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आचार्य द्विवेदी स्मृति संरक्षण साहित्यिक महायज्ञ पोस्टर

आचार्य द्विवेदी स्मृति संरक्षण साहित्यिक महायज्ञ यात्रा

आचार्य द्विवेदी स्मृति संरक्षण साहित्यिक महायज्ञ  : कुछ यादगार स्मृतियाँ 

हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान’ के तहत नवम्बर 2022 को रायबरेली में आयोजित की गई साहित्यिक यात्रा का सहभागी बनने का स्वर्णिम अवसर पाकर हम कृतकृत्य हो गए। दक्षिण भारत से हमारा प्रतिनिधि मंडल कार्यक्रम के आयोजक और इस ‘द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति’ के संरक्षक आदरणीय गौरव अवस्थी जी के आमंत्रण पर लगभग 2000 कि.मी. की दूरी को लाँघ कर इस यात्रा का आनंद प्राप्त करने निकल पड़ा। चूँकि इस प्रदेश का भ्रमण हमारा पहला अनुभव था तो सोचा क्यों न इस यात्रा को तीर्थ यात्रा भी बना दिया जाए और लगे हाथों ‘नैमिश और अयोध्या’ जी के दर्शन भी कर ही लिए जाएँ। तो बस निकल पड़े इस रोमांचक साहित्यिक तीर्थ यात्रा पर। 

नवम्बर का आरंभिक सप्ताह। यात्रा के लिए सुखद समय। न अधिक कँपकँपाने वाली ठंड, न धूप की तपन। हम चेन्नई से हैदराबाद पहुँचे थे फिर हैदराबाद से लखनऊ। लखनऊ में हमारे ठहरने की व्यवस्था सरकारी गेस्ट हाउस में करवा दी गई थी। आते वक़्त हवाई जहाज़ में भारी-भरकम नाश्ता कर लिया था तो चल पड़े लखनऊ से गाड़ी में सवार सीधा नैमिशारण्य की ओर। 

नैमिशारण्य . . . लखनऊ से 95 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। ग्रामीण अँचल का रास्ता। हाँ, रास्ते में अधिक भोजनालय हमें नहीं दिखे थे। हम भोजन प्रिय हैं इसीलिए दृष्टि उन्हें ही ढूँढ़ती है। पर सड़क की स्थिति ठीक ही थी तो अधिक परेशानी नहीं हुई। हम लगभग दो घंटे में नैमिश पहुँच गए। इस पावन प्रदेश को नैमिश कहना ही समुचित लगा क्योंकि अब यह अरण्य तो रहा नहीं। पहला दर्शन चक्र तीर्थ का किया। माना जाता है यह वही पुण्य स्थली है जहाँ सर्वप्रथम सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी ने अपने चक्र से पृथ्वी में छिद्र कर जल की उत्पत्ति की थी। इस तीर्थ के चारों ओर गोलाकार में अनेक देवी देवताओं के मंदिर स्थापित है। आइए इस पावन धाम की कुछ जानकारी प्राप्त करें। 

नैमिश . . . तैंतीस करोड़ देवी देवताओं के तपो बल से अभिसिंचित इस यज्ञ स्थली का दर्शन मात्र जड़वत मन में भी स्फूर्त चैतन्य भर दैविक स्पंदन से अभिभूत करने में सक्षम है। अठारह महा पुराणों का सर्जन धाम है यह महिमांवित नैमिश! मान्यता है कि करोड़ों जन्मों के ताप त्रय को क्षण में मिटा देने वाली अद्भुत शक्ति से मण्डित है यह तपोभूमि। यहाँ कई आलय और उपालय बने हुए हैं जिनमें श्री महाविष्णु आलय, माता ललिताम्बा का आलय और महाबली हनुमान जी का आलय पर्यटकों के मुख्य आकर्षण के केंद्र है। तमिल भक्ति साहित्य ‘आलवार प्रबंध काव्य’ में इस स्थल का उल्लेख मिलता है और इसे महा विष्णु के 108 धामों में मुख्य धाम माना गया है। हमने उन आलयों के दर्शन किए और प्रसाद भी ग्रहण किया। यहाँ हनुमान जी के आलय की एक विशेषता यह भी है कि बजरंग बली का मूल विग्रह दक्षिणाभिमुखी है जो बहुत कम देखने को मिलता है। मंदिर का परिसर भले ही छोटा सा है पर मूर्ति अत्यंत विशाल और आकर्षक है। सिंदूर से आविष्ट विशाल मूर्ति को देखकर रोंगटे खड़े हो गए और मन कुछ पलों के लिए अनायास विचार शून्य हो गया। 

