अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उपहार

 

अस्पताल के मेडिकल स्टोर के पास अपने ऑफ़िस के अटेण्डर प्रसाद को बाइक पर देख कर शर्मा हाथ हिलाते चिल्लाया, “ओये प्रसाद, इधर।” 

जानी-पहचानी पुकार कान में पड़ते ही प्रसाद ने मुड़ कर देखा। ग्लूकोस की बोतलें पकड़े चमचमाती धूप में खड़े शर्मा को देखते ही वह पहचान गया और झट बाइक से उतर गया। जल्दी से दुपहिया बग़ल में खड़ी की और उनकी ओर लपका। 

“यहाँ कैसे भई? गाड़ी तो चकाचक है . . . नई ली है क्या . . .? लगता है बड़ी महँगी पड़ी है,” उसके पास आते ही आव देखा न ताव, शर्मा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी और उसके हाथों ने आदतन अपना बोझ उसे पकड़ा दिया। 

“अब क्या बताएँ साब?” सावधानी से बोतलें पकड़ता वह हकलाया, “ब . . . बड़ी परेशानी में हूँ बेटे की तबीयत से। बहुत ख़राब दिन चल रहे हैं।” 

“क्यों भई? बताओ तो सही हुआ क्या?” चार साल काम किया था उसने शर्मा के विभाग में। शर्मा रग-रग पहचानता था उसकी। लेता तो चार अंकों की आय था, पर पहुँच थी उसकी चाँद तक। हर फ़ाइल काँख में दबा कर रखता था। मजाल है कि मुट्ठी गर्म किए बिना वह ज़रा सी भी हिले। 

“साब . . . पेट में जानलेवा दर्द होता है उसको। दिन-रात तड़पता है। दर्द ऐसा कि डॉक्टर की पकड़ में भी नहीं आ रहा . . . और इन लोगों को तो बस ऑपरेशन से कम कुछ सूझता ही नहीं। पंद्रह दिन हो गए भरती करके और पैसा तो मत पूछो साब, पानी की माफ़िक जा रहा है और उस पर आदेश—दवाई भी इसी अस्पताल की दुकान से ख़रीदो। अजीब आफ़त है। यहीं आ रहा था दवाई लेने तो आपकी आवाज़ सुनी। आप कैसे हो साब? यहाँ कैसे?” लंबी साँस छोड़ते उसने गले में अटका थूक निगला। अंदर का दर्द आँखों में उतर आया। 
 
“ओह। सब्र करो। ईश्वर चाहे तो सब ठीक हो जाए। बहुत दिनों बाद देखा तुम्हें। वो अपना संपत है न? वही अपने महल्ले वाला। उसके बेटे ने रात नींद की गोलियाँ खा लीं और क्या? उसी को भरती करवाया है यहाँ। अब जान पहचान का परिवार तो आना पड़ा बस और कुछ नहीं।” 

“अर्रे . . . राम! राम . . . राम! ऐसा क्यों साब?” 

“वह तो परीक्षा की तैयारी कर रहा था, लिखा भी . . . पर अब जब परीक्षा रद्द हो गई तो बेटे का क्या क़ुसूर? उसे डॉक्टर बनाने का सपना था बाप का और बेटे का पढ़ाई से छत्तीस का आँकड़ा। वैसे ऊपर की कमाई ख़ूब दबा रखी है संपत ने। तो वाजिब है ख़र्च किया होगा पेपर ख़रीदने में दस पंद्रह लाख और क्या?” आदत से मजबूर शर्मा ने आज भी संपत की निंदा करने का मौक़ा न छोड़ा।

“पैसा डूब गया, और बेटा दोस्तों संग ख़ुशियाँ मना रहा था। पीट दिया सबके सामने जवान लौंडे को तो बेटे ने भी दिखा दी हेकड़ी। खा ली गोलियाँ।” 

शर्मा हाथ सिर हिला-हिलाकर स्पष्टीकरण देता बोल रहा था, “आजकल की औलाद . . . जान से कम क्या कुछ सूझे है उन्हें? अब पेट साफ़ करवा रहा है रात से। बच्चे की हालत नाज़ुक कह रहा है डॉक्टर। और भई अब अन्याय का पैसा, किसी की आह से कमाया पैसा आदमी या तो अस्पताल में ख़र्चेगा या कोर्ट-कचहरी में। क्यों सही कहा न? बेटा . . . उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती पर जब पड़ती है न बच्चू . . . तो अक़्ल ठिकाने लग जाती है और क्या? और तुम कैसे हो? एक बात तो है भई . . . बहुत याद आती है तुम्हारी प्रसाद। जब से तुम गए न दूसरे विभाग में, हमारा विभाग तो बस अनाथ हो गया तुम्हारे बिना। सच कहता हूँ . . . बड़ी सेवा करते थे। सेवा के साथ-साथ मेवा खिलाने का तुम्हारा गुर तो वाह। वाह . . . वाह . . . क़ाबिले तारीफ़। फिर बाद में तुम्हारे जैसा कोई न मिला हमें तो भई। कितनी चतुराई से सँभालते सब को . . . हाँ। वैसे तुम सुनाओ . . . सुना है बीच में कई विभाग बदल दिए हो? क्यों? आजकल कौन विभाग में हो? बड़े ठाठ लग रहे हैं। अच्छा मेवा मिल रहा है शायद?” शर्मा की नज़र अब भी वहीं अटकी हुई थी, उसकी गाड़ी पर। 

प्रसाद को तो जैसे साँप सूँघ गया। लंबी-लंबी साँस लेता सुरसा की तरह मुँह फाड़े एकटक देख रहा था। अचानक चेतना लौटी तो लगा जैसे पहाड़ से नीचे आ गिरा हो। उसने पलकें झपकीं और चुपचाप बोतलें उसके हाथों में थमा कर पाँव घसीटते मेडिकल स्टोर की ओर हो लिया। 

“अरे भई क्या हुआ? उसे इस तरह परेशान जाता देख शर्मा ने फिर आवाज़ दी, “बिना बोले भई यूँ कैसे चले? . . . किस विभाग में हो आजकल? वो बताते तो जाओ?” 

‘माफ़ साब,” बिना मुड़े वहीं से एक बार फिर वह हकलाया, “प्र . . . परीक्षा विभाग।” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

बाल साहित्य कहानी

पुस्तक समीक्षा

साहित्यिक आलेख

चिन्तन

कहानी

सांस्कृतिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सामाजिक आलेख

यात्रा-संस्मरण

किशोर साहित्य कहानी

ऐतिहासिक

रचना समीक्षा

शोध निबन्ध

सिनेमा और साहित्य

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं