फ़िल वक़्त
काव्य साहित्य | कविता शैलेन्द्र चौहान15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
कोई छह दशकों से अनेक अवसरों पर सुनता रहा हूँ
वक़्त ख़राब है
बदल गया है बहुत
पहले जैसा नहीं है
सुनते सुनते मुझे भी कुछ ऐसा ही लगने लगता है
फिर हँसता हूँ मैं
क्या हमेशा ख़राब होता है वक़्त
उनके लिए जो कहते हैं
या उनके लिए जो हाशिए से बाहर हैं
जबकि मैं जानता हूँ इसमें अचंभे की की कोई बात नहीं
कुछ इधर कुछ उधर देखना सेहत के लिए अच्छा है
होता यूँ है
किसी वक़्त आप दुख ओढ़ लेते हैं
और वे बिना ओढ़े बिछाए
आपके भीतर उतर जाते हैं
कभी नीम
कभी हकीम बनकर
उन्हें भूलकर
कमाने खाने और बहस में रम जाना बुरा नहीं
चमक दमक और शोहरत में फिसड्डी पाकर
वक़्त से मोहलत माँगना अच्छा लगता है।
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