थोड़ी दूर पर हमें पिप्पलाद का वह वृक्ष मिला जहाँ महर्षि दधीचि के अस्थि दान के उपरांत उनकी पत्नी माता सुवर्चा द्वारा काया त्याग से पूर्व गर्भस्थ शिशु का योग क्रिया द्वारा स्वयं को पृथक कर उस प्राचीन पीपल की छत्र छाया में रखा गया था। पीपल की एक डाल का दुग्ध पान करने के कारण पालन-पोषण होने से शिशु का ‘पिप्पलाद’ नामकरण हुआ। यह विशाल पीपल का वृक्ष आज भी अपनी शीतल छाया से आगंतुकों के आदि-भौतिक ताप हर रहा है। 

तदनंतर दधीचि कुण्ड का दर्शन प्राप्त किया। यह वही स्थल है जहाँ महर्षि दधीचि ने देवराज इंद्र को वृत्तासुर के वध हेतु अपनी अस्थियों का दान कर दिया था। अद्भुत आश्चर्य! कितना तपोतेज था हमारे सनातन ऋषियों में। कितना बल था उनकी साधना में . . . और तो और उन्होंने करुणा वश अपनी दूर-दृष्टि से सोच विचार कर भावी संतति के कल्याणार्थ अपने तेज को, अपने उस तपोधन को इन धामों में भू-स्थापित कर दिया था। आज भी यहाँ कण-कण में आप उस दिव्य स्पंदन को अनुभूत कर सकते हैं। धन्य है यह देश और धन्य हैं हम जिन्होंने इस पावन धरा पर जन्म लिया। इन स्थलों की महिमा को जानकर, देखकर एक अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति में मन स्वतः ही समाधिस्थ हो गया। 

वापसी लखनऊ की ओर। संध्या समय गोमती के दर्शन किए । सुंदर और मनोरम दृश्य। शांत और निर्मल गोमती में चमकता चाँद। सचमुच ख़ूबसूरती का नज़ारा था। वहाँ से शहर का एक चक्कर काटा, परिक्रमा की और फिर अगले पल चपल जिह्वा मचल उठी। जठराग्नि भड़क उठी। क़सम से इसमें हमारा दोष न था। दरअसल हमें लोगों ने बरगला दिया था कि लखनऊ आकर चाट न खाई तो क्या खाया? यहाँ की चाट बहुत ही लोकप्रिय है। तो आने से पहले ही ठान लिया था कि वापसी में चाहे कितनी रात भी हो जाए चाट तो ज़रूर खाएँगे। और फिर चाट खाने का मज़ा तो शाम को ही अपने रंग में आता है। तो हमारे ड्राइवर महाराज हमें ले चले ‘शुक्ला चाट भंडार’। अच्छी ख़ासी भीड़ थी। हमने चाट का ऑर्डर दिया और अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगे। अचानक निगाहें ऊपर लिखे पटल पर गईं तो पाया . . . लिखा था . . . 1968 में स्थापित। वाह! आश्चर्य हुआ। सच मानिए . . . अगर इतना स्वादिष्ट खाना हो तो फिर क्या असंभव? चाट की कटोरी का दर्शन करते ही हम बस पिल पड़े, कटोरियाँ आती रही और ख़ाली होती रहीं। और शुक्ला जी को भी जब जानकारी मिली कि हम दक्षिणवासी है तो बस वे आवभगत में अति उत्साहित होकर हमें हर व्यंजन का स्वाद चखाते रहे . . . खिलाते रहे। हमने भरपेट खाया। वैसे शुक्ला जी की सामने चाय की दुकान भी थी, जिस पर भी हमें धावा बोलना था पर आज की हमारी ग्राह्य क्षमता ने जवाब दे दिया। सो भारी हृदय से कुल्हड़ वाली चाय को कल के लिए छोड़ दिया, शुक्ला जी का धन्यवाद किया और मुड़ चले विश्राम गृह की ओर। 

