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ऋष्यमूक पर्वत और यंत्रोधारक हनुमान मंदिर 

श्री राम राम रामेति,  रमे रामे मनोरमे।
सहस्र नाम तत्तुल्यम,  श्री राम नाम वरानने॥ 

प्रभु राम का नाम सभी कष्टों से तारने वाला तारक मंत्र है। यह एक अद्वितीय मंत्र सहस्र नामों के समान है। कलियुग में  भवसागर से पार कराने में सक्षम केवल राम नाम का  मंत्र ही है। गोस्वामी जी के शब्दों में—

सकल सौभाग्यप्रद सर्वतोभद्र- निधि, सर्व, सर्वेश, सर्वाभिरामं। 
शर्व-ह्रदि-कंज-मकरंद-मधुकर रुचिर-रूप, भूपाल मणि नौमि रामं॥ (विनय पत्रिका पृ.सं ६७) 

सर्व सौभाग्य प्रदाता अनंत कल्याणकारी विराटरूपी,  त्रिलोक नाथ आनंद दाता प्रभु श्री राम के चरण कमलों में प्रणाम कर आलेख का शुभारंभ किया जा रहा है। प्रस्तुत आलेख में  कर्नाटक राज्य में स्थित ऋष्यमूक पर्वत के पौराणिक स्थल महात्म्य  और उसके निकट श्री यंत्रोधारक हनुमान मंदिर के  वैशिष्ट्य पर प्रकाश डाला जाएगा। आइए इस स्थल के ऐतिहासिक और पौराणिक परिदृश्य का अवगाहन किया जाए। चूँकि पत्रिका का यह अंक प्रभु श्री राम को समर्पित है तो राम दूत हनुमान का उपस्थित हो जाना सहज संभाव्य  ही है।

यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तनम, तत्र तत्र कृत्मस्तकांजलिम्। 
भाष्पवारि परिपूर्ण लोचनम,  मारुति नमत राक्षसांतकम॥ 

जहाँ-जहाँ श्री रघुनाथ जी का कीर्तन होता है वहाँ-वहाँ हाथ जोड़े नतमस्तक नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे खड़े रहने वाले राक्षसों के संहारक श्री  हनुमान जी के चरणों में सादर प्रणाम प्रस्तुत करते हुए . . .


ऋष्यमूक पर्वत

वाल्मीकि रामायण  में वर्णित ऋष्यमूक पर्वत   वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इस पर्वत को घेरकर तुंगभद्रा नदी बहती है। इसी से कुछ दूरी पर माता अंजनी के नाम से भी एक पर्वत श्रेणी मिलती  है।  इसी प्रदेश में पंपासर तीर्थ भी हुआ करता था।  वर्तमान समय में यह प्रदेश कर्नाटक के पास हम्पी शहर के निकट का प्रदेश माना जाता है। आइए हम इस पर्वत के ऐतिहासिक और पौराणिक वैशिष्ट्य का अवगाहन श्री राम चरित मानस के आधार पर करें। 

मानस के अरण्य काण्ड में  प्रसंग आता है कि प्रभु श्रीराम अपने अनुज सहित माता सीता की खोज में  जब वन मार्ग से गुज़रते हैं जहाँ वे मार्ग में कई  राक्षसों का उद्धार करते हैं और फिर घूमते-घूमते वे  मतंग मुनि के आश्रम में पधारते हैं।  यहाँ  उनकी भेंट  भक्त शिरोमणि  शबरी से होती है। शबरी की तपस्या और भक्ति  से प्रसन्न होकर प्रभु उस पर अपनी विशेष अनुकंपा दिखाते हैं और उसे नव विधा भक्ति का वरदान भी देते हैं। सीता वियोग में व्यथित श्री राम को माता शबरी सांत्वना देती है और  प्रभु को  पंपासर जाकर ऋष्यमूक पर्वत पर  निवास कर रहे सुग्रीव से मैत्री करने का सुझाव  देती है। 

