सृजन संवाद
आलेख | काम की बात शैलेन्द्र चौहान1 Dec 2022 (अंक: 218, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
विधिवत और व्यवस्थित रूप से मैंने हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन नहीं किया। स्कूल में हिंदी विषय को लेकर मुझे याद है कि छठी कक्षा में मैंने प्रेमचंद की कहानियाँ ‘पंच परमेश्वर’ और ‘ठाकुर का कुआं’ पढ़ी थीं। साथ ही नचिकेता और यम संवाद भी पुस्तक में बतौर कहानी पढ़ा जो कठोपनिषद से लिया गया था। तब मैं दस वर्ष का था। अगली कक्षा में आने पर रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं, माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं’ मुझे याद हो गई। कवियों और लेखकों की संक्षिप्त जीवनियों की एक किताब भी मैंने पढ़ी। कुछ बाल पत्रिकाएँ जैसे बालभारती, चंदामामा, बालक और नंदन भी पढ़ने को मिलीं। साथ ही ‘विज्ञानलोक’ बाल विज्ञान कथा पत्रिका भी पढ़ी। इसके अगले वर्ष साहित्य की गंभीर सामग्री पढ़ने का अवसर मिला। सारिका की कहानियाँ, साप्ताहिक हिंदुस्तान में साहित्य, एक-दो उपन्यास जिन्होंने मुझे न केवल एकांगी और अंतर्मुखी बनाया बल्कि कुछ कुंठाएँ भी दीं। फिर गर्मी छुट्टियों में प्रेमचंद का उपन्यास निर्मला, जयशंकर प्रसाद का नाटक स्कंदगुप्त, सुमित्रानंदन पंत का एक कविता संग्रह गुंजन, बनफूल की बांग्ला कहानियों का हिंदी अनुवाद और मध्यप्रदेश संदेश पत्रिका से अनेक कहानियाँ पढ़ डालीं। साहित्य पढ़ने में मुझे रस आने लगा था। जब मैं दसवीं कक्षा में आया तो पाठ्यक्रम में हिंदी विषय की कविता और कहानी पुस्तकों में मैथिलीशरण गुप्त की पंचवटी, सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’, विशंभरनाथ शर्मा कौशिक की ‘ताई’ और अन्य कुछ कहानियाँ मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। इस वर्ष काफ़ी जासूसी उपन्यास भी पढ़े। पढ़ने का कारण पिता के पढ़ने का भारी शौक। वे पढ़ने के लिए पत्रिकाएँ और पुस्तकें लाते थे।
दसवीं के बाद पाठ्यक्रम से हिंदी विषय समाप्त हो गया। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था अतः भाषा के रूप में सामान्य अँग्रेज़ी पढ़ने लगा। वैसे भी यदि साहित्य छोड़ दिया जाए तो हिंदी मुझे बहुत अच्छी नहीं लगती थी। निबंध पढ़ने में मेरी रुचि कम थी और व्याकरण तो बिलकुल ही समझ के परे था। उसमें मुश्किल से पास होने लायक़ ही नंबर आते थे। आगे साहित्य पढ़ना धीरे-धीरे कम होने लगा पर रुचि बरक़रार रही। फिजिक्स, केमिस्ट्री और गणित पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी और सारिका, पत्रिकाएँ आती थीं, समय निकाल कर उन्हें पढ़ लेता था। फिर बी.एससी. में एडमीशन लिया। पढ़ाई में कुछ और समय दिया लेकिन छुट्टियों में कविताएँ भी लिखने लगा। पर किसी को बताया नहीं। अब बी.