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ऑटो वाला

“माँ केबिन! कैसा लगा? . . .देखो न . . . तुम देखना चाहती थी न मैं कैसे काम करता हूँ . . .। तो ये रहा . . . देखिए . . . और हाँ माँ . . . मैं आपको डॉ. खन्ना से भी मिलवाता हूँ . . . मेरे सीनियर हैं वे और वैसे मैं उन्हीं के गाइडेंस में हूँ . . . बड़े अनुभवी है और वो आपको मेरे बारे में बताएँगे। काफ़ी कुछ सीखने को मिलता है उनसे। पता करता हूँ अभी कहाँ हैं वो।” अनुराग बिना साँस लिए बड़े उत्साह से बोले जा रहा था लेकिन मीरा का ध्यान तो कहीं और ही अटका हुआ था। वह कहीं और ही देखे जा रही थी। कॉरीडोर से केबिन की ओर आते उसकी नज़र ‘उस’ व्यक्ति पर पड़ी थी जिसने उसे अचानक से चौंका दिया था। आज कितने वर्षों बाद उसका चेहरा देखा था। ज़ेहन में पुरानी तस्वीर घूम गई। मीरा की याददाश्त काफ़ी मज़बूत थी। वह किसी को इतनी जल्दी भूल नहीं सकती थी और जिसने बुरे दिनों में मदद की हो, उसे तो ताउम्र भूलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। बिल्कुल न बदला था। वैसा ही था जैसे बरसों पहले हुआ करता था। वही वेश-भूषा। शेरवानी, कसा पाजामा और सफ़ेद जालीदार सूती टोपी। हाँ! बदन काफ़ी दुर्बल हो गया था . . . चेहरे पर झुर्रियाँ आ गई थीं। बुझी हुई आँखों की पुतलियों में पतला काला सुरमा, गर्दन के बीच बड़ा गहरा गड्ढा, बेतरतीबी-सी बड़ी हुई दाढ़ी, और बाल . . . बाल भी चाँदी की तरह चमक रहे थे। रंग-ढंग से तो कोई बदनसीब सूफ़ी फ़क़ीर नज़र आ रहा था। बूढ़ा गया था ‘वह’ . . . शायद साठ-पैंसठ के आस-पास का होगा और चेहरा . . . चेहरा निराशा और मायूसी से पुता हुआ। 

“तुम्हारा ध्यान किधर है माँ . . . देखो न। यह नेम प्लेट देखी, ‘डॉ. अनुराग अग्निहोत्री . . . हृदय रोग विशेषज्ञ’!”

पर मीरा तो विचारों में खोयी हुई उसी उधेड़बुन में थी . . . उसकी नज़र तो वहाँ से हटने का नाम ही न ले रही थी। वह तो कुछ और ही देख रही थी . . . और ही कुछ सोच रही थी। 

“माँ कहाँ हो तुम? क्या कर रही हो वहाँ खिड़की पर?” अनुराग उसे कंधों से झंझोड़ता, खींच कर अपनी कुर्सी के पास ले आया। 

“मैं तुम्हें कुछ दिखा रहा हूँ और तुम वहाँ खिड़की पर खड़ी क्या झाँक रही हो?” 

“उफ्फ अनु, देख रही हूँ और ख़ुश भी हूँ। सब अच्छा है, बहुत अच्छा है। इधर आ . . . तू देख और बता . . . वो जो बाहर उस कॉरीडोर पर वह आदमी बैठा है न, सफ़ेद दा‌ढ़ी वाला, शेरवानी और टोपी लगाए, वह यहाँ क्यों आया होगा? मैं जानती हूँ उसको। शायद यह वही ऑटो वाला है। शायद क्या . . . यक़ीनन वही है। क्या बीमारी है उसे?” मीरा फिर जल्दी से खिड़की के पास पहुँच गई और कॉरीडोर में से झाँक-झाँककर उस ओर ही देखने लगी। 

“माँ यह हृदय के रोगों का अस्पताल है तो मुमकिन है कोई ऐसी ही बीमारी होगी, है न?” अनुराग ने झल्लाते हुए कहा। “तुम तो बहुत दिनों से यहाँ आने की रट लगाए रही थी। पर आज जब ले आया तो यह क्या हो गया है तुम्हें?” 

मीरा को बहुत आस थी कि वह अपने बेटे का काम देखे। उनके परिवार में वह पहला प्राणी था जिसने डॉक्टर की पढ़ाई की थी। इससे पहले कोई डॉक्टर न हुआ था उस वंश में। लेकिन यहाँ आकर सब देखकर भी न जाने क्यों उसे बेचैनी-सी हो रही थी। मन भटक गया था। ख़ुशी महसूस ही न कर पाई। 
“क्या हो गया है माँ? कभी-कभी अनावश्यक असहज हो उठती हो,” अनुराग भी मन ही मन कुछ बुझ सा गया। माँ की उपेक्षा उसे अच्छी न लगी। 

“वो सब बाद में, तू बता . . . क्या तूने उनका चेक-अप किया है? कैसी है उनकी हालत? हार्ट ब्लॉकेजस? ऑपरेशन कराना होगा? क्या कहा उन्होंने? पैसा है? शायद जो औरत पास है, उनकी बीबी होगी। हालात तो उतने अच्छे नहीं लग रहे। क्या वे तैयार है?” 

