृष्टिकोण, कोणार्क के अन्य सभी शिल्प निर्माणों में भी दिखाई देता है। 

इनकी मुद्राएँ कामुक हैं और कामसूत्र से लीं गईं हैं। 

तेरहवीं सदी का मुख्य सूर्य मंदिर, एक महान रथ रूप में बना है, जिसके बारह जोड़ी सुसज्जित पहिए हैं, एवं सात घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। यह मंदिर भारत के उत्कृष्ट स्मारक स्थलों में से एक है। यहाँ के स्थापत्य अनुपात दोषों से रहित एवं आयाम आश्चर्यचकित करने वाले हैं। यहाँ की स्थापत्यकला वैभव एवं मानवीय निष्ठा का सौहार्दपूर्ण संगम है। मंदिर का प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प आकृतियाँ भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों (लगभग दो हज़ार हाथी, केवल मुख्य मंदिर के आधार की पट्टी पर भ्रमण करते हुए) और पौराणिक जीवों, के अलावा महीन और पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उड़िया शिल्पकला की हीरे जैसी उत्कृष्ट गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है। 

मंदिर अब आंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। यहाँ की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। महान कवि व नाटकार रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस मन्दिर के बारे में लिखा है: कोणार्क जहाँ पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है। 

धौलिगिरि हिल्स (उड़िया: ଧଉଳିଗିରି/धउळिगिरि) भुवनेश्वर से 8 किमी दूर, दया नदी के किनारे पर स्थित है। इसके आसपास विशाल खुली जगह के साथ एक पहाड़ी है, और पहाड़ी के शिखर पर एक बड़े चट्टान में अशोक के शिलालेख उत्कीर्ण है। धौली पहाड़ी को कलिंग युद्ध क्षेत्र माना जाता है। दया नदी का पानी लड़ाई के बाद मृतकों के ख़ून से लाल हो गया था, और अशोक को युद्ध के साथ जुड़े आतंक की भयावहता का एहसास कराने में सक्षम हुआ। आस-पास के क्षेत्र में भी संभवतः अशोक के कई शिलालेखों है और विद्वानों के तर्क के रूप में टंकपाणी सड़क पर भाश्करेश्वर मंदिर में एक स्तूप पाया गया है। 

कुछ सालों बाद धौली बौद्ध गतिविधियों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया। उन्होंने वहाँ कई चैतिय, स्तूपों और स्तंभों का निर्माण किया। पहाड़ी के शीर्ष पर, एक चमकदार सफ़ेद शान्ति स्तूप 1970 के दशक में जापान बुद्ध संघा और कलिंग निप्पॉन बुद्ध संघ द्वारा बनाया गया है। 

पुरी से 44 किमी की दूरी पर, चिल्का झील एशिया की सबसे बड़ी अंतर्देशीय खारे पानी की लैगून है जो ओड़िशा में सातपाड़ा के पास स्थित है। दया नदी के मुहाने पर स्थित, चिल्का झील भारत का सबसे बड़ा तटीय लैगून है और न्यू कैलेडोनिया में न्यू कैलेडोनियन बैरियर रीफ के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खारे पानी का लैगून भी है। 

1,100 वर्ग किमी में फैली, नाशपाती के आकार की झील उत्तर में पूरी ज़िले के भुसंदपुर से लेकर दक्षिण में गंजम ज़िले के रंभा-मलूद तक फैली हुई है, जो दलदली द्वीपों और रेत की 60 किमी लंबी संकीर्ण पट्टी द्वारा बंगाल की खाड़ी से अलग होती है। फ़्लैट झील बड़े मत्स्य संसाधनों वाला एक पारिस्थितिकी तंत्र है। यह तट और द्वीपों पर 132 गाँवों में रहने वाले 150, 000 से अधिक मछुआरों का भरण-पोषण करता है। 1981 में, चिल्का झील को रामसर कन्वेंशन के तहत अंतरराष्ट्रीय महत्त्व की पहली भारतीय आर्द्रभूमि नामित किया गया था। 

