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अपने पैरों पर खड़ी होना मतलब गौरव सिद्ध करना

 

अभी जल्दी ही ऐक्ट्रेस सोनाली कुलकर्णी के नाम पर एक बड़ा विवाद चला। उन्होंने अपने एक वक्तव्य में एक सेंटेंस यह कह दिया कि ‘हम में से तमाम महिलाएँ स्वभाव से आलसी होती हैं। अपना पार्टनर अच्छी कमाई करने लगता है तो इस तरह की महिलाएँ बैकसीट ले कर आराम से जीवन गुज़ारने के बारे में सोचती हैं अथवा इस तरह का लाइफ़ पार्टनर चाहती हैं, जो आर्थिक रूप से समृद्ध हो।’ उनके इस बयान को ले कर काफ़ी बवाल हुआ। तमाम लोगों ने उनके इस बयान को ले कर विवाद किया, विरोध किया। अंततः सोनाली ने सार्वजनिक रूप से लिखित रूप से माफ़ी माँगी। ख़ैर, यहाँ मुद्दा महिलाओं के आलसी होने का नहीं था, यहाँ मुद्दा अपने पैरों पर खड़ी होने, पति अच्छा ‘अर्न’ (कमाई) करता हो तो भी ख़ुद को आर्थिक रूप से सक्षम करने का था। हम दंभी हैं, इसलिए हम अमुक सत्य को स्वीकार नहीं कर सकतीं, बाक़ी तमाम लोगों की यही मेंटलिटी (मानसिकता) है कि ज़िन्दगी मज़े से चल रही है, आर्थिक तंगी नहीं है तो मौज करो, बिना मतलब सिर खपाने की क्या ज़रूरत है। 

देखो और करो की वृत्ति से सोचो

यहाँ किसी का मंतव्य नहीं है, पर आप देखो और करो की वृत्ति अपना कर सोचेंगी तो देखेंगी तो आप को पता चलेगा कि अपने पैरों पर खड़ी होना कितना ज़रूरी है। आज तमाम ऊँचे ओहदों पर विराजमान महिलाओं से जब अन्य महिलाओं के मार्गदर्शन के लिए कहा जाता है तो ज़्यादातर महिलाएँ यही कहती हैं कि हर महिला को अपने पैरों पर खड़ी होना चाहिए। हर महिला को आर्थिक रूप से सक्षमता विकट परिस्थिति का सामना कर के भी पाना चाहिए। अगर आप आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं और ऐसी स्थिति में विकट परिस्थिति आ पड़ी तो अंदर से टूटने में समय नहीं लगेगा। इसके बदले आर्थिक सक्षमता विकट परिस्थिति के सामने अडिग हो कर लड़ने की हिम्मत देगा। 

समय और विचार दोनों बदले हैं

अब तो महिलाओं को आगे बढ़ने में पहले की तरह मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता। अब हर व्यक्ति समझता है और बेटी, बहन और पत्नी को आगे बढ़ने देने के लिए खुला मैदान प्रदान कराता है। आज की तमाम महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए तमाम सुविधाएँ मिल रही हैं। अब पेरंट्स (माता-पिता) बेटा हो या बेटी, उसे आगे बढ़ाने के लिए तनतोड़ मेहनत करते हैं। ऐसे में तमाम लड़कियाँ हर तरह की सुविधा मिलने के बावजूद अनेक तरह के नख़रे करती दिखाई देती हैं। जबकि दूसरी ओर कुछ ऐसी जगहें हैं, जहाँ की सामान्य घरों की ऐसी भी महिलाएँ आज भी हैं, जो अनेक कष्ट सह कर भी अपने आगे बढ़ने का रास्ता खोज ही लेती हैं। यहाँ ‘मन हो तो मंड़वा जाए’ यह कहावत ख़ूब अच्छी तरह लागू होती है। 