“माँ? इतने सारे सवाल? और वो भी एक साथ। वैसे तुम्हें जवाब की भी कोई आवश्यकता है क्या? नहीं न? सभी कुछ तुम ही कह दे रही हो,” अनुराग गंभीर हो गया। माँ को कभी किसी ग़ैर के बारे में इस तरह बेचैन न देखा था, कभी नहीं। और आज इस ग़रीब अजनबी के लिए माँ की चिंता उसे समझ न आई। 

“कौन है माँ वह? अब मैं पूछता हूँ तुम बताओ?” अनु की नज़रें माँ के चेहरे पर गढ़ गईं। वह उसे पढ़ने की कोशिश करने लगा। 

मीरा चुप सी वहीं उस ओर ताकती रही। 

“चलो माँ चाय पीते हैं।” 

“नहीं! तूने बताया नहीं कितना ख़र्चा आएगा और क्या व्यवस्था है उनकी? ऑटो ड्राइवर था वह आदमी। कितना कुछ कमा लेगा ऑटो चलाकर?” पता नहीं अब क्या काम करता है? 

“अब भी ऑटो ड्राइवर ही है माँ! मेरा ही पेशेंट है वह आदमी। और हाँ इंतज़ाम कर लिया है उन्होंने, घर-बार बेच रहे हैं। तीन चौथाई पैसे का इंतज़ाम हो गया है। बाक़ी मिलते ही ऑपरेशन के लिए आ जाएँगे। लेकिन क्या माँ, तुम क्यों परेशान हो और मेरे किसी प्रश्न का उत्तर क्यों नहीं दे रही हो? माँ मैं पूछ रहा हूँ बताओ, बात क्या है? बोलो न।” 

“अनु, तुम क्यों मुझसे इतने सवाल कर रहे हो? क्या मैं ने कभी कुछ छिपाया तुमसे? कभी कुछ ग़लत किया? फिर तुम मुझसे ये सब क्यों पूछ रहे हो?” 

“माँ मेरा मतलब वो नहीं था। तुम्हें ग़लत नहीं समझ रहा। एक ग़ैर अजनबी के लिए इतनी हमदर्दी? बस अजीब लग रहा है।” 

“न अनु। कभी कभी इंसान की नेकनीयत रिश्ता बना देती है . . . दिल में घर कर जाती है। रिश्ता केवल ख़ून का ही नहीं होता।” 

“माँ आप जानती हो उसका नाम? उसका . . .?” 

“नहीं। और ज़रूरी नहीं लगा कभी। याद है मैं तुझे हमेशा एक ऑटो ड्राइवर के बारे में बताती थी? जब तू एक महीने का भी न हुआ था और मैं तेरे लिए हर रोज़ अस्पताल जाती थी तो उसने मेरी बहुत मदद की थी। तुझे बताया भी था न? आख़िरी दिन वह एक तावीज़ और काला धागा भी लाया था, मन्नत माँग कर तेरे लिए। तब तक तो मुझे सुध ही कहाँ थी जो नाम पता वग़ैरह पूछूँ? न मैंने कभी कुछ जानना ही चाहा, न उसने कुछ बताया। धुँधली सी यादें है बस, पर कभी न मिटने वाली। कैसे भूल सकती हूँ वो दिन?” मीरा के चेहरे पर दर्द की पतली लकीर खिंच गई। “सच। उसकी हालत कैसी है अनु? कोई ख़तरा तो नहीं? और कितना वक़्त इंतज़ार किया जा सकता है?” वातानुकूलित कमरे में भी माथे पर पसीना छलछला गया। 

“गंभीर ही है। ज़्यादा वक़्त नहीं है। सब आर्टरीस ब्लॉक्ड है। साँस लेने में भी दिक़्क़त हो रही है। अब तो वे जब इंतज़ाम कर लें तो बस हम अपना काम शुरू कर देंगे।” 

“क्या अस्पताल से कोई मदद नहीं हो सकती अनु?” 

“माँ बकरी घास से दोस्ती करेगी तो खाएगी क्या? यह कॉरपोरेट अस्पताल है . . . देख रही हो न ढाँचा? सरकारी दवाखाना नहीं। अगर पैसा नहीं है तो सरकारी अस्पताल पड़े हैं, वहाँ जा सकते हैं। पर लोग यहाँ क्यों आते हैं? अच्छी सर्विस की ख़ातिर . . . बेस्ट ट्रीटमेंट के कारण . . . है न। तो हम भला क्या कर सकते हैं?” 

“सरकार क्या कुछ मदद नहीं कर सकती ऐसे लोगों की?” 

“अरे माँ . . . तुम भी कैसी बात करने बैठ गई। लगता है आज ग़लत वक़्त पर तुम्हें लाया था। चलो किसी और दिन सही।” 

“नहीं अनु! अच्छा किया मुझे यहाँ लाकर। सच में बहुत अच्छा किया। अब मैं चलूँ?” 

अनु के शुष्क जवाब से मीरा को ठेस पहुँची। मन तो पहले से ही ख़राब था। अब और वह वहाँ रुक न सकी। 

“ठीक है माँ। तुम चलो। शाम को बात करते हैं। मुझे आने में देर होगी,” अनुराग ने और बहस करना उचित न समझा। उसने कभी माँ का यह रूप न देखा था। आज पहली बार इतना भावुक और चिंतित होते देख रहा था। ज़रूर कुछ गंभीर बात ही होगी, वरना वे इतनी असहज कभी न होती थी। 

मीरा केबिन से बाहर आ गई। कॉरीडोर से चलते उसने ‘उसे’ सरसरी निगाह से देखा। ‘वह’ अपनी बीवी से बातें करने में मशग़ूल था। उसने उड़ती नज़र मीरा पर डाली और नज़रें घुमा लीं। शायद नहीं पहचाना था उसने मीरा को। वह कुछ क्षण उसके सामने रुकी फिर लंबे क़दम रखती दरवाज़े से बाहर निकल गई। 

 

♦  ♦  ♦

 

मीरा ने गाड़ी स्टार्ट की और तेज़ गति से सड़क पर डाल दी। गाड़ी जिस गति से आगे भाग रही थी मन उसी गति से पीछे जा रहा था। 