यह झील चिल्का झील अभयारण्य के नाम से सबसे सहायक पारिस्थितिक तंत्रों में से एक के रूप में भी कार्य करती है। यह भारतीय उपमहाद्वीप पर प्रवासी पक्षियों के लिए सबसे बड़ा शीतकालीन प्रवास स्थल है। कैस्पियन सागर, बैकाल झील, अरल सागर और रूस के अन्य सुदूर हिस्सों, मंगोलिया के किर्गिज़ मैदान, मध्य और दक्षिण पूर्व एशिया, लद्दाख और हिमालय से पक्षी यहाँ आते हैं। सफ़ेद पेट वाले समुद्री ईगल, ग्रेलेग गीज़, पर्पल मूरहेन, जाकाना, हेरोन्स और फ्लेमिंगो उन कई प्रजातियों में से हैं जो झील को पक्षी प्रेमियों के लिए आनंददायक बनाती हैं। चिल्का वास्तव में, राजहंस की दुनिया की सबसे बड़ी प्रजनन कॉलोनियों में से एक है। 
जलीय वन्य जीवन की उपस्थिति के लिए काफ़ी प्रसिद्ध होने के कारण, चिल्का झील अभयारण्य में इरावदी डॉल्फ़िन भी हैं जो अन्य डॉल्फ़िन से भिन्न हैं क्योंकि उनका रंग और पृष्ठीय पंख कम प्रमुख हैं। पक्षी प्रजातियों के अलावा, इस क्षेत्र में ब्लैकबक, गोल्डन जैकल्स, स्पॉटेड हिरण और हाइना जैसे विभिन्न जंगली जानवर भी पाए जाते हैं। चिल्का झील अभयारण्य अपने गतिशील सूर्योदय और सूर्यास्त दृश्यों के लिए अनुकूल रूप से जाना जाता है। 

चिल्का वन्यजीव अभयारण्य यह झील सबसे आकर्षक हनीमून द्वीप और ब्रेकफ़ास्ट द्वीप सहित छोटे-छोटे द्वीपों से सुसज्जित है। इसके पास सबसे प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षणों में से एक कालीजई मंदिर है, जो देवी कालीजई को समर्पित है। मंदिर में मकर संक्रांति बहुत धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है जो कई यात्रियों और भक्तों को आकर्षित करती है। 

उड़ीसा में इको-पर्यटन के लिए चिल्का झील सबसे लोकप्रिय स्थल है। 

क्षेत्र में विदेशी वन्य जीवन की उपस्थिति के अलावा, झील और इसके आसपास जलीय और ग़ैर जलीय पौधों की प्रचुरता के साथ एक समृद्ध पुष्प प्रणाली है। हाल के पर्यावरण सर्वेक्षण में चिल्का झील और उसके आसपास पौधों की 710 से अधिक प्रजातियों की उपस्थिति का पता चला है। सभी प्रकार की कई दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियों सहित वनस्पतियों और जीवों की इतनी विशाल विविधता चिल्का झील को रामसर स्थल मानने का मुख्य कारण रही है। 

चिल्का में नौकायन सबसे लोकप्रिय गतिविधियों में से एक है। चिल्का झील का दौरा साल भर किया जा सकता है, हालाँकि नवंबर से फरवरी तक का समय चिल्का झील की यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय है। विशेष रूप से, यह प्रवासी पक्षियों का मौसम है और इसलिए इन महीनों के दौरान इस झील को देखना और भी रोमांचक है। लेकिन इसका संरक्षण और रख-रखाव दयनीय स्थिति में है। पर्यटकों से नौकाविहार के लिए काफ़ी पैसे वसूले जाते हैं और ख़राब सेवाएँ दी जाती हैं। 

टूटी और गंदी नौकाएँ, अकुशल नाविक, डॉल्फ़िन और प्रवासी पक्षियों को न दिखाना इनके ख़राब प्रबंधन का प्रमाण है। 

रघुराजपुर भारत के ओड़िशा के पुरी ज़िले में एक विरासतीय शिल्प गाँव है, जो अपने मास्टर पट्टचित्र चित्रकारों के लिए जाना जाता है, जो इस क्षेत्र में 5 ईसा पूर्व की कला है, और गोटीपुआ नृत्य मंडली, जो ओडिसी के भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूप का पूर्ववर्ती है। रघुराजपुर गाँव के निवासी कई पीढ़ियों से विश्व प्रसिद्ध पटचित्रों और ताड़ के पत्तों पर कलाकारी के माध्यम से पौराणिक कथाएँ सुना रहे हैं। पूरी शहर से लगभग 14 किलोमीटर दूर रघुराजपुर गाँव में कुल 160 घर हैं, जहाँ के हर घर में कम से कम एक पटचित्र कलाकार है। प्रत्येक घर को विभिन्न कलाकृतियों और भित्तिचित्रों से से सजाया गया है। देश-दुनिया के तमाम पर्यटक यहाँ पटचित्रों और ताड़ के पत्तों की नक़्क़ाशी को सीखने और ख़रीदने के लिए आते हैं। 

