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शरणागति 

 

‘रामाया रामभद्राय रामचंद्राया वेधसे, 
रघुनाथाय नाथाय सीतायां पतये नमः’॥

जिस प्रकार श्रम से क्लांत श्रांत व्यक्ति शीतल जल से स्नान कर ले तो उसे परम शान्ति मिल जाती है उसी प्रकार राम नाम का गुणगान कलि के त्रिविध ताप में जलते हुए प्राणि के शोक संताप की अग्नि का शमन करने में सर्वथा समर्थ है। कलियुग में मोक्ष प्राप्ति का एक ही मंत्र है: ‘राम नाम का जप . . .। 

‘कलियुग केवल नाम अधारा, 
सुमिरि सुमिरि उतरहिं पारा’॥

प्रभु की शरणागति मोक्षदायिनी है। प्रभु लीलावतारी है। आर्त्त जन पोषक है। प्राणि मात्र का उद्धार करने के लिए आप इस धरा पर अवतरित होते हैं। प्रभु का स्मरण एक बार करने से ही तत्क्षण कोटि जन्मों की पाप राशि का समूल नाश हो जाता है। प्रभु आश्रित वत्सल है। उनका तो यह वचन ही नहीं स्वभाव भी है कि:

‘अनन्याश्चिंतयंतो मां ये जनाः पर्युपासते, 
 तेषा नित्याभियक्तानां योगक्षेमं वहाम्यह्म’॥ 

भगवन शील शक्ति सौंदर्य की खान हैं। वचन परिपालक हैं और मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम तो ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ का अक्षरशः अपने जीवन में पालन करते हैं। तो इस कलियुग में समय व्यर्थ गँवाए बिना प्रभु श्री राम के चरणार्विंद की शरण में चले जाना ही प्राणि मात्र के लिए मोक्ष प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। 

उपजइ राम चरण बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहि प्रयासा॥

आइए ऐसे परम कल्याणकारी सच्चिदानंद पर ब्रह्म स्वरूप के चरणों का मानसिक ध्यान कर एक छोटी सी रोचक कथा का रसपान करें। बचपन में किसी संत के श्री मुख से श्रव्य यह कथा इसी सत्य पर आधारित है कि करुणा निधान प्रभु की शरणागति भव क्लेष हारिणी है। और यही परम सत्य है!

♦   ♦   ♦  

सायं संध्या समय। लंका पर चढ़ाई की तैयारी चल रही है। समुद्र पर वानर सेना पुल बाँध रही है। नल और नील को वानर बड़े बड़े पत्थर पकड़ा रहे हैं और वे दोनों उन पर श्री राम नाम को अंकित कर पानी में उछाल देते है। पत्थर तैरने लगते हैं। पुल बँध रहा है। सबके चेहरों पर उत्साह और ऊर्जा की चमक। प्रभु कार्य संपन्न होने की आशा और विश्वास। प्रभु यह दृश्य देखकर पुलकित हो रहे हैं। लेकिन मुख पर चिंता के भाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हैं। वे भी इस उपक्रम में सहायता करना चाहते हैं लेकिन भय है कि अगर उनका फेंका पत्थर पानी में डूब गया तो क्या परिणाम होगा? क्या वह पत्थर पानी में तैरेगा? उसी तरह जैसे नल और नील के पत्थर तैर रहे हैं? प्रभु के मन में शंका पैदा हो गई जिसका वे समाधान करना चाहते थे। इस शंका का परीक्षण करने हेतु वे कुछ दूर चलते हुए पत्थरों की ओट में चले गए और एक बड़ा सा पत्थर उठाया और गहरे पानी की ओर उछाल दिया। दुखद आश्चर्य! पत्थर पानी में डूब गया। 

प्रभु विचलित हो गए। यह क्या? पहली ही बार में असफलता? कुछ लज्जित से हुए। इतने में कोढ़ में खाज! कोई हँसा। प्रभु को हँसने की आवाज़ सुनाई दी। अब तो वे और भी डर गए कि किसने उन्हें ऐसा करते हुए देख लिया? उन्होंने चारों ओर दृष्टि घुमाई। कहीं भी कोई दिखाई नहीं दिया। प्रभु ने सोचा उनका भ्रम है। यहाँ तो कोई नहीं है। हिम्मत करके उन्होंने एक बार फिर से प्रयास करने का विचार किया। एक छोटा सा पत्थर उठाया और पानी की ओर उछाला। सोचा पहला पत्थर भारी होगा इसी कारण डूब गया। लेकिन फिर भी वही हुआ जिसकी आशा नहींं थी। यह पत्थर भी और गहरे में जाकर डूब गया। अब तो प्रभु निराश हो गए। इतने में फिर वही ठठाकर हँसने की आवाज़ सुनाई दी। अबकी बार प्रभु ने स्पष्ट रूप से हँसी सुनी। प्रभु उद्विग्न हो उठे। कौन है जो छिपकर उन्हें देख रहा है? इतना दुस्साहस? कौन दुराचारी है वह? 