तीस वर्ष। हाँ पूरे तीस वर्ष! हर एक बात याद आने लगी। इंसान भले ही सुख याद न रखे लेकिन जीवन में आईं तकलीफ़ें हमेशा याद रहती हैं . . . नासूर बनकर अंदर दफ़न हो जाती हैं . . . और यदा-कदा अवसर मिलते ही बाहर निकल आती हैं। मीरा को भी गुज़रा वक़्त सब साफ़ दिखाई देने लगा . . . एक रील की तरह। 

मीरा पढ़ाई में बहुत तेज़ थी . . . सी.ए. किया था और अच्छी फ़र्म में नौकरी भी कर रही थी। उस जमाने में सी. ए. पास करना बहुत बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी। वह अभी विवाह नहीं करना चाहती थी लेकिन बाबूजी के गिरते स्वास्थ्य के आगे मजबूर हो गई थी। बाबूजी की मंशा थी कि जीते जी इकलौती कन्या के हाथ पीले कर दें। हालात के सामने उसे झुकना पड़ा। माँ बाबूजी की पसंद ‘शेखर’ से उसका विवाह एक ‘ग़लती’ बन कर रह गया था। कारण . . . शेखर किसी और को दिल में बसाए बैठा था और उस लड़की की जात उनके परिवार को मान्य न थी। माँ बाबूजी के दबाव में आकर शेखर ने मीरा से विवाह कर लिया। था तो सम्पन्न परिवार पर दक़ियानूसी और रूढ़िवादी। वह न माँ-बाप को मना सका, न मीरा से ही मानसिक रूप से जुड़ सका। कुछ ही महीनों में मीरा को सच्चाई का भान हो गया था। प्रेम ही तो रिश्ते की नींव होता है और अगर जब वह ही न रहा तो साथ रहने का कोई अर्थ ही नहीं था। शेखर एक साथ दो नावों में सवार करने वाला खिलाड़ी निकला। वह ‘अपने पहले’ प्यार से भी अलग न होना चाहता था और मीरा तो उसकी धर्मपत्नी थी ही . . . उसके आगे पीछे चलने वाली . . . उसकी सब आज्ञाएँ मानने वाली। यहाँ शेखर मात खा गया मीरा को समझने में। ऐसे दोगले चरित्र को क्षमा कर अपना पूरा जीवन होम करके ‘देवी माँ’ का ख़िताब पाने का मीरा को भी कोई शौक़ नहीं था। बाबूजी ने उसे ख़ूब मज़बूत बनाया था। हर अन्याय के विरुद्ध लड़ना सिखाया था। फिर वह यह सब कैसे सहती? उसने स्पष्ट रूप से अलग होने का अपना निर्णय शेखर को सुना दिया था। उस ने विरोध नहीं किया। वह उसका अपराधी था सो चुपचाप आपसी सहमति से क़ानूनन दोनों अलग हो गए थे। 

मीरा हैदराबाद अपने माँ के घर आ गई थी लेकिन कुछ ही दिनों में उसे पता चला कि शेखर से वह अलग अवश्य हो गई है लेकिन उसका बीज उसके गर्भ में आ चुका है। शेखर के साथ बिताए समय की ग़लती का परिणाम उसे मिल चुका था। लेकिन मीरा ने उसे सज़ा न मानकर ईश्वर का उपहार ही माना। उस नन्ही जान का क्या दोष था जो उसके गर्भ में पल रही थी? वह उस बच्चे को गिराना नहीं चाहती थी। मातृत्व की कल्पना से ही रोम-रोम पुलक गया था उसका। उसने नौकरी पर जाना ठीक समझा। उसी फ़र्म में उसने फिर ज्वाइन कर लिया। वह आर्थिक रूप से परिवार पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। अब तो उसे अपने बच्चे के लिए जीना था। उसने सब स्वीकार किया . . . शान्ति से, धैर्य से। परिवार ने उसके निर्णय का स्वागत किया। वह अपने को व्यस्त रखने लगी। फिर अनुराग का जन्म हुआ। वह बहुत ख़ुश थी। उसके नन्हे-नन्हे हाथ, नन्हे नन्हे कोमल पंखुड़ियों जैसे होंठ, प्यारा सा चेहरा देखकर वह अपना सारा दुख दर्द भूल गई थी। लेकिन पहाड़ तो तब टूटा जब जन्म के कूछ ही दिनों में मुन्ने को बुखार हुआ और डॉक्टर ने गंभीर बीमारी बता दी। उपचार में हर रोज़ अस्पताल जाकर एक घंटा फेफड़ों को शुद्ध करने की मशीन लगवानी थी। मीरा पागल सी हो गई थी यह सब सुनकर। नन्हे मुन्हे को इतनी सज़ा? किस अपराध में? रो-रोकर उसने बुरा हाल कर लिया था अपना। पर ईश्वर की मंशा के आगे सब कठपुतली ही तो थे। 

अब परीक्षा की घड़ियाँ शुरू हुईं। अगले दिन सुबह मुन्ने को अस्पताल ले जाकर उपचार शुरू करवाना था। उन दिनों मीरा के पास अपनी कोई गाड़ी न थी। वह कंपनी की गाड़ी से ही दफ़्तर जाती थी। अब तो ऑटो का ही सहारा था। यहाँ हैदराबाद में ऑटोवालों के तेवर ही अलग थे। इनके अजीबो-ग़रीब व्यवहार को वह भली-भाँति जानती थी। कुछ तो बड़े ही मनमौजी और बदमिज़ाज हुआ करते थे। उस दिन भी, अच्छी तरह से याद था उसे, ऑटो स्टैण्ड पर कई ऑटो तो थे पर कोई प्राणी ‘बंजारा हिल्स’ आने को राज़ी न हो रहा था। कारण, वहाँ की भीड़। मीरा दाम से ऊपर भी देने को तैयार थी पर वे तो मजबूरी का फ़ायदा उठाकर तिगुना पैसा माँग रहे थे। 