सूती कपड़े पर प्राकृतिक रंगों का उपयोग करके कलाकारी करना पट्टचित्र कलाकारी कहलाता है। यह पेंटिंग का एक प्राचीन रूप है। ताड़ के पत्तों पर नक़्क़ाशी रघुराजपुर की एक और प्रसिद्ध कला है, जो सूखे ताड़ के पत्तों पर सुई-धागों की मदद से बनाया जाता है। इस कला में नाज़ुक धागों की मदद से एक कहानी को बयाँ करने की कोशिश की जाती है। 

इसे ओडिसी प्रतिपादक पद्म विभूषण गुरु केलुचरण महापात्र और गोटीपुआ नर्तक पद्म श्री गुरु मगुनी चरण दास के जन्मस्थान के रूप में भी जाना जाता है। यह शिल्प गुरु डॉ. जगन्नाथ महापात्र का जन्मस्थान भी है, जो एक प्रमुख पट्टचित्र कलाकार हैं और उन्होंने पट्टचित्र कला और रघुराजपुर गाँव के विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया है। इसके अलावा, यह गाँव टसर पेंटिंग, ताड़ के पत्ते की नक़्क़ाशी, पत्थर की नक़्क़ाशी, लकड़ी की नक़्क़ाशी, गाय के गोबर के खिलौने, पेपर-मैशे के खिलौने और मुखौटे जैसे शिल्पों का भी घर है। हम एक चित्रकार से मिले जिसने बताया कि पट्टचित्र पेंटिंग कपड़े के एक टुकड़े पर बनाई जाती है जिसे पट्टा या सूखे ताड़ के पत्ते के रूप में जाना जाता है। जिसे पहले चाक और गोंद के मिश्रण से चित्रित किया जाता है। तैयार सतह पर, फूलों, पेड़ों और जानवरों के अलंकरण के साथ विभिन्न देवी-देवताओं और पौराणिक दृश्यों के रंगीन और जटिल चित्र चित्रित किए जाते हैं। टसर साड़ियों, विशेष रूप से संबलपुरी साड़ी पर मथुरा विजय, रासलीला और अयोध्या विजय को दर्शाने वाली पेंटिंग की उत्पत्ति ‘रघुराजपुर पट्टचित्र पेंटिंग’ से हुई है। 

पट्टचित्र बनाने की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए अशोक बेहरे कहते हैं, “एक पट्टा बनाने के लिए दो से तीन सूती साड़ियों को लिया जाता है। इमली के बीजों को रात भर भिगोया जाता है, इसके बाद उसे उबालकर गोंद बनाया जाता है। इस गोंद का उपयोग सूती साड़ियों और कपड़ों की परतों को चिपकाने के लिए किया जाता है, जिसे बाद में विशेष सफ़ेद चाक पत्थर से पॉलिश किया जाता है। इसके बाद इस पट्टे पर एक पेंटिंग बनाई गई है।”

एक पटचित्र कलाकार पेंटिंग बनाने के लिए पाँच मुख्य प्राकृतिक रंगों का उपयोग करता है। इनमें लाल, काला, पीला, सफ़ेद और गेरुआ (लाल-गेरू) रंग शामिल हैं। “हम सफ़ेद रंग बनाने के लिए शंख का उपयोग करते हैं। ओड़िशा की पहाड़ियों पर मिलने वाले हिंगुलाल पत्थर का उपयोग लाल रंग बनाने के लिए किया जाता है। दीया काजल से काला रंग बनता है, वहीं गेरू पत्थर हमें गेरुआ रंग देता है। पीला रंग पीले पत्थर से निकला है, जिसे हरताल कहा जाता है। इन मूल रंगों को मिलाकर कई दूसरे रंग भी बनाये जाते हैं। हमारे गाँव में कृत्रिम रंगों पर प्रतिबंध है।” अशोक बेहरे कहते हैं, “इन सभी रंगों को सूखे नारियल के गोले में मिलाया जाता है। रंगों को कैथा (लकड़ी के सेब) के गोंद के साथ मिश्रित किया जाता है जो पेंटिंग को ख़राब होने से रोकता है। चित्रकारों द्वारा उपयोग किए जाने वाले महीन ब्रश चूहों के बालों से बने होते हैं।”