गाँव की महिलाओं की सक्षमता

इसके लिए बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। आप छोटे-छोटे गाँवों में एक नज़र डालेंगी तो आप को दिखाई देगा कि एक काँख में बच्चे को दबाए जा रही महिलाएँ सिर पर भारी बोझ उठाए रहती हैं। अब गाँवों में भी तमाम सुविधाएँ हो गई हैं, बाक़ी गाँवों में रहने वाली महिलाएँ घर सँभालने के साथ अपने पति या पिता के साथ खेतों में तनतोड़ मेहनत करती आज भी मिल जाएँगी। खेतों में जा कर खेती कर के दो पैसा कमाती हैं। ये ऐसी महिलाएँ हैं, जो एकदम कम सुविधाओं में भी घर चलाने से ले कर जीवन चलाने का काम सरलता से करना जानती हैं। ये महिलाएँ बच्चे कि डिलिवरी भी बिना किसी सुविधा के कर सकती हैं। ऐसे समय में इन क्षेत्रों में अपार दुख सह कर प्रसूति घर कर में ही करती हैं। अभी सर्वे किया जाए तो पता चलेगा कि शहर की महिलाओं की अपेक्षा ग्रामीण महिलाओं में नॉर्मल डिलिवरी अधिक होती है। इसका बड़ा कारण उनका कसा और हमेशा मेहनत करने वाला शरीर है। जिस धूप में निकलने में हम दस बार सोचते हैं, उस धूप में आज भी गाँव की महिलाएँ खेतों में जा कर काम करती हैं, मेहनत करती हैं। जिस घर में माँ-बाप खेती करते हैं या रिक्शा चलाते हैं, उस घर की लड़कियाँ तनतोड़ मेहनत कर के आगे आती हैं, अपना सपना पूरा करती हैं, जब पूरी सुख-सुविधा के बीच रहने वाली तमाम लड़कियाँ सिवाय नख़रे के और कुछ नहीं करतीं। खेत जा कर खेती करने वाली महिलाएँ अपनी बचत से मुश्किल समय में भी पति के साथ खड़ी हो कर उनकी मदद करती हैं। यह है अपने पैरों पर खड़ी होने का सब से बड़ा फ़ायदा। 

दिखावा नहीं, सच्चे अर्थ में सक्षम बनें

बड़ी-बड़ी बातें नहीं, समाज या सोसायटी में ख़ुद कितने पैसे वाली हैं, यह दिखावा नहीं, अपने अस्तित्व की सार्थकता के लिए आप को अपने पैरों पर खड़ी होना ज़रूरी है। आत्मनिर्भर बनेंगी तो किसी के ऊपर आधारित होने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इसके अलावा आप की एक अलग पहचान बनेगी, आप के परिवार को ज़रूरत पड़ेगी तो आप परिवार की मदद कर सकेंगी और निडरता से जी सकेंगी। याद रखिए, काम करना यह आर्थिक असक्षमता की निशानी नहीं। आप का पार्टनर बहुत अच्छा कमाता हो, तब भी आप काम कर रही हैं तो इसका मतलब यह है कि आप अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रही हैं, आप आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रही हैं। किसी दूसरे के ऊपर आधारित रहने के बजाय आप को ख़ुद काम करना ज़्यादा अच्छा लगता है। सच पूछो तो आत्मनिर्भरता से अच्छा दूसरा कुछ नहीं होता। सोनाली कुलकर्णी का मुद्दा कुछ ऐसा ही था कि आप का पार्टनर या आप के पिता भले ही बहुत धनी हों, पर आप की पहचान केवल उनके नाम तक ही रखनी है या अपने नाम के द्वारा बनानी है, यह आप के हाथ की बात है। याद रखिए महिला की सब से बड़ी सुरक्षा उसकी सक्षमता है। इस सक्षमता में सब कुछ आ जाता है। 

सुविधा की आदी न बनें

बात यह है कि जैसे-जैसे सुविधा मिलती जाती है, हम उस सुविधा के आदी बनते जाते हैं और वैसे-वैसे परावलंबी होते जाते हैं। आर्थिक दृष्टि से नहीं, सुविधा की दृष्टि से भी हमारा परावलंबी होना हमारी सहनशक्ति कम कर देता है। हम सुविधाओं के इतने आदी हो जाते हैं कि सहज मात्र सुविधा न मिलने पर हमारे शरीर और मन पर इसका असर हो जाता है। 

बात पद्मश्री की

अभी जल्दी ही गुजरात की रहने वाली हीराबाई लोबी को पद्मश्री मिला है। हीराबाई सीदी कम्युनिटी (समाज) की सशक्त महिला हैं। उन्होंने अपनी कम्युनिटी (समाज) की महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए अनेक तकलीफ़ें सह कर काम किया है। उन्होंने अपनी क़ौम की महिलाओं की समस्याओं के लिए आवाज़ उठाने का मुश्किल काम किया है। उनके इस नेक कार्य के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री दे कर सम्मानित किया है। इस तरह के तमाम उदाहरणों से हम समझ सकती हैं कि महिलाओं को परावलंबी होना छोड़ कर अपने विकास के लिए काम करना चाहिए। 

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