“भैया . . . बंजारा हिल्स सुश्रुषा अस्पताल चलोगे?” मुन्ने को गोद में लिए मीरा ने स्टैण्ड पर खड़े सबसे पहले ऑटो वाले से पूछा। 

“नहीं मैडम मैं उस ओर नहीं जातऊँ,” बंजारा हिल्स नाम सुनते ही वह मुकर गया। 

“फिर आप भैया?” उसने दूसरे की ओर इशारा करते कहा। मुन्ना ने धूप लगते ही रोना शुरू कर दिया था। 

“नहीं दीदी। पहले वो ऑटो जाएगा तो ही मैं निकाल सकता हूँ। वरना आपको वेट करना हीच्च होगा,” उसने लापरवाही से दो टूक जवाब दे दिया और मुँह घुमाकर अख़बार पढ़ने लगा। मीरा को बड़ा ग़ुस्सा आया। तन बदन में आग लग गई। 

“ये क्या बात हुई? हमें जल्दी है और आप ऐसा कह रहे हो?” 

“जल्दी है तो पैसा भी बड़ कर देना होता अम्मा। वहाँ से रिटर्न सवारी नहीं मिलती . . . ख़ाली आना पड़ता। आप लोगां पैसा भी कम देते और ख़ाली-पीली हमारा पेट्रोल जल जाता,” पहले वाले ने ढिठाई से कहा। 

“ओफ़्फ़ तो पूछना था न कितना चाहिए? बोलो . . . कितना चाहिए पर जल्दी करो,” उसका ग़ुस्सा हदें पार कर रहा था। मुन्ना भी रो रहा था और देर भी हो रही थी। 

“चार सौ देते तो आएगा,” पान की पीक सड़क पर थूकते उसने आराम से कहा। 

मीरा अगर पीछे न हटती तो पीक उसकी साड़ी को रंग देती। “पागल हो गए क्या? एक सौ पचास भी मीटर नहीं होता और तुम्हें चार सौ चाहिए? मीटर काम नहीं कर रहा क्या?” 

“अब बंजारा हिल्स मीटर पर कौन आता? कोई आता क्या? नहीं मैडम . . . मीटर काम नहीं कर रहा . . . देते तो बोलो। फ़ाइनल . . . तीन सौ देते . . .?” 

“क्या अन्याय है? तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या? तीन सौ क्यों दे?” मीरा की माँ भी उसके साथ थी। उन्होंने एक को झिड़क दिया। बस सब के सब मुकर गए। और सबने आने से मना कर दिया। मीरा बड़ी बेचैन हुई जा रही थी। जल्द से जल्द अस्पताल पहुँचना था। उसका पूरा ध्यान मुन्ने की साँसों पर ही टिका हुआ था। उसे और कोई सुध नहीं थी। और ये ऑटो वाले ऊपर से और सता रहे थे। महानगर की यह सबसे बड़ी समस्या थी। सब एकजुट होकर हेकड़ी दिखा रहे थे है। कहाँ जाना है, किस ओर जाना है, इसका निर्णय तो ऑटो वाला कर रहा था . . . जहाँ वह जाना चाहे उसी रास्ते की सवारी लेता था। और दाम . . . मजबूरी की तीव्रता पर आधारित . . . सच . . . यहाँ उनकी मर्ज़ी चलती है, सवारी की नहीं। नहीं पसंद तो जाओ, बस के धक्के खाओ। किसने मना किया है? मीरा मुन्ने को लेकर बस में नहीं जा सकती थी। पहले ही उसे साँस की शिकायत थी। वह मजबूर थी और ये निर्दयी फ़ायदे की सोच रहे थे। एक ने मना किया, तो सब ने मना कर दिया। यूनियन है। मीरा हर एक से पूछ-पूछ कर थक गई पर वे टस से मस न हुए। सूझ न रहा था क्या करे? पहले दिन ही यह हाल। अभी तीस दिन उसे नियमित जाना था। आधा घंटा हो गया कोई भी ऑटो वाला अस्पताल जाने को तैयार न हुआ। अचानक एक ऑटोवाला किसी सवारी को छोड़ने वहाँ आया और उसने मीरा को देखकर कहा, “कहाँ जाना है दीदी?” 

मीरा ने न आव देखा न ताव। झट से उछलकर बैठ गई ऑटो में और कहा, “सुश्रुषा हॉस्पिटल, बंजारा हिल्स। चलो।” 

“वह बच्चों का अस्पताल?” 

“जब मालूम है तो क्यों पूछ रहे हो? बच्चों का ही अस्पताल है वह। चलो अब,” मीरा रोते हुए चिल्लाई। पर अचानक वह डर गई कि कहीं यह ऑटो वाला उतरने को न कह दे। बड़ी मुश्किल से तो मिला था। समय बर्बाद हो रहा था। ग़ुस्सा रुलाई बन कर फूट पड़ा था। आँखों से मोटी आँसुओं की धार बह निकली थी। 

ऑटो वाले ने अपने ऑटो के आइने से उनकी ओर एक नज़र देखा . . . मीटर डाला और गाड़ी चला दी। 

“मीरा सब्र रख। रोने चिल्लाने से कुछ न होगा। सब ठीक होगा,” माँ समझाए जा रही थी और मीरा रोए जा रही थी। ऑटो वाला सब देख रहा था और सब समझ रहा था। ऑटो भी वह बड़ी सावधानी से चला रहा था। हर मोड़, हर गड्ढे से बच-बच कर, हर स्पीड ब्रेकर से सँभल कर ताकि मुन्ने को झटका न लगे। हर पाँच मिनट पर वह आईने से उन लोगों को देख भी लेता था। 