एससी. अधूरी छोड़ इंजीनियरिंग में एडमीशन ले लिया। कॉलेज का समय बहुत बढ़ गया। सुबह आठ बजे से शाम पाँच बजे तक। फिर होमवर्क भी मिलता था। अब साहित्य के लिए समय बहुत कम रह गया। बस लंबी छुट्टियों में ही अवसर मिलता। एकाध वर्ष बाद एक मित्र की सहायता से जो बहुत अभिन्न था, विदिशा नगर की एक लायब्रेरी, पुष्यमित्र वाचनालय का सदस्य बन गया। बीच-बीच में वहाँ से पुस्तकें लाकर पढ़ता। वहाँ हिंदी लेखकों के अलावा विदेशी लेखकों की भी बहुत पुस्तकें थीं। चेखव, तॉल्सतॉय, गोर्की, पुश्किन, मायकोवस्की, दास्तोवस्की, जेन आस्टिन, कामू, काफ्का, हेमिंग्वे, ऑस्कर वाइल्ड, हरमन हेस्स आदि। अधिकांश कथा, उपन्यास पुस्तकें थीं।
आगे तीन वर्ष तक ढूँढ़-ढूँढ़ कर बहुत पुस्तकें पढ़ डालीं। लायब्रेरियन एक महाराष्ट्रियन सज्जन थे और बहुत अच्छे व्यक्ति थे। मेरी रुचि से बहुत प्रभावित थे अतः हर सम्भव छूट, सुविधा मुझे मिल जाती थी। साहित्य पढ़ने के साथ-साथ विचारों से भी मैं समृद्ध हो रहा था। राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, शिव वर्मा, यशपाल, अमरकांत, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विजेन्द्र आदि को पढ़ना अच्छा लगता था। कविताएँ लिखता था, कहानियाँ भी लेकिन जब तक इंजीनियरिंग पास नहीं कर ली उन्हें सार्वजनिक नहीं किया। दो-एक निकट मित्रों तक ही उन्हें सीमित रखा। मित्र कहते थे पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ भेजो लेकिन मुझे संकोच होता था। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ कैसे भेजते हैं, पता क्या होता है, कहाँ से ज्ञात होता है। कुछ भी मालूम नहीं था। एक दिन एक मित्र ने मेरी यह समस्या सुलझा दी। उसने बताया कि प्रत्येक पत्र-पत्रिका में संपादकीय संपर्क का पता लिखा होता है। रचनाएँ साफ़-साफ़ लिखो, लिफ़ाफ़े में बंद करो, पता लिखो, पोस्ट ऑफिस जाओ, लिफ़ाफ़े का वज़न करवाओ, टिकिट ख़रीदो, चिपकाओ और डिब्बे में डाल दो। मुझे यह बड़ा कठिन काम लगा। तब एक अन्य मित्र ने जो पत्रकार-साहित्यिकार थे एक अख़बार का पता कैंची से काटकर लिफ़ाफ़े पर चिपका दिया। मेरी दो कविताएँ मोड़कर लिफ़ाफ़े में डाल दीं साथ में एक छोटा कवरिंग लैटर भी रख दिया। फिर लिफ़ाफ़ा बंद कर मुझे थमा दिया। कहा पोस्ट ऑफिस जाओ, वज़न कराकर टिकिट लगाकर डिब्बे में डाल आओ। मुझे अभी भी असहज लग रहा था। मैं सीधा घर गया और लिफ़ाफ़ा टेबल पर रख दिया। संयोग से दूसरे दिन पहले वाला मित्र घर आया। उसने लिफ़ाफ़ा देखा तो बहुत ख़ुश हुआ। बोला इसे यहाँ किसलिए रखे हो, मैंने कहा कि मुझे असहज लग रहा है। उसने लिफ़ाफ़ा उठाया बोला चलो मेरे साथ। पोस्ट ऑफिस ज़्यादा दूर नहीं था। उसी ने वज़न कराया, टिकिट ख़रीद कर चिपकाए और लिफ़ाफ़ा लाल डिब्बे के हवाले कर दिया। बोला इसमें घबराने की क्या बात थी? कोई ग़लत काम कर रहे थे? हम लोग घर लौट आए। इन मित्र महोदय को बाद में नोबल शान्ति पुरस्कार प्राप्त हुआ।