‘पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होईहि सुग्रीव मिताई॥ (मानस -अरण्य काण्ड- पृ- सं ६५२) 

ऋष्यमूक पर्वत सुग्रीव का निवास स्थान था। जब  दुराचारी  वालि अपने बल से मदांध हो अपने भाई सुग्रीव को युद्ध में पराजित कर उनकी पत्नी और   राज्य छीनकर उन्हें  किष्किंधा से निष्कासित कर देता  है  तब  सुग्रीव प्राण बचा कर भाग जाते हैं  व  मंत्रियों समेत इस पर्वत की शरण में आकर  छिप जाते हैं।  महाबली वालि से प्राण संकट की आशंका से भयभीत  सुग्रीव इसी पर्वत को अपना गुप्त निवास स्थान बना लेते हैं। सुग्रीव का  ऋष्यमूक पर्वत को चुनने के पीछे एक और  बलिष्ठ कारण भी था। वालि को  मतंग मुनि से श्राप  मिला था कि  इस पर्वत पर आते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।  उसकी कथा इस प्रकार है। 

वाल्मीकि रामायण में वर्णन आता है कि ऋष्यमूक पर्वत पर महर्षि मतंग का आश्रम हुआ करता था। माना जाता है कि वालि को उसके पिता इंद्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ था जिसको ब्रह्मा ने मंत्र युक्त करके उसे यह वरदान दिया था कि इस हार को पहनकर जब भी वह रणभूमि में दुश्मन का सामना करेगा तो दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और वह वालि को मिल जाएगी। इस कारण वह लगभग अजेय बन गया था और अपरिमित बल के नशे में चूर होकर  उसने अपने भाई तक को नहीं छोड़ा था। 

वहीं  दुंदुभि महिष रूपी असुर था। उस मूर्ख को  भी अपनी शक्ति पर दम्भ  हो आया था। कालांतर में एक बार असुर   दुंदुभि ने वालि को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। मदमस्त वालि ने उस  को समझाने की बड़ी कोशिश की। लेकिन  मंद बुद्धि वह नहीं माना। वालि युद्ध के लिए राज़ी हो गया  और उसने  बड़ी सरलता से दुंदुभि का  वध कर डाला। तत्पश्चात  वालि ने  उसके निर्जीव शरीर को दोनों हाथों से उठा कर एक योजन दूर पर  फेंक दिया। इस प्रकरण में उसके मृत शरीर के मुँह से टपकती हुई  रक्त की कुछ बूँदें महर्षि मतंग के आश्रम में पड़ी। महर्षि में दिव्य दृष्टि से देखा और कुपित होकर वालि को श्राप दे दिया कि भविष्य में  जब कभी  वह इस आश्रम के दायरे में आएगा तो मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। सुग्रीव इस बात से परिचित थे। इसीलिए जब वालि ने उन्हें युद्ध में हरा कर राज्य से खदेड़ दिया था तो उन्होंने इस ऋष्यमूक पर्वत की शरण ली थी। क्योंकि वालि इस पर्वत पर आने से डरता था और सुग्रीव उसकी तरफ से निश्चिंत होकर  इस पर्वत श्रेणी में छिपकर अवसर की प्रतीक्षा में  काल यापन कर रहे थे। 

इस पर्वत का एक और वैशिष्ट्य यह भी रहा है कि इसी स्थल पर भक्त हनुमान को अपने प्रभु राम के प्रथम दर्शन हुए थे। 

किष्किंधा काण्ड के आरंभ में गोस्वामी जी इस प्रदेश का संदर्भ देते हैं—

आगे चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥
तँह रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखी अतुल बल सींवा॥ (श्री राम चरित मानस पृ . सं ६६६) 