लगभग चालीस मिनट . . . चालीस मिनट के बाद वे अस्पताल पहुँचे थे। ऑटो रुका। मीरा उतरी और माँ को थामे झट से दरवाज़े की ओर बढ़ गई। इससे पहले कि ऑटो वाला किराया माँगता, वे तो चली गईं थी। 

उपचार हुआ। मुन्ने को मशीन लगाई गई। पूरा एक घंटा लगा था। सारा समय मीरा या तो नाम जपती या रोती रही थी। मशीन बंद हुई और वे वापस चलने को हुईं। 

बाहर आकर याद आया कि उन्होंने तो ऑटो का किराया ही नहीं दिया था। नज़र दौड़ाई तो पाया वह वहीं दूर खड़ा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। मीरा बुरी तरह से डर गई। सोचा . . . अब यह ऑटो वाला तो सबके सामने बहुत नाटक करेगा। बहुत बुरा-भला कहेगा। वो भी कितनी पागल है . . . कैसे भूल गई वह? जब से मुन्ने की बीमारी के बारे में पता चला था उसे किसी और बात की सुध ही न होती थी। उसने अपने आप को सँभाला और उसकी ओर चलने लगी। 

“माफ़ करना भैया। हम परेशानी में भूल गए। आपको पैसा नहीं दिया। आप ने एक घंटा इंतज़ार किया . . . चिंता नहीं करो . . . हम उसका पैसा भी दे देंगे। आप हमें घर छोड़ दोगे?” उसने डरते-डरते अत्यंत धीमे स्वर में कहा। 

“कोई बात नहीं अम्मा। तब्बीच्च मैं ययीं था। आपको काँ ऑटो मिलेगा इत्ती धूप में? वापस तो जाना है न। आओ। बैठो।” 

मीरा की जान में जान आई। ऑटो वाले ने अपनी टोपी ठीक की . . . डंडी पर टँगा ड्राइवरी भूरा कोट पहनकर उन्हें बैठाया . . . मीटर डाउन किया और गाड़ी चला दी। उस दिन तो उसने बचा लिया था। अब मीरा को कल की चिंता होने लगी। सोचा इसी से पूछते है। अच्छा आदमी लग रहा है। भगवान ने चाहा तो शायद राज़ी हो जाए। “भैया, कल भी आ पाओगे? मुन्ने को रोज़ लेकर जाना है। अगर आपको तकलीफ़ न हो तो?” 

“तकलीफ़ काएको अम्मा। मैं ही आतऊँ। आप चिंता नको करो, कित्ते बजे आना है? आज की माफिक आऊँ क्या?” 

“हाँ। बिल्कुल ठीक नौ बजे, देर नहीं होनी चाहिए मुन्ने को . . . आ पाओगे?” 

“जी अम्मा जी . . . आप इत्मीनान से रहो।” 

घर पहुँच कर मीरा में किराया दिया और ऑटो वाला चला गया था। मीरा को शक था कि कल ऑटो वाला नहीं आएगा। वह बार-बार अपने को समझाती रही। अपने को दिलासा देती रही। पूरा दिन इसी कशमकश में गुज़र गया। 

और अगले तीस दिन यही नियत दिनचर्या रही थी। हर रोज़ ऑटो वाला आता। कुछ दूर पर इंतज़ार करता और उन्हें अस्पताल ले जाता व वापस ले आता। उस मोहल्ले में वह रुकने से घबराता था। ऑटो वालों की भी अपनी यूनियन होती है। अपने नियम होते हैं। हर किसी का अपना क्षेत्र होता है तो किसी और के मोहल्ले में वह रुक नहीं सकता था सो दूर ऑटो रख कर प्रतीक्षा करता और मीरा को देखते ही सड़क पर आ जाता। कुछ ही दिनों में मुन्ने की हालत में सुधार होने लगा था। मुन्ने से ज़्यादा मीरा का मानसिक संतुलन ठीक होने लगा था। वे माँ–बेटी उसी ऑटो में जाती रहीं लेकिन कभी भी उन्होंने उस ऑटो वाले से उसका नाम पता जानने की कोशिश न की। और तो और मम्मी को हर वक़्त शक भी होता रहता था कि क्यों यह ऑटो वाला उनके लिए अपना आधा दिन ख़राब कर रहा है? हाँ मीरा उसे उसका पूरा किराया दे देती थी लेकिन फिर भी . . .

“कौन किसी अनजान के लिए इतनी आत्मीयता दिखाता है बिना स्वार्थ के? होगा कुछ स्वार्थ। देख मीरा, एक दिन ज़रूर कुछ बड़ा पैसा माँगेगा,” माँ हमेशा कहती रही। उसकी नेकदिली माँ के शक के हमेशा घेरे में ही रही। 

लेकिन उसने कभी भी कुछ न कहा। न कभी उसने कुछ माँगा। तीस दिन बिना एक दिन नागा के वह आता रहा। आख़िरी दिन मीरा ने कह दिया था कि कल से आने की ज़रूरत नहीं। मुन्ना ठीक हो गया है। अब अस्पताल हर दिन जाने की ज़रूरत नहीं। 

“हाँ अम्मा। मैंने कल आप लोगां का बात सुना . . . आप बुरा न मानो तो एक बात . . . तब्बी मैं मुन्ने के लिए तावीज़ लाया हूँ और यह काला तागा उसके पाँव में बाँध दो अम्मा . . . सब ठीक होएगा, मुन्ने को नज़र नहीं लगेगा . . . मेरा बिस्वास करो अम्मा . . . रोज़ा के दिन है . . . मैं ग़लत नहीं बोलता . . . देखो मुन्ना बिल्कुल सलामत रहेगा,” माँ को उसकी दी चीज़ें पसंद नहीं आईं। पर उसका मन रखने के लिए मीरा ने चुपचाप रख लीं। 

