शगुन
कथा साहित्य | कहानी डॉ. पद्मावती15 Sep 2022 (अंक: 213, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
“क्या कहती हो रंगम्मा? कमला का ब्याह प्रसाद से? सब मंजूर? अच्छी तरह से सोच लिया? . . . बाद में फिर न नहीं बोलना। मैं तो फिर कुछ नहीं सुनूँगा,” प्रधान ने चेतावनी भरे स्वर में कहा।
पारदी बस्ती की रंगम्मा आज अपनी दूसरी बेटी कमला का शगुन पक्का करने आई थी और विडम्बना यह थी कि वह अपनी बेटी का हाथ उसी आरोपी दामाद प्रसाद के हाथ में देना चाहती थी जिसे एक माह पहले उसी ने जेल भिजवाया था।
प्रधान इस बस्ती का मुखिया समान था। पारदी बस्ती . . .। अपने अवैध कारनामों के लिए मशहूर। कीड़े-मकोड़ों की तरह रेंगती ज़िन्दगी का सैलाब। अपराध का अड्डा। गुंडे, जुआरी, मवाली, शराबी और अपराधियों से लदी बस्ती का मुख्य व्यवसाय तो देसी दारू बनाना और बेचना ही था। ये लोग सुबह तो सज-धजकर फल-फूल और सब्ज़ियाँ बेचते थे और रात के अँधेरों में बड़े-बड़े ड्रमों में घोल तैयार करते थे। दिन में तो यह बस्ती सर्व सामान्य दिखती लेकिन रात में जैसे कायापलट हो जाता और यह बड़ी ही रंगीन बन जाती थी। दिन ढलते ही इनका धंधा ज़ोर पकड़ता और अंतिम पहर आते-आते परवान चढ़ जाता। मर्द तो मर्द, औरतें भी . . . बिना किसी भेद-भाव नियम उसूल क़ायदे क़ानून की परवाह न करते हुए मनमौजी बन जीवन के मज़े लूटती थीं। काफ़ी प्रगतिशील विचारों के थे ये पारदी। आदमी और औरत का भेद न था। अँधेरा होते ही पूरा माहौल नशीला हो जाता। बड़े-बड़े लाउडस्पीकरों में इनका गाना-बजाना शुरू हो जाता था और फिर देर रात तक पीकर सब बेशुमारी में मदमस्त झूमते रहते। इस अंतहीन मदमस्ती की परिणति होती गाली-गलौज से या भयंकर लड़ाई-झगड़े से या फिर कभी-कभी उसकी भी चरम सीमा ख़ून-ख़राबे से। वैसे पारदी थे तो क़ायदे के पक्के। स्थानीय चौकी को नियमित मोटा चंदा भेज दिया जाता था इसीलिए सब फ़साद हो जाने के बाद औपचारिकता निभाने पुलिस की गाड़ी आती और दस-बीस को पकड़ कर ले जाती थी। एक-दो डंडे खिलाती और फिर सुबह तक सब सामान्य। यथा-तथा। सब के सब बाहर . . .। खुले आसमान के नीचे . . . अपने-अपने काम में व्यस्त। और यह सब कैसे होता? ईश्वर की कृपा से या फिर प्रधान की कृपा से . . .? इस रहस्य को तो वो ही जाने।
तो यानी आये दिन इस बस्ती में कोई न कोई हादसा हो जाता और वे लोग अपने प्रधान के पास दौड़ पड़ते मदद की गुहार लेकर। छोटे-मोटे दंगे फ़साद उसके यहाँ सुलझा लिए जाते थे। प्रधान था बड़ा काम का आदमी। उठना-बैठना था उसका बड़े लोगों में। एक-दो छिटपुट नेताओं का चमचा भी था। बड़े लंबे हाथ थे उसके। और शायद इसीलिए यह बस्ती शहर के बीचों-बीच अपनी शोभा बनाए हुए थी। क़ानूनी चेतावनियों के बावजूद इसे कोई छू तक नहीं पाया था। आख़िर बड़ा वोट बैंक भी थी न . . .। इसीलिए।
आज पूरी बस्ती रंगम्मा के दुख-दर्द में या कहो ख़ुशी में . . . शामिल होने आई थी प्रधान के द्वार पर।
“हाँ! अय्या . . .। सब सोच लिया,” रंगम्मा ज़मीन पर पसर कर बैठ गई। सोच कर आई थी कि आज तो फ़ैसला कर के ही जाएगी। एक महीना हो गया था प्रसाद को अंदर गए। अब और समय नहीं बर्बाद किया जा सकता था। उसने अपनी साड़ी के पल्लू में बँधे बंडल में से एक पान पत्ता निकाला और छोटी सी डिबिया में धरा चूना उस पर डाल मुँह में घुसेड़ लिया। उँगलियों को साड़ी से पोंछ इत्मीनान से रस निगलती बोली, “बस अब आप उसे एक बार बाहर ला दो अय्या, बस एक बार। फिर सब ठीक समझो।
“एक बात और अय्या . . . प्रसाद की अम्मा से बोलो, शीतला के सब गहने निकाल कर वापस कर दे तो मैं कमला को ब्याह के बखत दे दूँ। ख़ाली हाथ तो नहीं जाएगी बिटिया . . . है न अय्या?”