अगली सुबह गुनगुनाती हल्की धूप में आलू के पराँठों और मीठी दही का सुस्वादु नाश्ता कर हम चले अपने आतिथेय से भेंट करने। उनसे अल्प समय की बातचीत सम्पन्न हुई और उन्हें प्यार भरा अलविदा कह कर अपने गम्य स्थान की ओर प्रस्थान किया। 

चले प्रभु श्री राम की जन्म स्थली ‘अयोध्या’। 

लखनऊ से लगभग 130 कि.मी. की दूरी पर स्थित है यह पावन प्रदेश। मोक्षदायिनी सप्त पुरियों में प्रथम मानी जाने वाली सूर्यवंशियों की राजधानी यह अयोध्या सरयू के तीर पर बसी पावन पौराणिक नगरी है। यहाँ पहुँचने में हमें लगभग दो घंटे का समय लगा। सड़क की स्थिति भी ठीक-ठाक ही थी तो समय पर हम पहुँच गए थे। पहला दर्शन हमारा हुआ सरयू तट का। कल-कल बहती सरयू की धारा। शांत निर्मल पानी का तेज़ बहाव देखकर गोस्वामीजी की पंक्तियाँ ज़ेहन में कोंध गईं:

“बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥
 माँगी नाव न केवटु आना। कहै तुम्हार मरमु मैं जाना॥”

मन गद्‌गद्‌ हो आया। अगाध भवसागर से तारने वाले प्रभु श्री राम का इसी तट पर अनुज लक्ष्मण और माता सीता सहित केवट से नदी पार लगाने का अनुरोध करने का वह दृश्य आँखों के सामने आते ही पूरे शरीर में सिरहन सी दौड़ गई। मन बाग-बाग हो उठा, आँखों से अश्रुधारा बहने लगी और अंतर्मन कह उठा: 

“नाथ आजु मैं काहु न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्ही मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥”
 
कल्पना भी नहीं की थी कि हमें इस तीर्थ का दर्शन अचानक से बने कार्यक्रम में हो जाएगा जो हमारी कार्यसूची में कभी चिह्नित ही नहीं हुआ था। अब तो यह रामाज्ञा ही थी कि हम यहाँ आए और इस पुण्य तीर्थ का दर्शन भाग्य हमें प्राप्त हुआ। 

फिर चले ‘हनुमान गड़ी’ की ओर जो यहाँ का एक प्रसिद्ध मंदिर है। पतला सा संकरीला रास्ता। रास्ते भर घी मिश्रित बेसन के लड्डुओं की सजी हुई दुकानों में से उठती असली घी की भीनी-भीनी ख़ुश्बू पूरे प्रांगण को महका रही थी। छोटा सा मंदिर जिसमें ऊपर जाने के लिए लगभग पचास सीढ़ियाँ थीं। भीड़ तो थी पर इतनी भी नहीं कि सँभली न जा सके। लेकिन जितनी भी थी, अनियंत्रित और अव्यवस्थित। धक्कम-धक्की। लोग अनावश्यक ही एक दूसरे को धक्का मार रहे थे। किसी तरह हमने सीढ़ियाँ पार की और ऊपर जा पहुँचे। छोटा सा प्रांगण। अंदर हनुमान लला माता अंजनी के गोद में बैठे हुए थे। हम भीड़ को देखकर डर गए। भीड़ कभी बाएँ कभी दाएँ डोल रही थी। हम भीड़ के साथ बहे चले जा रहे थे और मन ही मन संदेह कर रहे थे कि कैसे हमें दर्शन होंगे। इतने में पीछे से किसी श्रेयोभिलाषी भक्त ने इतनी ज़ोर से हमें धक्का मारा कि हम भीड़ को चीर कर सीधा बजरंग बली के सामने प्रकट हो गए। अब बजरंग बली हमारे सामने और हम बजरंग बली के सामने। अनायास मिली इस करुणा से मन आह्लादित हो गया। भीगी पलकों से दर्शन का भरपूर रस पिया व मन ही मन उस अज्ञात महानुभाव को कृतज्ञता ज्ञापित कर हम निकल पड़े बाहर की ओर। 