जब  प्रभु श्री राम माता सीता की खोज करते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचते हैं तब सुग्रीव का मन उन्हें देखकर आशंकित हो उठता है।  वे  सोचते हैं कि ज़रूर वालि ने ही इन तेजस्वियों को उसे मारने के लिए भेजा है।  प्रभु राम के तेज को देखकर सुग्रीव भयभीत हो जाते हैं और  हनुमान को आज्ञा देते हैं कि, “हे हनुमान! ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान जान पड़ते हैं। तुम विप्र वेश धर जाओ और  इनका रहस्य पाकर  वापस आकर मुझे बताओ”। 

तब हनुमान ब्रह्मचारी के वेश में जाते हैं और उनका प्रभु श्री राम से मिलन होता है। अपने प्रभु का परिचय पाकर हनुमान अचंभित  प्रेम वश  भाव विह्वल हो  जाते हैं। पृथ्वी पर उनके कमल  चरणों में गिर पड़ते हैं। वाणी साथ छोड़ देती है,  मुख से वचन नहीं निकलते और असीम आनंद में डूब जाते हैं—

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना।।
पुलकित तन मुख आव न बचना।  देखत रुचिर बेष के रचना॥ (श्री राम चरित मानस .. -किष्किंधा काण्ड - पृ. सं ६६७) 

 यह पर्वत शृंखला अति पावन मानी गई है। इन्हीं पहाड़ियों पर अतुलित बल निधान पवनपुत्र अपने प्रभु  श्री राम और उनके अनुज लक्ष्मण को कंधों पर बिठाकर वानर राज सुग्रीव के पास लेकर जाते है। यहीं  पर उन दोनों की  मैत्री  होती है जो प्रकारांतर से माता सीता की खोज का हेतु बनती है।

ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से ऋष्यमूक पर्वत का एक यह भी वैशिष्ट्य रहा है कि प्रभु श्री राम के जीवन  में इस प्रदेश ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। रामायण में वर्णित श्री राम का चरित्र शील शक्ति और सौंदर्य की त्रिवेणी है।  मानस के बाल काण्ड,  अयोध्या काण्ड और  अरण्य काण्ड में भगवान का लोक रंजन व लोक कल्याणकारी रूप को ही दर्शाया गया है।  अब तक उनके  चरित्र में शील और सौंदर्य ही अवगत होते  हैं। वे एक आदर्श पुत्र,  आदर्श भाई,  आदर्श पति,  आदर्श सखा के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी लीलाएँ लोकमंगलकारी और  समन्वयकारी हैं। लेकिन सीता अपहरण के पश्चात प्रभु की  जीवन लीला में एक नया अध्याय आरंभ होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का  शक्तिशाली कुशल राजनीतिज्ञ राम में परावर्तन। करुणा निधान प्रभु अब धर्म और नीति  का उल्लंघन करने वाली  हर तामसी  शक्ति को दंडित करते हैं।

इसी पर्वत शृंखला  पर श्री राम सुग्रीव से  रावण द्वारा सीता अपहरण की कथा सुनते हैं।  अत्याचारी उच्छृंखल रावण का वध  करने के लिए  वानर सेना के साथ मिलकर वे  यहीं  बैठकर रण नीति बनाते हैं।  यही वह बिंदु है जहाँ उनके राजनैतिक जीवन का आरंभ होता है। यह एक ध्यातव्य तथ्य है कि उनके इन राजनैतिक क्रियाकलापों की शुरुआत इसी पर्वत शृंखला  पर हुई थी। यहीं से  लंका प्रस्थान का निर्णय लिया गया था। वानरों की टोलियों को विभिन्न दिशाओं में भेजा गया था। धर्म के अधर्म  पर विजय की नींव यहीं पड़ी थी।  राम रावण युद्ध परियोजना के संकल्पना की  रूपरेखा इसी प्रदेश में तैयार की गई थी। सुग्रीव के राज्याभिषेक होने के पश्चात यहीं एक शिला पर बैठ कर  प्रभु ने   सुग्रीव को आदर्श राजनीति की शिक्षा दी थी।   लंका प्रस्थान से पहले यह पर्वत उनका अस्थाई निवास स्थल भी माना जाता है। इसका प्रमाण मानस में मिलता है। कहा जाता है कि देवताओं को यह भान था कि प्रभु श्रीराम इस पर्वत पर कुछ दिन वास करेंगे इसी कारण उन्होंने यहाँ सुंदर सी गुफा पहले से ही बना कर रख दी थी। 