“लेकिन भाई, तुम रोज़ आते थे, बहुत एहसान किया हम पे। हमारी सारी परेशानी निकाल दी। तुम न आते तो बड़ी परेशानी होती . . . पर तुम्हारे कारण बड़ी आसानी हो गई। रोज़-रोज़ क्यों अपना टाइम हमारे लिए ख़राब किया?” माँ अपने को रोक न पाई थी और उसने पूछ ही लिया था। 

“न अम्मा, कुछ नहीं। आप को परेशान देखा तो आया था और भाड़ा भी दिया आप लोगां . . . फिर क्या प्राब्लम था? तभीच्च आया।” 

“न न फिर भी, कौन किसी के लिए कुछ करता है आजकल। तुम तो रोज़ आया, कुछ तो कारण होगा न?” माँ का शक अभी दूर न हुआ था। 

“हाँ अम्मा। छोटी अम्मा को देखकर मेरी ‘आपा’ याद आ गई। तभीच्च आया . . . तब्भीच।” 

“अब कहाँ रहती है तुम्हारी आपा?” माँ कुरेद रही थी। अपनी आदत से बाज़ न आई। 

“नहीं अम्मा, सऊदी में शादी की। डिलिवरी होने कोच्च थी। पर जीजू बाहर था न, टाईम से हॉस्पिटाल न जा सकी केते, तो बच्चा तब्बी गुज़र गया। पेट में ईच्च। फिर तो वो भी नहीं बची। वो भी ख़त्म। मैं जा भी न पाया अम्मा। क्या करना? तभीच्च से किसी को ज़रूरत होती, तो मैं सब काम छोड़ कर भी आतऊँ। बस अम्मा और कुच्छ भी नहीं है। आप खाली-पीली चिंता नको करो। आपका मुन्ना सलामत रहेगा। मेरी तो यही दुआ है बस . . . तो क्या चाहिए बोलो। आप दोनों जनानी लोग . . . रोज़ रोज़ परेशानी होती न . . . कैसे जाती? कित्ती तकलीफ़ होती आप लोगां को . . . और ऊपर से मुन्ना भी बीमार . . . ये सब सोच्के ही मैं आया। और कुच्छ नहीं,” उसने अपना पैसा लिया और चलता बना। 

मीरा ने न नाम पूछा . . . न पता . . . न मोहल्ला। इतने दिन उसे केवल यह ही सुध थी कि हर दिन चौबीस घंटे के अंदर मशीन चलनी है और समय पर हॉस्पिटल जाना ज़रूरी है . . . बस। वहाँ अस्पताल में रह जाना बहुत महँगा पड़ रहा था उन दिनों। ऐसे दिन भी देखे थे उसने। और हाँ! आज महसूस हुआ था कि अगर यह ऑटो वाला न आता तो सचमुच . . . कितनी परेशानी होती थी? वह तो मसीहा बन कर आया था मीरा के लिए और मुन्ने के लिए भी। 

 

♦  ♦  ♦

 

दिन महीने बीतते चले गए और मुन्ना पूरी तरह ठीक हो गया था। मीरा भी काम पर लग गई थी। मुन्ना मीरा के जीवन में पुण्य भाग्य लेकर आया था। और फिर दिवाकर से मिलना तो बहुत बड़ा संयोग था। दिवाकर बहुत बड़ी कंपनी के मालिक थे जिनका ऑडिट मीरा की कंपनी करती थी। यूँ तो पूरा काम मीरा के ही ज़िम्मे था। बस एक दो बार ही वे यहाँ आए थे और इसी बीच परिचय हुआ . . . पहले तो औपचारिक लेकिन बहुत जल्द निकटता बढ़ी और रिश्ता बँधता चला गया। पहली ही नज़र में दिवाकर का व्यक्तित्व और व्यवहार मीरा को प्रभावित कर गया था। बड़े ही सौम्य और शालीन। बायाँ पैर पोलियो ग्रस्त था, थोड़ा लंगड़ाकर चलते थे पर लंबी क़द काठी और गेहुँआ रंग, ख़ूब आकर्षक छवि थी। अपनी इसी हीन भावना के कारण शायद विवाह नहीं किया था और उम्र पैंतीस तक आ पहुँची थी। मीरा ने अपने पहले विवाह, सम्बन्ध विच्छेद और अनुराग, सब कुछ बिना छिपाए उन्हें बता दिया था। और वो तो मीरा ही थी जिसने उन्हें मनाया था . . . पहल की थी अपनी इच्छा ज़ाहिर करने में। दिवाकर कितने ख़ुश हो गए थे ये जानकर। फिर रिश्ता गहराता चला गया। मीरा को मन पसंद साथी मिल गया था और अनुराग को स्नेहशील पिता की छाँव। सच . . . जीवन बदल गया था। धन, दौलत, शोहरत, इज़्ज़त, प्रेम सब एक साथ पाकर मीरा फूली न समा रही थी। अनुराग को ख़ूब पढ़ाया। और . . . फिर बाद में उनकी कोई संतान न हुई थी। वे दोनों अनुराग से ही ख़ुश थे। वह तो दिवाकर की आँख का तारा था। उसकी हर ज़रूरत पूरी करने में दिवाकर अपनी जान लगा देते थे। विदेश भेजा और डॉक्टर की पढ़ाई करवाई। अब तो वह हार्ट सर्जन बन गया था। उसी का वैभव देखने तो मीरा गई थी लेकिन उस ऑटो ड्राइवर को वहाँ उस हाल में देखकर मन विकल हो गया था। बेचारा बिन माँगे लोगों की सहायता करने वाला, लोगों के दुख दर्द समझने वाला आज कितना लाचार दिख रहा था। ग़रीब, बेबस, बीमार और असहाय। मीरा को बहुत बुरा लगा था। मन में उथल-पुथल मची जा रही थी। दिमाग़ तपने लगा। कई विचार एक साथ आने लगे। अजीब कशमकश होने लगी। क्या वह कुछ कर सकती है? उस नेकदिल की मदद . . . क्या वह कर सकती है? 