शीतला रंगम्मा की पहली बेटी थी जिसने लगभग एक महीने पहले आत्महत्या कर ली थी और पुलिस शक के घेरे में उसके पति प्रसाद को पकड़ कर ले गई थी। आत्महत्या का मामला था और उस पर रंगम्मा ने ही उसके ख़िलाफ़ गवाही दे दी थी। उसका मानना था कि यह आत्महत्या नहीं हत्या है।
“पर तुमने ही तो प्रसाद को ही दोषी माना था न उस बखत? तुम्ही ने जोर बयान दिया था उसके खिलाफ। फिर आज यह बदली क्यों?” प्रधान ने अपने तेल चुपड़े बालों में उँगली घुसाई और आँखें छोटी कर धीमे स्वर में कहा, “खर्चा होगा रंगम्मा प्रसाद को छुड़ाने के वास्ते। खाली-पीली तुमने केस ठोक दिया। मामला यहीं दबा देते तो ठीक था पर तब तो तुम न मानी। तब उस बखत तुम्हें उसके बच्चे नजर नहीं आए? अब उसे बाहर लाने में कितना खर्च होगा जानती है क्या?”
“अय्यो! मेरी बुद्धि को कीड़ा लगे। न अय्या न। मैं केस वापस लेती अब . . .। कोई शिकायत नहीं। वो कुछ नहीं किए है। बस उस के गहने दिला दो अय्या उनके घरवालों से। पोट्टी ने ही जल्दबाजी की। इसमें जवाईं का दोष नहीं। मैं मानती हूँ अय्या अब। उसका कुछ दोष नहीं। अब आप जो समझो करो। सब आपकी किरपा पर है।”
शीतला थी बड़ी ख़ूबसूरत और अपने चचेरे भाई मनहर के प्यार में दीवानी। इसीलिए वह हमेशा प्रसाद के शक के दायरे में रही थी। प्रसाद को मनहर एक आँख न भाता था। उस दिन उस ने उन दोनों को रंगे हाथों पकड़ लिया था और आग सुलग उठी थी।
“न . . . अम्ममा न . . . झूठ . . . झूठ . . . झूठ . . .। मैं देखी . . . उस दिन बाबा ने अम्मा को ख़ूब मारा . . . गाड़ी का तेल डाला अम्मा पर . . . बहुत मारा . . . तबी तो माँ जल गई . . . माँ जल गई . . . ,” मृत शीतला की आठ वर्षीय बेटी पुरमी हाथ पाँव ज़मीन पर पटकती गला फाड़-फाड़ कर रोने लगी। बहुत देर से वह वहीं बैठी सब की बातें ध्यान से सुन रही थी।
“चुप कमबख़्त . . . चुप। जो नहीं बोलना वहीं बकती है। दिख नहीं रहा अम्ममा बोल रही है,” रंगम्मा ग़ुस्से से जल भुन उठी। उसके बाल पकड़े और एक झन्नाटेदार झापड़ रसीद दिया गाल पर। वह बच्ची गाल सहलाती चिल्लाती हुई दौड़ी और भागकर मौसी की गोद में दुबक गई जहाँ पहले से ही चार साल का उसका छोटा भाई कुल्लू अँगूठा चूसता बिटर-बिटर सब को देखे जा रहा था। अपनी बहन को चाँटा खाते देख वह मुँह से अँगूठा निकाल ज़ोर-ज़ोर से ताली पीट कर उछलने लगा। बहन को बिलखता देख उसे बड़ा मज़ा आ रहा था . . .