प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेऊ रुचिर बनाई।
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ’॥ (मानस – किष्किंधा काण्ड – पृ. सं – ६७८) 

इस दृष्टि से भी ऋष्यमूक पर्वत  को रामायण में विशेष महत्वपूर्ण स्थल माना गया है। 

आइए अब हम इस प्रदेश के वर्तमान परिदृश्य पर चर्चा करेंगे।  

किष्किंधा और ऋष्यमूक पर्वत  वर्तमान में हम्पी शहर के निकट का प्रदेश है जो बंगलूरू से तीन सौ चालीस किलोमीटर की दूरी पर है। यह प्रदेश होसपेट  से तीन किलो मीटर और बल्लारी से साठ मील की दूरी पर है। होसपेट  दो मील की दूरी पर अंजनी माता के नाम से भी पर्वत है जो हनुमान की माता थी और यही पवन पुत्र  हनुमान का जन्म स्थल भी माना जाता है। इसके कुछ दूरी पर ऋष्यमूक पर्वत स्थित है। भारत के किसी भी प्रदेश से बंगलूरू आसानी से पहुँचा जा सकता है। फिर वहाँ से सड़क मार्ग से हम्पी तक की यात्रा की  जा सकती है। हम्पी से होसपेट तेरह मील की दूरी पर है।  हम्पी और होसपेट में  आवास की सभी सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध हैं जिससे यात्रियों को किसी प्रकार की कठिनाई  नहीं होती। पर्यटकों  के लिए यहाँ कई और भी ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल है। 

यहाँ का ऐतिहासिक  विरुपाक्ष मंदिर प्रख्यात आकर्षण का केंद्र है। विजयनगर साम्राज्य के संरक्षक देवता को समर्पित  ७वीं शती में बनाया गया यह मंदिर अपने गौरवशाली  इतिहास, समृद्ध विरासत  और अद्भुत वास्तु व शिल्प कला के कारण यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल में शामिल है। 

विरूपाक्ष मंदिर

१६ वीं शती में निर्मित द्रविड़ स्थापत्य शैली की उत्कृष्ट  कलाकृति  विजय विठ्ठळ मंदिर  बहुत ही विख्यात  आकर्षण का केंद्र है जिसके ५६ स्तंभों को थपथपाने से संगीत की लहरियाँ गूँजती है।   इस मंदिर के मुख्य परिवेश में रखा हुआ पत्थर पर तराशा एक रथ है जो हम्पी की वास्तु कला का प्रतीक माना गया है।

पत्थर का रथ

विठ्ठल मंदिर

 

इसके अतिरिक्त लोटस मंदिर,  हेमकुंड पहाड़ी मंदिर,  मतंग मुनि की पहाड़ी,  इत्यादि कई आकर्षण के केंद्र हैं जो पर्यटकों  का मन मोह लेते हैं। 

हाथी अस्तबल हम्पी

 मतंग हिल (पहाड़)

                            

                       

 

 

 

 

 

 