‘कौन है वो हमारा? क्या रिश्ता है? उसने तो पहचाना भी नहीं। तो फिर क्या ज़रूरत है मुझे उसके बारे में सोचने की? हमारी भी अपनी ज़रूरतें हैं। क्यों हम किसी अनजान के बारे में सोचें? अनु ठीक कह रहा था . . . क्या रिश्ता है हमारा? क्या लेना देना है? जब तक कोई स्वार्थ न हो, हम क्यों सोचे किसी के बारे में? ठीक भी है . . . ग़लत नहीं। लेकिन . . . न . . . न . . . फिर क्यों मेरा मन ख़राब हो गया था उसे देखते ही? क्यों? नहीं, नहीं। उस बेचारे की मदद करनी चाहिए। उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। भला आदमी है। नेक़दिल इंसान। उसकी ज़िन्दगी का सवाल है। इस जीवन में भले ही बड़े-बड़े दान पुन्न न किए हों, पर अब इतना तो ईश्वर ने दिया है। सब कुछ है मेरे पास आज और मुझे दिवाकर से माँगने की भी ज़रूरत नहीं। अपनी सेविंग्स ही काफ़ी होंगी पर हाँ . . . दिवाकर की अनुमति के बिना मैं कुछ नहीं करूँगी। अच्छी तरह से जानती हूँ कि दिवाकर कभी मना नहीं करेंगे। उसकी साँसों की क़ीमत चुकानी होगी। और फिर इतना क्या सोचना? अगर हमारे ही परिवार का कोई प्राणी होता तो क्या सोचते? फिर उसने भी तो हमारी कितनी मदद की थी? क्या सोचकर? क्या हम उसकी कुछ लगती थीं? न। मदद की थी या नहीं . . . सब भूल जाओ . . . पर . . . इतनी इंसानियत तो होनी ही चाहिए। कोई कुछ भी कहे, मैं दिवाकर को कहकर जल्द से जल्द यह ऑपरेशन करवाऊँगी। हाँ! यह ठीक रहेगा। मीरा ने निर्णय ले लिया। और आज तक उसने कभी भी अपने निर्णयों में किसी की अनुमति न चाही थी। उसे लगा जैसे अचानक मन से मनों बोझ हल्का हो गया हो। सब थकान जाती रही। उसने गाड़ी पार्क की और तेज़ी से अंदर चली गई। 

 

♦  ♦  ♦

 

ऑपरेशन सफल हो गया था। आज दस दिन हो चुके थे। ‘उसके’ परिवार से कोई नहीं था केवल उसकी बीवी थी जो दिन रात यहीं अस्पताल में ही रह रही थी। अब ‘उसकी’ हालत में सुधार भी आ रहा था। सब सपोर्ट मशीनें हटा दी गई थीं। अब तो बस डिस्चार्ज करने का समय भी आ गया था। वह था कि रोज़ डॉ. अनुराग से रट लगाए रहा था कि कौन वो व्यक्ति है जिसने उसकी मदद की थी और उधर मीरा ने अनुराग को न बताने की सख़्त हिदायत दे रखी थी। अंतिम दिन ‘वह’ अपनी ज़िद पर अड़ गया। अस्पताल से जाने से पहले वह उस व्यक्ति का मुँह देखे बिना जाना नहीं चाहता था। आख़िर मीरा को झुकना ही पड़ा। 

“नमस्ते भैया! कैसी हालत है अब?” मीरा दरवाज़ा धकेल कर अंदर आई और उसके पास ही कुर्सी खींचकर बैठ गई। 

“देखिए, भाई साहब! आप चाहते थे न उस इंसान से मिलना . . . तो लीजिए मिल लीजिए। यही हैं वो मुहतरमा जिसने आपकी मदद की . . . तब तक मैं औपचारिकताएँ पूरी कर लेता हूँ आपके डिस्चार्ज की,” अनुराग ने मीरा की ओर इशारा करते,” उससे कहा और कमरे से बाहर निकल गया। 

वह कुछ पल आश्चर्य चकित सा उसे देखते रहा। फिर धीरे से बोला, “नमस्ते अम्मा। क्या आप मेरेकू जानते हो?” उसके हाथ नमस्कार कर रहे थे पर आँखें याद करने का भरसक प्रयत्न कर रहीं थीं . . . और वह पलंग का सहारा लेकर उठने की कोशिश करने लगा। उसकी हालत देखकर लग नहीं रहा था कि उसे कुछ याद आया है। 

“अरे . . . अरे आप बैठे रहो। कोई बात नहीं। आपने शायद पहचाना नहीं मुझे? हाँ! . . . कई साल हो गए न इसीलिए . . . आप भूल गए शायद . . . याद है छोटे से मुन्ने को लेकर एक महीना हमें आप अपने ऑटो में रोज़ अस्पताल लेकर गए थे? बंजारा हिल्स . . . मुन्ने के लिए? याद आया?” 

