छोटे बच्चों की मोबाइल की लत के लिए माँ-बाप ज़िम्मेदार
आलेख | काम की बात स्नेहा सिंह1 Oct 2024 (अंक: 262, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
आप छोटी थीं तो समय बिताने के लिए क्या करती थीं? यह बात 30 साल की उम्र वाली किसी भी महिला से पूछा जाए तो वह अपने बचपन के खट्टेमीठे अनुभव के साथ याद करते हुए कहेगी कि सहेलियों के साथ घर-घर खेलती थी, छोटे-छोटे बर्तनों को ठीक से रखती थी, शाम को दोस्तों के साथ गार्डन में खेलती थी, बरसात में काग़ज़ की नाव बना कर उसे तैराती थी, मिट्टी गीली कर के उससे छोटी-छोटी चीज़ें बनाती थी, मेला घूमने जाती थी और इसी तरह की तमाम चीज़ें कर के समय बिताती थी। अनेक प्रवृत्तियों से भरा हमारा बचपन सचमुच समृद्ध था। क्योंकि उस समय मोबाइल इस दुनिया में नहीं था।
25 से 40 साल की उम्र वाले हर व्यक्ति को चाहे लड़का रहा हो या लड़की, सभी को समृद्ध बचपन मिला है। क्योंकि तब मोबाइल का प्रकोप आज की तरह नहीं था। यह भी कहा जा सकता है कि वह समय बच्चों के लिए स्वर्णकाल था। हम समय बिताने के लिए मोबाइल के सहारे नहीं रहते थे। हमारे पास करने के लिए अनेक प्रवृत्तियाँ थीं। अब के बच्चों के पास यह स्कोप कम हो गया है। आज ज़्यादातर पेरंट्स और बच्चे मोबाइल का उपयोग ख़ूब कर रहे हैं। लोग शिकायत करते हैं कि बच्चे गैजेट्स के आदी हो गए हैं। हम लोगों को जिस उम्र में मात्र खिलौनों से खेलना आता था, उस उम्र में हमारे बच्चे मोबाइल खोल कर यूट्यूब खोज लेते हैं और उसे चालू कर के मनपसंद के कार्टून देखते हैं। मोबाइल में पासवर्ड लगा रखा है तो एक बार बच्चे के सामने पासवर्ड खोल दिया जाए तो उसे झट पता चल जाता है। गैजेट्स के कारण बच्चों में स्मार्टनेस जल्दी आ जाती है। जबकि स्मार्ट होना तो अच्छी बात है, पर गैजेट्स की ललक बच्चे को न्युरोलाॅजिकल समस्या तक ले जा सकती है।
अधिक टाइम स्क्रीन का असर
स्क्रीन टाइम को ले कर भी शिष्टता होनी ज़रूरी है। पहले 2 साल तक तो बच्चे को मोबाइल से बिलकुल दूर रखना चाहिए। इसके बाद 3 से 5 साल के बीच में उसे मोबाइल दिया जा सकता है, पर उसका मैक्सिमम समय एक घंटा रखें। 5 साल बाद यह समय घटा दें। मोबाइल में बच्चा कैसा कंटेंट देखता है, इसका भी ध्यान रखें। अगर उसे बारबार कंटेंट बदलने की आदत है तो उसे टोकें। यह अच्छी आदत नहीं है। अधिक देर तक मोबाइल का उपयोग करने से बच्चे को न्युरोलाॅजिकल समस्या हो सकती है। स्वभाव में अधीरता, ग़ुस्सा, एक ही बात को रिपीट करने की आदत, एकाग्रता का अभाव, एडीएचडी आदि अनेक समस्याएँ हो सकती हैं।
हमारा भूतकाल और बच्चों का वर्तमान
हम अपने बचपन को खंगालें तो ख़्याल आएगा कि हमें पढ़ने का शौक़ अपने दादा-दादी या माता-पिता से डेवलप हुआ है। पहले के समय में ज़्यादातर घरों में लोग किताबें रखते थे। जिन्हें पढ़ना नहीं आता था, वे अपने बच्चों को दूसरी प्रवृत्ति सिखाते थे और तमाम लोग यह कहते थे कि उन्हें पढ़ना नहीं आता, पर तुम सीखो। वह हम सभी का भव्य भूतकाल था। हम ने मांटेसरी पद्धति से पढ़ना सीखा और जीवन की उपयोगी अन्य चीज़ें भी सीखीं। पर आज के बच्चों का क्या? नो डाउट (निःस्संदेह) हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का श्रेष्ठ प्रयत्न करते हैं, फिर भी हम जिस ऑथेंसिटी (वास्तविकता) में बड़े हुए हैं, उसकी कमी कहीं न कहीं हमारे बच्चों के बचपन में अवश्य दिखाई देती है। इसका एक कारण हमारे स्वभाव का अधिक सेंसटिव (संवेदनशील) स्वभाव भी कहा जा सकता है। दूसरा यह कि अब के बच्चे समय बिताने के लिए खिलौनों के बजाय मोबाइल नाम के खिलौने से खेलना पसंद करते हैं। इसके पीछे का कारण कहीं न कहीं हम ख़ुद हैं।
बच्चा जो देखेगा, वही सीखेगा