अगला गंतव्य श्री राम लला जी का मंदिर। मंदिर निर्माणाधीन है। रास्ता ऊबड़-खबाड। सड़क नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। छोटे-छोटे पत्थरों को बिछाकर सड़क बना ली गई है। लंबी क़तार थी। मंदिर प्रवेश में मोबाइल, कैमरे को ले जाना वर्जित है सो हमने गाड़ी में ही छोड़ दिया था लेकिन घड़ी हम पहने हुए थे। क़तार में लोगों ने जानकारी दी कि घड़ी की भी अनुमति नहीं है। तो वहीं रास्ते में लॉकरों की छोटी-छोटी दुकानें हैं जहाँ आप अपनी चीज़ें सुरक्षित रख सकते हैं। सुरक्षा जाँच और पुलिस दल से पूरा इलाक़ा भरा पड़ा था। क़तार में अंदर पहुँचे और प्रभु राम लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न का दर्शन प्राप्त किया। तीनो लोकों के स्वामी भगवान श्री राम के जन्म स्थान की पावन रज का स्पर्श दैविक स्पंदन से अभिभूत कर गया। रोम-रोम पवित्र ऊर्जा से पुलकित हो आया। सरयू सहित श्री राम की पावन जन्म भूमि का दर्शन भाग्य दैविक चेतना को स्वतः ही मनः पटल पर प्रतिबिम्बित कर गया॥उस दैवी अनुकम्पा से अनुगृहीत कुछ पल भावशून्य बीते। फिर वहीं दर्शनार्थी हेतु रखे हुए काँच के शीशे में बंद भावी मंदिर के नमूने का भी दर्शन प्राप्त किया। अनंतर प्रसाद ग्रहण कर इन अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूतियों को हृदय में सँजोए हम निकल पड़े अपने अगले पड़ाव की ओर . . . साहित्यिक यात्रा में . . . ’रायबरेली’। 

संध्या समय लगभग तीन घंटे की यात्रा के बाद हम पहुँचे रायबरेली। आगंतुकों और अतिथियों की व्यवस्था शहर के प्रसिद्ध होटेल में की गई थी। सुविधाओं से परिपूर्ण होटेल काफ़ी भव्य और शानदार था। वहाँ पहुँचते ही हमारा सस्नेह स्वागत सत्कार किया गया। देश के कोने-कोने से इस साहित्यिक यात्रा में भाग लेने के लिए साहित्यकार, विद्वान आचार्यगण पहुँच चुके थे। उन सबसे हमारा परिचय करवाया गया। थक चुके थे सो रात्रि भोज के बाद विश्राम . . .। 

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षक अभियान के भाषायी महोत्सव के प्रथम दिन का शुभारंभ सर्वप्रथम शहर के राही ब्लॉक परिसर में स्थित आचार्य जी की आवक्ष प्रतिमा पर माल्यार्पण से हुआ। तदनंतर हम सब गाड़ियों पर सवार निकल पड़े इस अभियान पर . . . साहित्यिक यात्रा पर। अगला गंतव्य था डलमऊ। डलमऊ रायबरेली से तीस कि.मी. की दूरी पर छोटा-सा क़स्बा है जो गंगा जी के घाट पर स्थित है। 
लगभग बीस से ऊपर गाड़ियों का हमारा क़ाफ़िला पहुँचा हिंदी साहित्य के छायावादी स्तंभ ‘महाप्राण निराला’ जी की ससुराल . . . डलमऊ। 