लोटस मंदिर हम्पी 

लोटस मंदिर हम्पी 

तुंगभद्रा  नदी और उसके निकट ऋष्यमूक  पर्वत  के आवृत को चक्र तीर्थ कहा जाता है। यही चक्रतीर्थ रामायण में वर्णित पंपासर तीर्थ  माना गया है हम्पी से अनागुदी गाँव,  जो बीस किलोमीटर की दूरी पर है,  जाते समय तुंगभद्रा नदी को पार करके कुछ गुफाएँ मिलती है जिसके अंदर सप्त ऋषियों व, सूर्य और सुग्रीव इत्यादि सभी की पत्थरों पर तराशी मूर्तियाँ पाई जाती  हैं। उससे कुछ दूरी पर ही पर्वत की गुफाओं के बीच पंपा सरोवर है। तीर्थ यात्री प्रायः इस प्रदेश में आते है। यह प्रदेश कई मंदिरों और पावन  तीर्थों का संगम स्थल है। यहाँ तुंगभद्रा नदी धनुष के आकार में बहती है।


पम्पा सरोवर 

आइए इसी क्षेत्र के एक और  चमत्कारी विलक्षण  महिमान्वित मंदिर का भी हम दर्शन करें।

इसी पवित्र नदी के किनारे छोटी सी पर्वत माला पर स्थित है भगवान हनुमान का विलक्षण  दिव्य मंदिर जो  ‘यंत्रोधारक हनुमान मंदिर’  के नाम से विख्यात  है। इस नामकरण  के पीछे एक कथा प्रचलित है। 
                                
यंत्रोधारक हनुमान मंदिर 

यंत्रोधारक हनुमान मंदिर 

१५ वीं शती में विजयनगर साम्राज्य के शासक तम्माराया द्वारा निर्मित यह मंदिर अद्भुत महिमा और शक्ति का पर्याय माना जाता है। मंदिर का क्षेत्रफल इतना विशाल तो नहीं लेकिन अपने आप में एक अपूर्व छटा को समाहित किए हुए है। पर्वत की छोटी सी चोटी पर बने  हुए इस  मंदिर के गर्भ गृह में श्री हनुमान की मूर्ति विलक्षण  रूप से एक श्री यंत्र में प्रतिबंधित है। मूर्ति को आवृत करता है  एक षटकोणीय बंध जिस पर बारह मर्कट एक दूसरे की पूँछ को पकड़े हुए पीछे की ओर देखते हुए तराशे गए हैं। भगवान की श्री मूर्ति ग्रेनाइट पत्थर की है जिसमें वे पद्मासन में बैठे हुए दिखाई देते हैं। मूर्ति का दक्षिण हस्त व्याख्यान मुद्रा में  और वाम हस्त ध्यान मुद्रा में निर्मित है। भगवान की मूर्ति किरीटमुक्तामणि  सहित अन्य आभूषणों से सुसज्जित है। 

श्री चक्र यंत्र में प्रतिबंधित इस अद्वितीय मूर्ति की संरचना के  पीछे एक रोचक कथा है। 

मध्वाचार्य  सिद्धांत के अनुसार भगवान हनुमान वायु देव का ही अवतार  माने गए हैं जो सृष्टिकर्ता  श्री विष्णु  के सदृश ही इस ब्रह्माण्ड  की  संरक्षिका शक्ति माने जाते हैं। इस संप्रदाय का  बीज मंत्र है— 

हरि सर्वोत्तमा,  वायु जीवोत्तमा   

अर्थात श्री महा विष्णु  इस सृष्टि के सर्वोच्च नियामक है और वायु देव जड़ चेतन के अधिष्ठाता देव है। इस वेदांत मार्ग के अनुसार  श्री हनुमान वायु देव के प्रथम  अवतार अधिनायक देव  माने गए है। मध्व सिद्धांत के अनुयायी यह धारणा रखते हैं कि इस सृष्टि में  श्री महा विष्णु के बाद  हनुमान ही नियंता शीर्ष देव है।

