अंतिम मिलन
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. पद्मावती15 Mar 2024 (अंक: 249, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
वसुधा का अप्रतिम लावण्य अपने निखार में था। पूरे साज-सिंगार से वह चली थी। कितनी मिन्नतों के बाद चंदर ने आज आने का वादा किया था। प्रियतम से मिलने की प्रगाढ़ आकुलता ने पूरे वातावरण को मादक बना दिया था। क्षणभंगुर गगन के राही से धरा का मिलन। और आज तो अनहोनी हो गई थी। आज चाँद ज़मीन पर उतर आने वाला था उसके आग़ोश में। वसुधा की ख़ुशी का पारावार न रहा।
“वसु मैं तुमसे बहुत ज़रूरी बात बताने आया हूँ कि मेरी पोस्टिंग ऐसे स्थान पर हो गई है जहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। और इसीलिए शायद यह हमारा अंतिम मिलन हो!”
चंदर भारतीय सेना का जवान था। बड़ी मुश्किल से वह वसु से मिलने की इजाज़त लेकर आया था।
“तो आओ न इस मिलन को यादगार बना लें। आज हम प्रणय के बंधन में बँध जाएँ। प्रकृति के सब नियम तोड़ एक हो जाएँ। क्या पता कल हो ना हो . . .”
वसुधा अपने चाँद को उससे माँग लेना चाहती थी। उसकी एक किरण जिसकी रोशनी में बाक़ी का मार्ग काटा जा सकता था। जानती थी यह समुचित नहीं पर मोह संवरण असंभव प्रतीत हो रहा था।
चंदर आश्चर्यचकित हो गया अपनी अभिसारिका के आग्रह पर।
उन्मादी पूर्णमासी के चाँद ने अपने उजास से वसुधा को आद्यांत भिगो दिया। ओस की बरसात होने लगी। झींगुरों की शहनाइयाँ बजने लगी। तारों की बारात में जुगनुओं ने लड़ियाँ पिरो दी। चंपा चमेली के बिछौने में नव दंपती ने एक दूसरे का संबल बनने की क़समें खाईं।
पर हाय! निर्मोही समय! समय पर किसका वश? अभी आस पूरी न हुई थी कि नभ पर उभरी हल्की लालिमा से चाँद की उजास फीकी पड़ गई।
मिलन के बँधन शिथिल पड़ गए। एक बार फिर चाँद अदृश्य हो गया लेकिन इस बार हमेशा के लिये। और वसुधा . . . वसुधा तृप्त नेत्रों से गगन को ताकती निश्चेष्ट रह गई।
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टिप्पणियाँ
डॉ जमुना कृष्णराज 2024/03/15 11:12 AM
सुंदर प्रकृति चित्रण के माध्यम से कहानी को आगे बढ़ाई है आपने जो निश्चय ही सराहनीय है! बधाई पद्मावती जी!
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डा वासुदेवन शेष 2024/03/16 12:19 AM
अंतिम मिलन शीर्षक पढते ही यकायक पढने को मन आतुर हो उठता है।भाषा शैली पढकर मन करता है बार बार पढे।प्रकृति का इतना मनोरम वही खींच सकता है जिसने प्रकृति को जाना समझा हो।चंदर वसुधा का अंतिम मिलन कया हो पाया? मै असमंजस मे हूं।शायद लेखिका इसे पाठको के समझने के लिए छोड दिया है।लेखिका को बधाई।