चित्रकारों का दावा है कि उनकी कला प्रकृति और पर्यावरण का ख़्याल रखती है। “हम अपनी पेंटिंग बनाने के लिए केवल प्राकृतिक उत्पादों का उपयोग करते हैं, जैसी—ख़राब सूती साड़ियों का उपयोग पट्टा बनाने के लिए किया जाता है। इसके अलावा प्राकृतिक गोंद और चाकस्टोन का भी प्रयोग किया जाता है। पटचित्र बनाने में महिला कलाकारों की अहम भूमिका होती है। “महिला कलाकारों के बिना, हम पुरुष कलाकार कुछ भी नहीं हैं। वे ही हैं जो इमली के बीजों से गोंद तैयार करती हैं और चाक और चूना पत्थर से पट्टों का उपचार करती हैं। उसके बाद ही हम लोग पट्टों पर चित्र बना सकते हैं। 

ओड़िशा में सबसे रंगीन हस्तशिल्पों में से एक पिपली शिल्प गाँव में एप्लिक का काम है, जो भुवनेश्वर से 18 किमी दूर स्थित है। यह शिल्प, जिसे स्थानीय रूप से चंदुआ कहा जाता है। भले ही एप्लिक कार्य के विकास और उत्पत्ति के पीछे कोई इतिहास नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरूआत 17वीं और 18वीं शताब्दी में हुई थी जब पुरी के जगन्नाथ मंदिर में धार्मिक जुलूसों के दौरान कपड़े और सजावटी टुकड़ों का इस्तेमाल किया जाता था। जैसे ही कोई इस अनोखे छोटे से गाँव के पास पहुँचता है, रंगों का बहुरूपदर्शक आगंतुकों का स्वागत करता है। हस्तशिल्प प्रत्येक दुकान को विभिन्न पैटर्न और आकारों में सजाते हैं—छतरियों से लेकर लालटेन, कुशन कवर, बैग, तकिया कवर से लेकर कैनोपी और भी बहुत कुछ। पेशेवर दर्जियों की एक विशिष्ट जाति, जिसे ‘दर्जी’ के नाम से जाना जाता है, द्वारा की जाने वाली हस्तकला की जटिलता अद्वितीय है। एप्लिक बनाने की तकनीक में मूल रूप से विभिन्न रंगीन कपड़ों को काटा जाता है जिन्हें बाद में दूसरे फ़ॉउंडेशन फैब्रिक की सतह पर सिल दिया जाता है। लुक को निखारने के लिए डिज़ाइन में ख़ूबसूरत सूईवर्क, सेक्विन और दर्पण जोड़े गए हैं। सिलाई एक आइटम से दूसरे आइटम में भिन्न होती है, लेकिन इसे छह शैलियों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाता है: ‘बखिया’, ‘तारोपा’, ‘गांथी’, ‘चिकाना’, ‘बटन’ होल और ‘रुचिंग’। कपड़े के पैच सरल होते हैं और रूपांकन अधिकतर देवताओं, जानवरों, पक्षियों, फूलों और पौधों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यह गाँव लगभग 150 कारीगरों का घर है और दुकानदारों और उत्पादों को ख़रीदने वाले सेल्समैन के अलावा, 500 लड़कियाँ सूई के काम में शामिल हैं। हालाँकि पहले यह कला केवल दर्जी जाति तक ही सीमित थी, आज इसका अभ्यास गैर-जाति के सदस्यों, विशेष रूप से गाँव में मुसलमानों के एक समूह द्वारा किया जाता है। इतिहास और प्रकॄति के साथ इस तरह कलाओं का भी कुछ अंदाज़ ले लिया। घुमक्कड़ी का एक आंशिक चरण संपन्न हुआ। 

घुमक्कड़ी पर राहुल सांकृत्यायन के विचार: ‘मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया। जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुतः तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार ख़ून की नदियाँ बहायी हैं, इसमें संदेह नहीं और घुमक्कड़ों से हम हरगिज़ नहीं चाहेंगे कि वे ख़ून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के क़ाफ़िले न आते-जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती।’

घुमक्कड़ी के बारे में वह कहते थे, ‘मेरी समझ में दुनिया की सबसे बेहतर चीज़ है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है।’

उनके अपने कोणार्क

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