 षटकोणी बंध में प्रतिबंधित हनुमान की प्रतिमा

इस मंदिर के स्थल पुराण के अनुसार मध्वाचार्य  के  द्वैत मार्ग में दीक्षित संत व्यासराय तीर्थ महाराज  भगवान हनुमान के प्रगाढ़ भक्त थे।  ये विजय नगर राजाओं के आश्रय में रहते थे और इन्होंने  दक्षिण में  द्वैतवादी  सिद्धांत के प्रचार प्रसार में अहम भूमिका निभाई थी। कहा जाता है कि उन्हें भगवान हनुमान को प्रसन्न करने की  अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थीं। तुंगभद्रा नदी के समीप ऋष्यमूक पर्वत पर श्री  हनुमान की साधना कर रहे व्यासराय तीर्थ महाराज ने एक बार भगवान की छवि को एक बड़े से  पत्थर  पर कोयले से चित्रित किया  और फिर उस  की पूजा में संलिप्त हो गए। पूजा के उपरांत उन्होंने पाया कि श्री हनुमान का चित्र अचानक विलुप्त हो गया है। वे आश्चर्य में पड़ गए। उनकी समझ में नहीं आया कि श्री भगवान क्यों ग़ायब हो रहे हैं। यह प्रक्रिया बारह दिन तक जारी रही। वे हनुमान जी  को चित्रित करते और हनुमान  अदृश्य हो जाते।  बारह दिनों तक पत्थर पर चित्रित  हनुमान के चित्र इसी तरह  अदृश्य होते रहे।  श्री जी  की इस लीला से व्यथित होकर व्यासराय तीर्थ महाराज ने दुखी मन   उनसे प्रकट होकर दर्शन देने का आग्रह किया। भगवान उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए,  दर्शन दिया और वरदान भी दिया। तदुपरांत हनुमान ने उन्हें आज्ञा दी कि उन्हें मंत्र द्वारा  षटकोणीय यंत्र में प्रतिबंधित कर इसी स्थल पर उनकी मूर्ति की स्थापना की जाए। उसी बंध में  अदृश्य हुए बारह मर्कटों को भी मंत्रोपासना से  आह्वान  कर प्रतिबंधित कर दिया गया। यह ऋष्यमूक पर्वत  वायु पुत्र हनुमान का  अत्यंत प्रिय स्थल माना गया है क्योंकि इसी स्थल पर उन्हें उनके प्रभु श्री राम मिले थे। इसी कथा के अनुसार यह मंदिर विजयनगर के तत्कालीन शासक के द्वारा उसी स्थल पर निर्मित किया गया है। यह  मंदिर इस प्रदेश में  प्राणदेव मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के परिसर में कोदण्डधारी भगवान श्री राम का भी मंदिर है जो भक्त और भगवान के मिलन को पुष्ट करता है। कहा जाता है कि श्री व्यासराय तीर्थ महाराज ने अपने जीवन काल में  असंख्य हनुमान मंदिरों की स्थापना की थी लेकिन यह मंदिर एक विशेष वैशिष्ट्य से परिपूरित है– यंत्र प्रतिबंधित ‘यंत्रोधारक हनुमान’  मंदिर।