“अय्या! बच्ची की बातां पर मत जाओ। आप समझ लो बस। वह तो बाहर आएगा ही आएगा और शादी तो करेगा ही करेगा। तब इन बच्चों का क्या? इनकी सोचो अय्या . . . कमला को उसे ब्याह दूँ तो अच्छा पाल लेगी न? अब दूसरी कोई बाहर वाली आए तो पता नहीं बच्चों को क्या पालेगी? कैसे रखेगी? आप हमारे माई बाप . . .। जानते हो पहली का किस मुश्किल से गहना जुटाया अब दूसरी का कहाँ से लाऊँ? पहली कच्ची दिमाक की थी। दामाद से न बना पाई,” रंगम्मा सुबकने लगी
“अरे रंगम्मा! तेरी पोट्टी ही फसाद खड़ी की थी तुझे तो मालूम न। फिर तू प्रसाद को काहे को कोसती थी? औरत को तो सब्र रखना चाहिए था या नहीं?” प्रधान झल्ला गया था। शाम हो रही थी और इसीलिए वह मामला ख़त्म करना चाहता था।
“हौ अय्या . . . आप एकदम ठीक बोले। कितना समझाया था मैंने पगली को पूछो मत,” बूढ़ी ने माथे पर आया पसीना पोंछा। डर लगने लगा था उसे कि प्रधान न मुकर जाए। कमला कॉलेज पास थी। बड़ी ज़िद्दी थी वह। लड़-झगड़ कर उसने अपनी पढ़ाई की थी। रंगम्मा भी झुक गई थी उसकी ज़िद के सामने।
“जो हुआ सो हुआ। कमला को तो वह बहुत पसंद भी करता है। यह तो बहुत शांत है। निभा लेगी। बस आप इंतेजाम कर लो अय्या। मैं केस वापस लेती हूँ,” बोलते-बोलते बुढ़िया खाँसने लगी। साँस फूल आई। गले में कुछ अटक सा गया। निगाहें प्रधान के चेहरे पर टिक गईं।
“ठीक है रंगम्मा। कोशिश करता हूँ। ले आऊँगा बाहर उसे। फिर जैसा तुम कहती वैसा होगा। ठीक? पर फिर से कोई किरकिरी न शुरू कर देना तुम माँ बेटियाँ। अब की बार समझा दो बेटी को। ये दूसरी तो कॉलेज भी पढ़ ली है। तुझे तो अक्कल नहीं लेकिन ये तो बोहत समझदार है। अब कोई नया चक्कर न शुरू कर दे। देख ले। सँभल कर रहे। समझी। अब तो मुझे कुछ न कुछ करना ही होता,” प्रधान चौकी की ओर निकल पड़ा।
बूढ़ी रंगम्मा का मुरझाया चेहरा खिल उठा। बस्ती वाले ताली पीट कर झूमने लगे। औरतें बुढ़िया को घेर कर खड़ी हो गईं . . .। गले लगा लगाकर बधाई देने लगीं। आज रात जश्न होने वाला था। सब ख़र्च बुढ़िया के ज़िम्मे। बूढ़ी छककर पीएगी, ख़ूब डोलेगी। सब तैयारी भी करनी थी। पहले तो प्रसाद का स्वागत सत्कार और फिर ब्याह की रस्म। अब तो जश्न ही जश्न होगा एक सप्ताह तक। वे सब ख़ुशी के मारे बेहाल गाना गाती हुईं रंगम्मा को खींचती घर ले जाने लगीं . . .।
और इधर कमला . . . बीस वर्षीय ग्रैजुएट कमला पुरमी और कुल्लू को सीने से चिपटाए चुपचाप अम्मा के पीछे-पीछे चल पड़ी। इस बवंडर से निर्लिप्त। उसके मन में तो कुछ और ही चल रहा था . . कल सुबह उसकी नौकरी का पहला दिन था। उसकी स्कूल में नौकरी लग गई थी और इस बात को उसने अभी रंगम्मा को बताया नहीं था। वह तो मौक़े की तलाश में थी। वह जानती थी माँ को ख़ुश रखना ही होगा तभी वह यहाँ आई थी . . .। इस कीचड़ में कमल खिलाने . . .
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Dr.Sushila Navik 2022/09/12 01:08 PM
बहुत सुंदर, सटीक व सजीव चित्रण किया है पादरी बस्ती के स्थानीय लोगो का, वास्तविक जीवन का रेखाचित्रण। बहुत बढ़िया मैम उत्कृष्ट लेख ,बहुत बहुत बधाई मैम