डलमऊ पहुँचने के बाद पहले भगीरथी के तट पर जाकर माँ गंगा के दर्शन किए। वहीं स्थित निराला जी की प्राण वल्लभा श्रीमती मनोहरा देवी जी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। फिर पहुँचे उनके उस छोटे से कमरानुमा घर पर . . . उनकी काव्य साधना की तपःस्थली जहाँ बैठकर उन्होंने अपनी असंख्य अमर काव्य रचनाएँ हिंदी साहित्य जगत को दीं। बाहर छोटा सा दालान . . . एक ही कमरा। दीवार पर लगी छोटी सी खिड़की जिससे शायद कभी गंगा जी का घाट दिखता रहा होगा। घर की स्थिति का जायज़ा लेते हुए अनायास मन में यह पंक्ति गूँज उठी: 

“धिक जीवन जो सदा ही पाता आया विरोध, 
धिक जीवन जिसके लिए सदा ही किया शोध।” 

सचमुच इन पंक्तियों में साधारणीकरण की अद्भुत क्षमता छिपी हुई है। देखा जाए तो उनके जीवन में ‘जीवन और संघर्ष’ पर्यायवाची शब्द थे। कितना कुछ सहा और जब अंतरमन की गहराई से आह निकली, वह कविता बन गई। वहाँ पहुँचकर मन उनके ‘रचनात्मक सरोज’ की सुरभि से सरोबार हो गया। अंतर्मन में उनकी अनेक कविताओं का सैलाब उमड़ रहा था। कई पंक्तियाँ शोर मचा रहीं थीं। कई बिम्ब बन रहे थे, कई विचार आ रहे थे। विश्वास नहीं हो रहा था कि जिन्हें हम अब तक केवल किताबों में पढ़ते आ रहे हैं, क्या यह सच है कि हम उन काव्य रचनाओं की जन्म स्थली पर ही खड़े हैं? वहाँ आए सब लोग फोटो खींचने और खिंचवाने की जद्दोजेहद में उलझे हुए थे। उनकी स्मृतियों को कैमरे में बाँध लेने को आतुर . . . लेकिन हम तो। अभी भी ‘उसी’ स्पंदन में डूबे हुए थे जिससे उबरना कठिन लग रहा था . . . उनकी सर्जनशीलता का अलौकिक स्पंदन। सुखद और दुखद आश्चर्य। दुखद इसलिए क्योंकि निराला की रचनाओं में जितना भी ओज और तेज भले ही हो लेकिन उनके व्यक्तिगत जीवन को पढ़कर हमेशा उदासी-सी छा जाती है . . . तो आज एक बार फिर मन भीग गया। उस महाप्राण के चरणों में अपना मानसिक प्रणाम अर्पण कर उन यादों को अपने मन में ही सहेजे हम बढ़ चले अगले पड़ाव की ओर . . . दौलत पुर—आचार्य द्विवेदी जी की जन्म स्थली। 

चार घंटे की यात्रा। ग्रामीण अँचल का ऊबड़-खाबड़ रास्ता। सड़क तो कहीं-कहीं-पर पूरी तरह से गुम थी . . . लेकिन दोनों ओर पीली सरसों के लहलहाते खेत देखकर लगा जैसे किसी ने पीली चादर फैला दी हो। जब भी हमारा क़ाफ़िला रास्ते में किसी गाँव के स्कूल को पार करता था, वहाँ क़तार में छात्र खड़े मिलते और हमारी गाडियों पर पुष्प वर्षा की जाती। ‘आचार्य द्विवेदी अमर रहे’ का कर्ण भेदी जयकारा पूरे वातावरण में गुंजायमान्‌ हो जाता। अविस्मरणीय नज़ारा था यह जो जीवन पर्यंत हमारी स्मृतियों में बने रहेगा। 