माता-पिता की सब से बड़ी शिकायत यह होती है कि बच्चा मोबाइल का आदी हो गया है। पहले इसी के विषय में बात करते हैं। आज का बच्चा बहुत कम उम्र से ही गैजेट्स और ख़ास कर मोबाइल का क्रेज़ रखने वाला बन जाता है। इसका सब से बड़ा कारण हम ख़ुद हैं। जब हम ख़ुद ही मोबाइल का उपयोग ख़ूब करेंगे तो बच्चे भी वहीं सीखेंगे। छोटे से जब थोड़ी समझ डेवलप (विकसित) होती है तो बच्चा अपने आसपास के लोगों के हाथों में मोबाइल देखता है। उस समय गोद में सोए बच्चे को यह पता नहीं होता कि उसके माता-पिता या किसी के भी हाथ में यह क्या है? जो अधिकतर इनके हाथों में होता है। एकदम कमउम्र से ही उनके दिमाग़ में यह जिज्ञासा डेवलप होने लगती है कि मेरी ही तरह इम्पार्टेड यह क्या चीज़ है, जो सभी के हाथों में होती है। वह उसे अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देखता रहता है। इसके बाद जब वह खाने-पीने में आनाकानी करता है तो मम्मी मोबाइल दिखा कर उसे खाने के लिए ललचवाती है। लगभग सभी बच्चों की मोबाइल देखने की आदत इसी तरह डेवलप होती है। 5 साल का होते-होते यह आदत अतिशय बन जाती है। इसमें ग़लती उसकी अकेले की नहीं है, इसमें पेरंट्स की भी उतनी ही ग़लती है। हम सभी बच्चों के सामने मोबाइल ले कर बैठ जाते हैं। वह बुलाता है या साथ खेलने के लिए कहता है तो हम सभी को मोबाइल देखने में ख़लल पड़ता है, तब हम सभी खीझ उठते हैं। हम सभी का यह ऐक्शन उन्हें सिखाता है कि जीवन में मोबाइल का कितना महत्त्व है। थोड़े समझदार बच्चे को अनुभव होता है कि मेरे पेरंट्स को मेरी अपेक्षा मोबाइल ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। आपकी यही बात वह फ़ॉलो करता है। इसके बाद हम सभी शिकायत करते हैं कि बच्चा मोबाइल का आदी हो गया है। जबकि उसकी यह आदत हम ख़ुद लगाने वाले होते हैं। जब हम ख़ुद मोबाइल नहीं छोड़ सकते तो बच्चों से कैसे उम्मीद रखें।
बेसिक आदत बदलने की ज़रूरत
अब महिलाएँ पौराणिक रीति-रिवाज़ फ़ॉलो करने लगी हैं। गर्भ के दौरान गर्भसंस्कार कराना और अच्छा साहित्य पढ़ना यह सब बेसिक है। महिलाएँ अब यह सब करती हैं। पर यह पत्थर की लकीर नहीं है। यह सब होने के बावजूद बच्चे की आदत अच्छी ही होगी, यह ज़रूरी नहीं है। बच्चे के जन्म के बाद आप का ऐक्शन कैसा है, यह भी ज़रूरी है, क्योंकि बालक का पहला शिक्षक उसका घर ही होता है। वह घर में जैसा वातावरण देखेगा, वैसी ही उसके अंदर भी आदत डेवलप होगी। अगर बच्चा घर वालों को पढ़ता देखेगा तो वह भी पुस्तक प्रेमी बनेगा और वह मोबाइल का अधिक उपयोग करते देखेगा तो मोबाइल प्रेमी बनेगा।
बच्चे को कुएँ का मेंढक न बनाएँ
अपने यहाँ 2 तरह के पेरंट्स हैं। एक वे जो एक अमुक उम्र तक बच्चों को घर से बाहर भेजने में डरते हैं और दूसरे जो बच्चों से बहुत कुछ करा लेना चाहते हैं। बाहर न जाने देने वाले पेरंट्स बच्चों की मोबाइल या टीवी की लत के लिए सब से अधिक ज़िम्मेदार होते हैं। क्योंकि घर के अंदर रहने वाला बच्चा आख़िर करे क्या? कितना इनडोर गेम खेले। आख़िर में ऊब कर वह मोबाइल या टीवी देखने की ज़िद करेगा। ऐसा न हो, इसलिए बच्चे को बाहर ले जाएँ, अन्य बच्चों से हिले-मिले। उसे कुएँ का मेंढक न बनाएँ। अब दूसरी तरह के अपने बच्चे को सब कुछ सिखाने की अपेक्षा रखने वाले पेरंट्स। इस तरह के पेरंट्स भी अपने बच्चों के लिए ख़तरा हैं। अति की कोई गति नहीं। एक साथ सब कुछ सिखा देने की अपेक्षा रखना भी कम ख़तरनाक नहीं है। धीरज रखना चाहिए, समय के साथ सब हो जाएगा। बस, अपने बच्चों को अथेंटिक और गैजेट्स फ़्री जीवन देने की कोशिश करेंगे तो बाक़ी सब अपने आप हो जाएगा।
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