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अक्षय तृतीया: भगवान परशुराम का अवतरण दिवस

 

वैशाख माह की शुक्ल पक्ष तृतीया का हमारे सनातन धर्म में विशेष महत्त्व है। अक्षय तृतीया अर्थात्‌ आखा तीज का दिन बहुत शुभ होता। अक्षय तृतीया को सर्वसिद्ध मुहूर्त माना जाता है। मान्यता है कि यह दिन इतना शुभ है कि बिना पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की ख़रीददारी या घर, भूखण्ड, वाहन आदि की ख़रीददारी से सम्बन्धित कार्य किए जा सकते हैं। नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना या उद्घाटन का कार्य श्रेष्ठ माना जाता है। पुराणों मेंं लिखा है कि इस दिन पितरों को किया गया तर्पण तथा पिण्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है। अक्षय तृतीया ही के दिन सतयुग और त्रेतायुग युग का प्रारंभ हुआ था। अक्षय तृतीया ही के दिन माँ गंगा राजा भगीरथ की तपस्या के फलस्वरूप स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुई थी। अक्षय तृतीया ही के दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी हुआ था। अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान विष्णु के छठें अवतार भगवान परशुराम जी का अवतरण हुआ था। 

भगवान परशुराम ऋषि जमदग्नि व रेणुका के पाँचवे पुत्र हैं। इन्हें ‘आवेशावतार’ भी कहा जाता है। इन्होंने अपने आवेश मेंं इस धरती को 21 बार क्षत्रिय रहित किया था। लेकिन क्या आप जानते हैं इन्होंने ऐसा क्यों किया? 

पौराणिक कथा है कि एक समय पर पृथ्वी पर एक राजा हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन का राज्य था। वह इतना ताक़तवर था कि उसने लंकापति रावण को भी अपनी कारागार मेंं क़ैद कर लिया और भगवान ब्रह्मा के आग्रह पर छोड़ा था। का‌र्त्तवीर्यअर्जुन ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध मेंं किसी से परास्त न होने का वर पाया था। इसीलिए उसे सहस्त्रबाहु अर्जुन या सहस्त्रार्जुन भी कहा जाने लगा। ये क्षत्रियों का अधिपति था। 

एक बार संयोगवश वन मेंं आखेट करते का‌र्त्तवीर्यअर्जुन जमदग्नि मुनि के आश्रम जा पहुँचा और घमंड मेंं भरकर मुनि का उपहास करने की नीयत से सेना सहित वहाँ ठहरने की इच्छा ज़ाहिर की। जमदग्नि मुनि ने देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से तुरंत वातानुकूलित सुंदर भवन एवं स्वादिष्ट भोजन समस्त सैन्यदल के लिए प्रस्तुत करें। अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए सहस्त्रार्जुन कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। 

जिसके फलस्वरूप कुपित परशुराम जी ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति मेंं उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। माँ रेणुका भी पति की चिताग्नि मेंं प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम जी ने संकल्प लिया, “मैं सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा।” और उन्होंने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। जो बच्चे गर्भ मेंं रह जाते, केवल वही बचते थे। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त मेंं महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। 

इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेध महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। भगवान परशुराम अमर है। इसीलिए मन जाता है कि वे आज भी यहाँ निवास करते है। 

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