दौलत पुर पहुँचकर दर्शन किए हनुमान चौरा मंदिर के, जहाँ आचार्य जी की धर्मपत्नी ने बजरंग बली के श्री विग्रह को स्थापित किया था। उसी से सटा है एक और छोटा सा मंदिर जिसमेंं माँ लक्ष्मी और सरस्वती की प्रतिमाओं के ठीक मध्य में आचार्य जी ने अपनी धर्मपत्नी की मूर्ति उनके मृत्योपरांत प्रतिष्ठित की थी। ‘यत्र नार्यस्तु पूजयंते, तत्र रम्न्ते देवताः’ की उक्ति को अक्षरशः जीने वाले आचार्य जी का स्मरण आते ही सर श्रद्धा से झुक गया। तदनंतर दौलत पुर में सांस्कृतिक कार्यक्रम किए गए। आचार्य जी की जीवनी पर इप्टा के कलाकारों द्वारा लघु नाटिका प्रस्तुत की गई। और फिर ग्राम भोजपुर में अवध की संस्कृति और स्वाद दोनों को एक साथ चखने का अवसर प्राप्त हुआ। बादाम के पत्तों से बनाया गया पत्तल और दाल का दोना, पानी पीने के लिए मिट्टी का पात्र जिसमेंं पानी स्वतः ठंडा लग रहा था और नीचे दरी पर बैठ कर क़तार में खाने का परोसा जाना। खाने में परोसी गई रोटी, चने की दाल, आलू और पालक की सब्ज़ी और दही बड़ा। साथ में मिष्टान्न था . . . गन्ने के रस में पकाई हुई खीर। अद्भुत स्वाद था। सचमुच अति सुखद यादगार अनुभव रहा। जठराग्नि को तृप्त कर हम वापस चल पड़े रायबरेली। 

अस्तगामी सूर्य की किरणों में कुछ ठंडक आ गई थी। 11 नवम्बर की शाम थी सुरों के नाम। कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था फिरोज गाँधी महाविद्यालय के परिसर में। भव्य मंच सजाया गया था। हर तरफ़ कृत्रिम रोशनियाँ जगमगा रही थी। शहर के नामी कवियों का ‘कवि सम्मेलन’ था और उस पर मणिकाँचन योग यह था कि ‘उड़िया के तुलसी’ पद्मष्री हलधर नाग जी का मंच पर उपस्थित होना। वहाँ कई विभूतियों को आमंत्रित किया गया था लेकिन हमारे आकर्षण का मुख्य बिंदु तो हलधर नाग जी ही बने रहे। कृष्णवर्णी, सहज सरल मृदु व्यक्तित्व, अति साधारण वेष-भूषा लेकिन ग़ज़ब का आकर्षण था उस छवि में। उनके मुख मंडल से निकलता दैविक तेज सभा को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। राम रस में डूबा उनका रोम-रोम मंच की गरिमा में चार चाँद लगा रहा था। जैसे ही उन्होंने अपनी स्थानीय संबलपुरी भाषा में स्वरचित ‘अछूत शबरी’ वाचन आरंभ किया तो ऐसी प्रतीति हुई जैसे जनक की सभा में परशुराम के धनुष की टंकार से पूरा सभागार गूँज गया हो। ओजस्वी वाणी, धारा प्रवाह भाषा और ऊर्जामयी शैली में उनके काव्य पाठ को सुनकर श्रोतागण निस्पंद रह गए हालाँकि सभा में बहुत कम थे जो उस भाषा के जानकार थे। भाषा से अधिक श्रोताओं तक भाव का संप्रेषण हो गया था और सभी उनकी वाणी सुनकर भाव विभोर हो गए थे। तत्पश्चात सुप्रसिद्ध कवियों के गीत, नज़्म कविताएँ और ग़ज़लों पर श्रोता झूमते रहे, गाते रहे, नाचते रहे पर हमें तो ऐसा लगा कि चाँद अपनी चाँदनी बिखेर कर स्तब्ध बैठा है और अब सितारों की महफ़िल रंगीन हुए जाती है। 