संक्षिप्त में कहा जा सकता है प्राकृतिक सौंदर्य  और महिमा से भरपूर यह पावन तीर्थ स्थल भक्तों व  पर्यटकों के लिए लगभग अज्ञात और उपेक्षित ही रहा  है। कारण कुछ भी रहा हो,  लेकिन यहाँ भक्तों का आवागमन बहुत कम ही रहा है। निर्जीव प्रांत,  शांत वातावरण में बहता हुआ तुंगभद्रा का सघन जल प्रवाह,  छिटपुट पहाड़ियों की श्रेणियाँ,  चारों ओर हरितिमा से आवृत  यह महिमान्वित  स्थल भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला अद्वितीय क्षेत्र है। यहाँ की धरती में रामायण कण-कण पर गुंजायमान मालूम पड़ती   है। इस प्रदेश के दर्शन मात्र से भक्त हृदय पुलकित हो जाते हैं। अंतःकरण में श्री राम नाम की ज्योति प्रज्वलित हो जाती है। यह भूमि ऋषियों की यज्ञ भूमि है,  तपो भूमि है। प्रभु राम ने दुराचारी वालि का वध कर वानर राज सुग्रीव का राज्याभिषेक इसी पर्वत पर  किया था। यह प्रदेश महर्षि मतंग की कर्म भूमि है। इसी प्रदेश में भक्त वत्सल भगवान में शबरी को मोक्ष दिया था।  रामभक्त हनुमान की  यह अभीष्ट वरद भूमि है जहाँ उनकी तपस्या फलीभूत होकर उन्हें उनके प्रभु श्री राम के प्रथम दर्शन प्राप्त हुए थे।  श्री व्यासराय  तीर्थ स्वामी  की यह  तपस्थली,  प्रभु श्री राम के  चरण रज से सम्पूरित  यह पावन स्थल एक अलौकिक दिव्य प्रदेश है। इन पर्वत शृंखलाओं में अद्भुत पारलौकिक  सौंदर्य छिपा हुआ है। इतने महिमान्वित ऋष्यमूक पर्वत का दर्शन समस्त मनोरथों  को पूर्ण करने वाली चिंतामणि है। कलियुग में  तीनों प्रकार के दुःखों,   पापों और दोषों को हरण करने वाला तारण हार स्थल  है।  वास्तव में यह पृथ्वी का स्वर्ग माना जा सकता है। कहा जाता है कि अगर मनुष्य योनि में जन्म लिया है तो इस पावन तीर्थ  प्रदेश का दर्शन हर मानव के लिए अवश्यंभावी है। प्रभु श्री राम की विशेष अनुकंपा जिस जीव पर हो जाती है उसे ही इस प्रदेश के दर्शन का लाभ मिलता है। और भगवान तो आशुतोष है,  नाम स्मरण मात्र से ही प्रसन्न हो जाते है। कलियुग में यही एक सरल  उपाय है भगवान की कृपा प्राप्त करने का ..अविरल निरंतर राम  नाम जप! 

अंत में प्रभु राम के चरणों में समर्पित गोस्वामी जी की पंक्तियाँ—

सहज सुंदर सुमुख सुमन, शुभ सर्वदा,  शुद्ध सर्वज्ञ,  स्वछंदचारी।
सर्वकृत, सर्वभूत,  सर्वजित,  सर्वहित,  सत्य संकल्प कल्पांतकारी॥ 
नित्य, निर्मोह,  निर्गुण,  निरंजन,  निजानंद,  निर्वाण,  निर्वाणदाता।
 निर्भरानंद,  निःकंप,  निःसीम,  निर्मुक्त,  निरुपाधि,  निर्मम विधाता॥ 

शुभ्मस्तु!
‘जय श्री राम’

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टिप्पणियाँ

शैलजा सक्सेना 2024/03/27 09:46 PM

आज आपके लेख पढ़ रही हूँ और हर लेख बहुत सुन्दर लिखा हुआ, उत्कृष्ट जानकारी देने वाला है। मन में भक्ति भाव जागता हौ और इस स्थान के दर्शन की उत्सुकता बहुत बढ़ गई है। आपका हार्दिक धन्यवाद!

नागराजन सी 2021/12/23 01:11 PM

निश्चित है दैवीय शक्ति से परिपूर्ण स्थान जो सूर्य पुत्र सुग्रीव और माँ अंजनी देवी के पुत्र हनुमान जी दोनों के प्रथम दिव्य दर्शन हुए थे प्रभु श्री राम से वह ऋष्यमूक पर्वत । वाल्मीकि रामायण तथा रामचरित मानस से आधारित भक्ति रस पूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं के साथ आज की वर्तमान स्थिति का वर्णन करने वाला आपका लेख बहुत ही शानदार है । लेख पढ़ते समय मन में भक्ति भाव अपने आप फैल जाती है और स्थान देखने की इच्छा प्रबल हो जाती है।

पाण्डेय सरिता 2021/10/22 09:54 AM

अद्भुत जानकारी के साथ मनोरम सांस्कृतिक विरासत

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