अचानक पत्थरों की ओट से वानर श्रेष्ठ हनुमंत अपनी हँसी रोकते हुए बाहर निकले और प्रभु के चरणों में झुक कर साष्टांग प्रणाम अर्पित किया। प्रभु को अचरज हुआ। वे विस्मित से बोले, “तो क्या हनुमन तुमने सब देख लिया?” 

हनुमन हाथ जोड़कर विनीत स्वर में बोले, “हाँ कृतसेतु! मैंने सब इन आँखों से देख लिया। आज तक जो विश्वास था, अब और भी दृढ़ हो गया है।”

हनुमान ने कृतसेतु कहकर प्रभु की दुखती रग पर उँगली रख दी। प्रभु यह परिहास सह न पाए। किंचित रोष से आज्ञा देते हुए बोले, “हनुमंत, मुझे विश्वास है कि तुम इस घटना का उल्लेख कहीं पर किसी से भी नहीं करोगे। इसे यहीं विस्मृत कर दोगे। कोई पूछेगा तो भी नहीं।” 

हनुमान के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। आँखें मटकाते हुए बोले, “हे लीलावतारी सत्यनिष्ठ मर्यादा पुरुषोत्तम! आप मुझे झूठ बोलने की आज्ञा दे रहे है?” 

प्रभु हड़बड़ा गए, “नहीं . . . नहीं हनुमन। हम तुमसे केवल सत्य छिपाने का अनुरोध कर रहे है।” 

हनुमान सोच में पड़ गए। उनकी भृकुटियाँ मुड़ गईं। कुछ परिकलन किया और संभवतया समीकरण ठीक न लगा। 

गंभीर स्वर में सिर हिलाते बोले, “प्रभु दोनों एक ही तो बात है?” 

प्रभु ने सोचा अब तो इस वानर श्रेष्ठ की ख़ुशामद करनी होगी। चंचल कपि स्वभाव आसानी से नहीं मानेगा। तो मनुहार करते हुए अत्यंत प्रेम से श्रीराम बोले, “देखो हनुमन! तुम तो हमारे सबसे प्रिय भक्त हो। और तनिक विचार करो, वानर सेना कितनी श्रद्धा से, मेहनत से यह पुल बना रही है। अगर उन्हें इस घटना की भनक लगी तो सेना में हाहाकार मच जाएगा। उनका मनोबल चूर्ण हो जाएगा। और सोचो हमारे मान का क्या होगा? तुम तो भली-भाँति जानते हो कि यह पुल बनना हम सबके लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। और हमारी असमर्थता और अशक्तता की कितनी हँसाई होगी? नहीं तुम हमारा अपमान कैसे सह सकते हो?” 

हनुमान कुछ देर सोचते रहे। उनकी दृष्टि अपलक अपने प्रभु की अनुपम छवि निहार रही थी। वे कुछ क्षण मौन रहे। तत्पश्चात हाथ जोड़कर कहा, ”हे सर्व शक्तिमान सर्वज्ञ प्रभु! आपने यह कैसे सोचा कि मैं यह बात केवल इस वानर सेना को बताऊँगा? मैं तो पूरी सृष्टि में डंका बजाकर इस घटना की घोषणा करने वाला हूँ। इस बात को छिपाने का अपराध मैं कैसे कर सकता हूँ? इस तथ्य से पूरे जगत को अवगत कराना ही अब मेरा कर्तव्य है और धर्म भी।” 

प्रभु की मुख मुद्रा चिंतित हो गई। सूझ नहीं रहा था कि इस कपिराज को कैसे मनाया जाए? उन्होंने अंतिम अस्त्र फेंका। बोले, “कपिवर तुम तो मेरे अनन्य भक्त हो न?” 