“ओह! ओह . . . हाँ अम्मा . . . पर आजकल कुछ यादीच्च नहीं रहता . . . ” उसे शायद कुछ याद न आया था। “आप कैसे याद रखे मेरेकू इत्ते साल? आप तो बिल्कुल न बदले अम्मा। वैसे हीच्च है। मेरेकू याद नहीं रहा . . . और फिर इत्ता पैसा मेरे पे ख़र्च किया?” उसकी आँखों में आश्चर्य और अविश्वास अब भी तैर रहा था। मन मानने को तैयार नहीं था। शायद डरा हुआ भी था कि यह बोझ वह कैसे चुकाएगा? अबूझ सा . . . सर को एक ओर झुकाए दिमाग़ पर ज़ोर देकर याद करने की कोशिश करने लगा। 

“मैं पैसा वापस कैसे देऊँगा? अब्बीच घर भी बेच दिए हूँ। अब काँ से लाऊँगा . . . क्या कि नहीं पता? आप थोड़ी मोहलत देना अम्मा, सच मानो . . . क्या भी करके मई आपका पैसा चुका दूँगा।” उसकी आवाज़ अपने इस झूठ का समर्थन करने में असफल हो रही थी। सूखी आँखों में असहायता स्पष्ट दिख रही थी पर फिर भी वह अपने मान को नीचे गिरने नहीं दे रहा था। 

“ज़रूर! आप अभी यह सब न सोचें तो अच्छा होगा।” 

“मेरेकू बहुत अचरज लगा अम्मा कि यहाँ कौन तो भी मुझे नहीं जानता . . . फिर यह सब कौन किया? पर आप तो . . . अब क्या कहूँ अम्मा मैं? बहुत बहुत शुक्रिया आपका . . .” उसका अभिमान और कृतज्ञता भाव मीरा को अंदर तक हिला गया। अनायास आँखें छलछला आईं। 

“न भैया . . . आप ठीक हो गए यही बड़ी बात है। अब कुछ दिनों में काम पर भी जा सकते है। है न?” 

“हाँ अम्मा . . . मैं क्या भी करके सब चुकता कर दूँगा . . .। आपका क़र्ज़ा सब चुकता कर दूँगा।” 

“अच्छा . . . अच्छा . . . ठीक है। जैसी आपकी मर्ज़ी। अरे! आपने नहीं पूछा मेरा मुन्ना कैसा है? उसके लिए तावीज़ और काला धागा लाना तो याद रहा था उस वक़्त आपको।” 

“या! अल्लाह! मैं तो भूल गया। देखा कुछ याद नहीं रैता अम्मा मेरेकू। बोलो . . . कैसा है मुन्ना . . . अब क्या करतें हैं?” 

“यहीं है और इसी शहर में। बड़ा डॉक्टर बन गया है। हैरानी हुई न?” मीरा हल्के से मुस्कराई। अपनी पहचान का वह तार उसने जान-बूझकर तोड़ दिया . . . ताकि क़र्ज़ा चुकाने के मानसिक दबाव से वह मुक्त ही रह सके। जीवन में अक़्सर अनभिज्ञता का विकल्प सुकून का कारण बन जाता है। और मीरा चाहती थी कि वह अपना बाक़ी जीवन, जितना भी बचा है, चैन से जिए, किसी दबाव में आकर नहीं। 

“अरे बाप रे अम्मा! क्या हमारे डॉक्टर अनुराग की माफिक?” 

“हाँ आपके डॉक्टर अनुराग की तरह ही। बड़े अस्पताल में काम करता है।” 

“वाह अम्मा . . . वाह! बहुत अच्छा। ख़ुदा आप लोगां को सलामत रखे। भर भर के दुआ है अम्मा।” उसकी आवाज़ गले में ही खो गई। कंठ रुँध गया आँख के कोर गीले हो गए। 

“अम्मा मैं जिऊँ या नहीं क्या फ़र्क़ पड़ता . . . आप मेरी जान पे इत्ता कायेको ख़र्च किए? क्या होता अम्मा मैं नहीं है तो?” उसे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई उसकी इतनी मदद कैसे कर सकता है। ज़रूरत पड़ने पर जहाँ रिश्तेदार भी मुँह मोड़ गए थे, वहाँ किसी अनजान ने उसको जीवन दान दे दिया था। 

“नहीं भैया आप ऐसे कैसे कह सकते हो? कल अगर कोई ‘आपा’ अपने मुन्ने को लेकर सड़क पर आपकी राह देख रही हो तो . . . आपकी साँसें और आपका ऑटो तो चलते रहना चाहिए न? नहीं तो फिर ‘वह’ कैसे जाएगी? आप जैसा मसीहा अगर न हो तो? बोलो न?” 

वह स्तब्ध रह गया . . . शुष्क होंठों पर हल्की सी मुस्कान तैर गई। कुछ क्षण बाद पलंग का सहारा लेकर खड़ा हुआ . . . झुककर सलाम किया और अपनी पत्नी के कंधों को पकड़कर धीमे क़दमों से बाहर की ओर चला गया। 

मीरा भाग कर खिड़की पर गई और उस दम्पत्ति को अस्पताल से निकलते देखती रही। 

एक बार फिर उसने न नाम पूछा . . . न पता . . . न मोहल्ला। अब इन बातों का क्या महत्त्व था? तब भी नहीं था और शायद . . . अब तो बिल्कुल भी नहीं। 
 

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टिप्पणियाँ

मधु 2022/06/19 11:21 PM

ऊफ़...हृदय की गहराई तक जाकर लौटने का नाम न लेने वाली कहानी। साधुवाद!

Deepika Grover 2022/06/17 01:47 PM

आपकी लिखी हुई कहानी पढ़ कर ऐसा लगा जैसे आज के समय में भी मानवीय रिश्तों का सम्मान है। लेखिका को इस दिल छूने वाली कहानी लिखने के लिए हार्दिक बधाई।

अजय वर्मा 2022/06/15 02:07 PM

बहुत ही सुंदर एवं मर्मस्पर्शी कहानी अश्रुयुक्त सुखान्त ने मन मंथन करने को मजबूर किया। क्षेत्रीय बोली ने कहानी को वास्तविकता प्रदान की।"ऑटो वाला"के के उत्कृष्ठ लेखन के लिए लेखिका को बधाई।

डाॅ जमुना कृष्णराज 2022/06/12 12:42 PM

दिल छूनेवाली कहानी! हैदराबादी भाषा के प्रयोग से इसकी सहजता और मिठास चौगुना बढ़ गई है।लेखिका को इस रोचक कहानी के सृजन के लिए हार्दिक बधाई!

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