हमारी परीक्षाएँ समाप्त हो गई थीं। अब आगे नौकरी की चिंता थी। कितने दिन बेरोज़गार रहना होगा। और रोज़गार पाने के लिए क्या करना होगा? ख़ैर लिफ़ाफ़ा डिब्बे में डालकर मैं भूल गया। मुझे न कोई उत्सुकता थी न उम्मीद। सुबह उठता, दैनिक कर्म से निवृत होता, नहाता-धोता, कुछ खाता और लायब्रेरी चला जाता। वहाँ बैठकर अख़बारों में नौकरी के लिए रिक्तियाँ देखता। उन्हें नोट करता और फिर कोई किताब इश्यू कराता। शाम को दोस्तों के साथ घूमता। कोई अच्छी फ़िल्म लगी होती तो तो देखी जाती। ज़्यादातर समय चप्पल फटकारते हुए बीतता। दस बारह दिन बीते होंगे। एक रविवार वह मित्र सूचना लेकर आए कि अख़बार में कविताएँ छप गई हैं। उन्होंने कहीं अख़बार देख लिया था। मुझे आश्चर्य हुआ। फिर वह मुझे स्टेशन ले गए। बुकस्टाल पर हमने वह अख़बार देखा। छपी हुई अपनी कविताएँ देखीं। फिर वह अख़बार ख़रीद लिया गया। इस तरह रचनाएँ भेजने और छपने का सिलसिला शुरू हुआ।
छह-सात महीने के बाद स्थानीय इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर बन गया। जीवन में कुछ स्थिरता आई। इसके बाद मैंने 1979 में ‘धरती’ नाम से एक लघुपत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। यह प्रकाशन अनियमित है। बीच-बीच में अवरुद्ध हो जाता है पर आज तक चल रहा है। जीवन आगे बढ़ा, कविताएँ लिखना चलता रहा। पत्र-पत्रिकाओं में छपतीं। फिर संयोग ऐसा हुआ कि इलाहबाद में परिमल प्रकाशन के मालिक शिवकुमार सहाय जी से परिचय हुआ और उन्हाेंने मेरी पहली कविता पुस्तक ‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’ प्रकाशित की। अनंतर गद्य लेखन भी प्रारंभ हुआ। इलाहबाद में ही विद्याधर शुक्ल जी ने लिखवाया। बाद में विजेन्द्र जी ने प्रोत्साहित किया। 1996 में मेरा एक कहानी संग्रह आया—नहीं यह कोई कहानी नहीं। तब मैं गाजियाबाद के पास दादरी में था। फिर 2002 और 2004 में दो और कविता संग्रह प्रकाशित हुए। कविता, कहानी, आलोचना निःस्पृह भाव से लिखता रहा। यथासम्भव ‘धरती’ भी प्रकाशित होती रही। 2010 में ‘पाँव ज़मीन पर’ नामक एक संस्मरणात्मक उपन्यास आया। 2014 में साहित्यिक सक्रियता में शिथिलता आई। अख़बारी लेखन चल रहा था। धीरे-धीरे वह भी कम होता गया। अख़बारों से साहित्य ग़ायब हो गया। साहित्यिक पत्रिकाएँ कम होने लगीं। कुछ अजीब सा माहौल बनता गया। रही-सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी। अख़बार, पत्र-पत्रिकाएँ सब बंद हो गए। ऑनलाईन लेखन और सोशल मीडिया की धूम रही। कोरोना कम हुआ। धीरे-धीरे जीवन सामान्य होने लगा। अब काफ़ी कुछ बदल गया है। गतिविधियाँ बढ़ी हैं। सक्रियता भी कुछ बढ़ी है लेकिन जोश, उत्साह और मनःस्थिति बदली है। लोगों की सोच बदली है। समझ भी बदली है। प्रतिरोध कम हुआ है। स्वकेन्द्रिकता बढ़ी है। और हम हैं कि वहीं खड़े हैं जहाँ तीन दशक पहले थे।
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