हनुमान ने अत्यंत श्रद्धा भक्ति भाव से कहा, “हे भक्त वत्सल मायातीत प्रभो! कोई शंका हो तो मेरे इस शरीर के टुकड़े कर लीजिए। हर अणु में आपका नाम ही गुंजारित होता मिलेगा प्रभु।” 

श्रीराम कुछ आश्वस्त हुए। कहा, “तो बताओ हनुमान यह कैसी भक्ति है कि तुम हमारा रहस्य सब पर खोल देना चाहते हो? यह कैसा समर्पण है? कभी कहते हो भक्त हो और हमारी जग हँसाई करवाना चाहते हो? हमें भी ज्ञान दो यह कैसी भक्ति है?” 

हनुमन अब घुटनों के बल बैठ गए। आँखों से अश्रु धारा बहने लगी। अवरुद्ध कंठ से बोले, “हे आश्रित रक्षक दयासिंधो! कलियुग में जो भी आपकी शरण में आता है वह इस भवसागर के त्रिविध ताप से मुक्त हो जाता है। जड़-चेतन सभी पर आपकी अपार करुणा है। प्राणिमात्र का उद्धार करने हेतु इस नश्वर जगत में आपने अवतार लिया है। ऐसे परम हितकारी गुणों की खान आप ही अगर अपने इन श्री कर कमलों से किसी को त्याग देंगे, पानी में डुबा देंगे तो उसकी गति डूब जाने से इतर और क्या हो सकती है? हे प्रणतपाल भगवंत, आपसे सविनय अनुरोध है कि कृपया प्राणियों के पापों को क्षमा करें और उन्हें कभी न त्यागें। आप करुणा निधान हैं प्रभो, चरण रज से शिला बनी माता अहल्या का उद्धार करने वाले प्रभो आप अपने भक्तों को कैसे बिसरा सकते हैं? आप सर्वज्ञ हैं। आपका मर्म आप ही जानें। मैं मंद मति कपि आपको क्या ज्ञान दे सकता हूँ? लेकिन हाँ आपकी शरणागति की महिमा अनंत काल तक प्राणिमात्र तक पहुँचाने का शुभ संकल्प आज आपके समक्ष ले रहा हूँ। हे प्रभो मेरे संकल्प को सिद्ध कीजिए। दया कीजिए प्रभु। शरण में लीजिए।” हनुमन के नेत्रों से निकली अश्रुधारा प्रभु के श्री कमलों का अभिषेक कर रही थी। 

श्री राम अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने हनुमान को उठा कर गले से लगा लिया और सिर पर हाथ रख कर कहा, “कपि श्रेष्ठ, आज तुम फिर एक बार मुझसे जीत गए। मैं तुम्हें चिरंजीवी होने का वरदान देता हूँ। और तुम्हें वचन देता हूँ कि जब तक सृष्टि रहेगी तुम अमर बनकर रामनाम की मणि को अपने हृदय में धारण करोगे। तथास्तु!” 

श्री राम राम रामेति, रमे रामे मनोरमे। 
सहस्र नाम ततुल्यं, राम नाम वरानने॥

 
 शुभमस्तु!! 

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टिप्पणियाँ

डॉ वासुदेवन शेष चैन्नई 2022/03/30 11:28 PM

डा पद्मावती जी प्रभु भक्ति मे अपार शक्ति है।राम का नाम राम से भी बडा फलदायी है।और हर युग के साथ कलयुग मे भी राम का नाम तारण हार है।आपका यह अध्यात्मिक लेख को पढकर ऐसा प्रतीत मानो राम जी राम के परम मेरे समक्ष खडे हो । लेख को पढकर लगा की प्रभु चरण मे शरणागति से सारे पाप कष्ट मिट जाते।वे शरणागत वत्सल है। नये लेख के लिए बधाई। जो राम का नही किसी काम का नही।

Annapurna Singaraju 2022/03/30 01:17 PM

Aati sunder baar baar pad rahi huo bahut bahut sunderata se varnan Kiya hai bahut bahut badhai ho Padma vati ji keep it up

NIRU KUMARI SINGH 2022/03/30 09:13 AM

बहुत हीसुन्दर ढंग से लेखिका ने विस्तार किया है जिस घटना से सब वंचित थें उसे बहुत हीं सरक ढंग से बताया है हार्दिक बधाई आपको

डाॅ. जमुना कृष्णराज 2022/03/30 08:28 AM

राम नाम ही सबसे ऊंचा, राम नाम ही सबसे सच्चा! राम नाम के महत्व को दर्शाते रामायण के इस प्रसंग की बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। बधाई हो पद्मावती जी!

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