अगले दिन का आरंभ उसी महाविद्यालय में आयोजित पुस्तक मेले से हुआ। देश के कोने-कोने से प्रकाशकों की पुस्तकों की प्रदर्शनी से आमंत्रित दर्शक लाभांवित हुए। अनंतर कार्यक्रम रहा साहित्यिक संगोष्ठी का जिसमेंं भारतीय भाषाओं के सौहार्द और समन्वय पर विद्वानों ने अपने मत रखे। इस साहित्यिक महायज्ञ की आहूति में हमें भी समिधा डालने का सुअवसर प्राप्त हुआ। साहित्यिक चर्चाएँ अत्यंत सार्थक और ज्ञानवर्धक रही। आयोजन सफल और साहित्य प्रेमियों के लिए उपयोगी रहा। अगली संध्या सम्मानों की संध्या थी। प्रदेश की सुप्रसिद्ध लोकगायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी जी को ‘युग प्रेरक सम्मान’ से नवाज़ा गया। सभागार में मालिनी जी के व्यक्तित्व और प्रभावशाली वक्तव्य ने श्रोताओं को काफ़ी प्रभावित किया था। उसी शाम कृष्णवर्णी हलधर जी को ‘लोक सेवा सम्मान’ प्रदान किया गया या यूँ कहें कि सम्मान उनको पाकर ख़ुद सम्मानित हुआ। 

इन दो दिनों की साहित्यिक यात्रा में जो साहित्यामृत बहा उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। सचमुच इस यात्रा की हमें जीवन पर्यंत स्मृति रहेगी। 

वैसे तो उत्तर प्रदेश तीर्थों का गढ़ है। प्रयाग राज और बाबा विश्वनाथ की नगरी यह प्रदेश . . . अभी एक अंश भी न घूम पाए थे। मलाल तो रहा लेकिन जितना देखा उतने में ही अतुल्य, असीम तृप्ति मिली। भोले बाबा की अनुकंपा हो तो शीघ्र एक बार फिर इन स्थलों का दर्शन भाग्य मिलेगा और हम फिर एक बार आपके समक्ष एक और नए संस्मरण के साथ उपस्थित हो जाएँगे। 
अस्तु! 

आचार्य द्विवेदी स्मृति संरक्षण साहित्यिक महायज्ञ

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टिप्पणियाँ

नागराजन सी 2022/12/31 03:52 PM

भक्ति और साहित्य ने मानव जाति को उन्नत, सभ्य और नेकदिल बनाया है। ईश्वर द्वारा निर्मित इस मानव समाज को सुधारने की शक्ति रखनेवाले साहित्यकारों को एक प्रकार से देवता ही माना जाता है । ऐसे महान साहित्य की रचना करनेवाले साहित्यकारों को अन्य साहित्यकारों द्वारा स्मरण करना भावी युवा पीढ़ी के लिए बहुत उपयोगी होगा। ऐसे में आप लोगों ने जो आधुनिक काल के महा साहित्यकार युगप्रवर्तक महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की स्मृति साहित्यिक यात्रा निकाली वह आप लोगों के मात्र नहीं सभी साहित्य प्रेमियों को भी बहुत उपयुक्त है। ऐसे शानदार साहित्यिक यात्रा के संयोजन में आपने नैमिषारण्यम तथा रामजन्म भूमि जैसे पवित्र स्थानों की तीर्थयात्रा भी की । उन पवित्र स्थानों पर आपका भक्तिपूर्ण वर्णन और यात्रा के दौरान आप जिन्हें मिले अन्य साहित्यकार का विवरण ये सब बहुत,बहुत अच्छे हैं और अत्यधिक सराहनीय है।

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